विष्णुबुवा ब्रह्मचारी : द्रष्टा संन्यासी एवं हिंदू धर्मरक्षक प्रचारक

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सुरेश गोखले

विष्णुबुवा ब्रह्मचारी 19वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के तपस्वी, हिंदू पुनरुत्थानवादी एवं हिंदू धर्मरक्षक थे। वह मुख्य रूप से ईसाई पंथ के खिलाफ अपने वाद विवाद के लिए जाने जाते हैं। वह ईसाई मिशनरियों का सामना करते हुए अपनी “हास्य प्रतिक्रियाओं और जोरदार तर्कों के लिए प्रसिद्ध है। 1857 का उनका मुंबई वाद विवाद (बॉम्बे वाद विवाद) व्यापक रूप से अंग्रेजी और मराठी में प्रकाशित हुई थी।

प्रारंभिक जीवन
विष्णुबुवा का जन्म अधिक श्रावण शुद्ध पंचमी शक 1747 के शुभ दिन अर्थात 20 जुलाई, 1825 को महाराष्ट्र के रायगड जिले में माणगांव तहसील के शिरवली नामक गांव में हुआ। उनका पूरा नाम विष्णु भिकाजी गोखले है। 5 वर्ष की आयु में उनके पिता का निधन हुआ। 7 वर्ष की आयु में कुछ समय के लिए अध्ययन करने के बाद, गरीबी के कारण उन्हें अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने आजीविका के लिए तहसील कचहरी में नौकरी शुरू कर दी। यहाँ डेढ़ वर्ष नौकरी करने के बाद पारिवारिक आवश्यकताओं के कारण उन्हें घर लौटना पड़ा। परंतु 12 वर्ष की आयु में उन्होंने महाड़ शहर (जिला- रायगड, महाराष्ट्र) में गांधी नामक परिवार के किराने की दुकान में काम करना प्रारंभ किया। महाड़ से उन्होंने विष्णु मंदिर में चलने वाली वेदपाठशाला में एक साल वेदाध्ययन किया।

विष्णुबुवा के जन्म गांव शिरवली में उनके बारे में एक कथा बताई जाती है। ग्रामीणों का कहना है कि शिरवली क्षेत्र में अधिकतर आम के पेड़ विष्णुबुवा द्वारा लगाये गये हैं। विष्णुबुवा का एक अच्छा मित्र था जिसका नाम सावलाराम था। वर्षा ऋतु प्रारंभ होने के बाद विष्णुबुवा और सावलाराम दोनों एक-एक थैली में आम के बीज और कुदाल लेकर चलते थे और आसपास के जंगल में, पहाड़ों पर आम के बीज बोते थे। उनके द्वारा लगाए गये पेड़ों के आम कई पीढ़ियों ने खाए हैं। समय के चलते हुए उनमें से कई पेड़ काट दिये गये।

14 साल की आयु में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सीमा शुल्क विभाग की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की और लगभग 7 वर्षों तक वहां सेवा की। सीमा शुल्क विभाग में उन्होंने विभिन्न स्थानों जैसे वसई, कल्याण, भिवंडी और उरण में काम किया। बचपन से ही उन्हें आध्यात्मिकता के प्रति प्रखर आत्मीयता थी। उन्होंने श्रीमद्भागवत, महाभारत, रामायण, परमामृत, विवेकसिंधु, ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, भावार्थ रामायण, एकादशस्कंद, चतुःश्लोकी भागवत, रुक्मिणी स्वयंवर, हस्तामलक, दासबोध, बोधसागर, जानसागर, विज्ञानसागर, आनंद सागर, शांतिसागर, रामविजय, हरिविजय, पांडवप्रताप, शिवलीलामृत, योगवासिष्ठ, रामगीता आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया था। वह अपना काम प्रामाणिकता से पूरा करने के बाद, बाकी समय कीर्तनकार, साधु, बैरागी, संन्यासियों के साथ बिताते थे। हमेशा भजन, कीर्तन, प्रवचन में लगे रहते थे, परन्तु वह शांति और संतुष्टि नहीं पा सके। अंततः 23 वर्ष की आयु में उन्होंने सभी रिश्ते नाते त्याग दिये, अपनी नौकरी का त्याग किया और आत्म साक्षात्कार की खोज में जंगल की ओर चल पड़ें।

विष्णुबुवा ने सदगुरु की खोज में कुछ समय बिताया, परंतु वह निराश हुए उन्होंने कई संतों से मुलाकात की और उनसे मार्गदर्शन लेना चाहा परंतु उनमें से कोई भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया। फिर उन्होंने अपने स्वयं के प्रयासों से ही आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कराने का निश्चय किया। तदनुसार, वे सप्तशृंगी पर्वत, नासिक गये और कंदमूल खाकर गुजारा किया और कठोर तपस्या की। वह हमेशा वेदांत विचार और ध्यान में तल्लीन रहते थे। इस स्थान पर, उन्हें दिव्य आदेश प्राप्त हुआ। उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने अपनी कठोर तपश्चर्या और साधना से आत्म-साक्षात्कार की स्थिति प्राप्त कर ली है। परंतु वह संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगा कि आत्मसाक्षात्कार तो प्राप्त हुआ है, परंतु अपने समाज को धर्म के अंतिम और उचित अर्थ से अवगत कराने के लिए स्वयं को समर्पित करना चाहिए। उनके अंतःकरण में एक प्रेरणा उत्पन्न हो गई कि उन्हें अपना शेष जीवन विश्व कल्याण के लिए बिताना चाहिए।

उन्हें लगा कि लोगों को अपने सर्वोच्च और श्रेष्ठ धर्म से परिचित कराने के लिए, वेदों द्वारा परिकल्पित वेदोक्त धर्म का मार्ग अपने समाज बांधवों को दिखाना चाहिए। उन्हें श्री दत्तात्रेय से एक दिव्य आदेश प्राप्त हुआ कि धर्म के नाम पर प्रचलित अनाचार और दुष्कर्म को ध्वस्त करके, तथा विधर्मी विदेशी मतों का खंडन करके वेदोक्त धर्म को फिर से स्थापित करना चाहिए।’ तदनुसार, विष्णुबुवा अपनी यात्रा के लिए चल पड़े। वह नासिक होकर पंढरपुर गये। उन्होंने दो बार संत एकनाथ महाराज द्वारा लिखित भावार्थ रामायण का पारायण किया। अपनी प्रखर वाणी से लोगों को वेदोक्त धर्म का महत्व बताना शुरू किया। उनकी महान वाक्पटुता ने लोगों पर एक छाप छोड़ी। जल्द ही उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हुई और लोगों ने उन्हें ब्रह्मचारी बुवा’ कहना शुरू कर दिया। वैदिक धर्म के वास्तविक सार को सामने लाने के लिए उन्होंने 1856 में पंढरपुर में अपना पहिला ग्रंथ ‘भावार्थसिंधु’ लिखा।

पंढरपुर में विष्णुबुवा का ब्रिटिश सरकार के शिक्षा विभाग में निरीक्षक का काम करनेवाले श्री. महादेवशास्त्री कोल्हटकर से परिचय हुआ। महादेवशास्त्रीजी ने उन्हें महाराष्ट्र में विभिन्न स्थानों और कस्बों का दौरा करने का आग्रह किया जैसे कि बारामती, पुणे, अहमदनगर, सांगली, सातारा, मिरज, वाई, कोल्हापुर, सोलापुर। इन स्थानों पर विष्णुबुवा ने वेदोक्त धर्म के महत्व पर जोर देते हुए व्याख्यान दिये।
सितंबर 1856 में, विष्णुबुवा द्वारका जाने हेतु मुंबई आए। बहुधा वह ईसाई मिशनरियों द्वारा हिंदू धर्म पर हो रहे आक्रमण से परिचित थे। ईसाई मिशनरियों ने भारतीय लोगों के बीच अपने ईसाई पंथ को बहुत प्रभावी रूप से फैलाने का काम किया था। अपने धर्मार्थ रवैये के साथ, उन्होंने हिंदू समाज के अशिक्षित और निचले जाति के लोगों पर एक छाप छोड़ी और उनके मन को जीत लिया। दूसरी ओर उन्होंने ईसाई पंथ के तथाकथित और मानवतावादी सिद्धांतों को प्रचारित करके शिक्षित और कुलीन वर्ग को प्रभावित करने की कोशिश की।
ईसाई मिशनरियों के प्रचार के कारण, हिंदू धर्म पर एक महान संकट आ रहा था। हिंदू धर्म का शिक्षित वर्ग भी पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित था। स्वधर्म के बारे में एक तरह का हीनतापूर्ण भाव आम लोगों के दिमाग पर छाने लगा था। ब्रिटिशों ने न केवल राजनीतिक रूप से भारत पर नियंत्रण किया था, बल्कि उन्होंने मिशनरियों के माध्यम से हिंदू समाज पर सांस्कृतिक और धार्मिक आक्रमण का एक षडयंत्र भी रचा था। विष्णुबुवा ने मिशनरियों द्वारा हिंदुओं के ईसाईकरण की कुटिल योजना को पहचाना था और इसे जमकर विरोध करके इस पर अंकुश लगाने का संकल्प किया।

वेदोक्त धर्म रक्षण
ईसाई मिशनरियों ने हिंदू धार्मिक ग्रंथों का अभ्यास किया था अपने स्वार्थ हेतु उन्होंने कई मुद्दे ढूंढ निकालें और उनका उपयोग ईसाई पंथ का प्रतिपादन और हिंदू धर्म की आलोचना करने के लिए शुरू किया। विष्णुबुवा मिशनरियों की यह विकृत कार्यशैली भली भाँति जानते थे। इसके विरोध में, विष्णुबुवा ने बैठकों में सामाजिक परामर्श और प्रबोधन शुरू किया। हर शनिवार को उन्होंने गिरगाँव मुंबई में प्रभु सेमिनरी में व्याख्यान दिये। उन्होंने कुल 50 ऐसी बैठकें की। इन सत्रों में विष्णुबुवा ने प्रभावी रूप से ईसाई मिशनरियों से उनके शरारती और अशिष्ट आलोचना का प्रतिवाद किया। उनका सार्वजनिक भाषण और वाद विवाद कौशल बहुत प्रभावशाली था। 15 जनवरी 1857 से 28 मई 1857 तक, हर गुरुवार शाम को उन्होंने मुंबई बैंकबे के समुद्र तट पर ईसाई मिशनरियों – रे. विल्सन, रे. जी. जॉर्ज बोवेन, रे. नारायण शेषादी, रे. डेव्हिडसन, रे बैलंटाइन के साथ 20 सार्वजनिक चर्चा सभा की। अपनी वाणी से उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा वैदिक धर्म के विरुद्ध उठाये आपत्तियों का खंडन किया और लोगों को इसकी श्रेष्ठता से लिए अवगत कराया। उन्होंने अपने सशक्त तकों के साथ, कई लोगों को प्रभावित किया, जो नास्तिक बन गये थे। उन्होने कन्वर्टेड हिंदुओं का परावर्तन (घरवापसी) करके पुनः हिंदू धर्म में लाया। विष्णुबुवा के अविरत प्रयत्नों से ईसाई मिशनरियों का हिंदू धर्म विरोधी अश्लाघ्य प्रचार निरस्त हुवा। इसी तरह विष्णुबुवा के प्रभाव से पारसी समाज में अपने धर्म के प्रति आस्था बढ़कर उनका ईसाईकरण बंद हुआ।

ईसाई मिशनरी जी. जॉर्ज बोवेन समुद्र तटपर होने वाली इन सभाओं में भाग लेते थे। उन्होंने इन सभाओं के दौरान आयोजित चर्चाओं का लेखा जोखा देते हुए Discussions By The Seaside (1857) नाम से एक पुस्तक लिखी। इसका मराठी अनुवाद ‘ समुद्रकिनारीचा वाद विवाद 1872 में प्रकाशित हुआ था।

विष्णुबुवा ब्रह्मचारी का सामाजिक कार्य
यद्यपि विष्णुबुवा को वैदिक धर्म पर गर्व था, परंतु उन्हें प्रचलित सामाजिक संरचना में उत्पन्न हुए दोषो की पूरी जानकारी थी। उनका स्पष्ट मानना था कि हिंदू समाज के बिगड़ने के लिए जाति भेदभाव और सामाजिक असमानता जिम्मेदार थी। इसलिए, हमने अपनी स्वतंत्रता खो दी और आक्रमण, शोषण और यातना के लक्ष्य बन गये। समाज के प्रत्येक घटक को सार्वजनिक जीवन में समान अधिकार प्राप्त हो इस बात की उन्होंने दृढ़ता पूर्ण प्रतिपादन किया ।

विष्णुबुवा सामाजिक सुधारों के प्रति दृढ थे। उनका व्यक्तिगत व्यवहार उनके सुधारवादी विचार के अनुरूप था। वह जातपात नहीं मानते थे। किसी भी जाति के व्यक्ति से परोसा हुआ भोजन और पानी वे ग्रहण करते थे। उनका चरित्र बहुत शुद्ध था। विष्णुबुवा ने सामाजिक असमानता, अमानवीय और अन्यायपूर्ण व्यवहार के विरोध में अपनी आवाज उठाई। वह मानते थे कि उच्च जातियां अपने वंचित भाइयों के पिछड़ेपन के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा कि ब्राह्मणों को दलितों को बिना घृणा के अपने समान मानना चाहिए। उनके सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और मंदिर प्रवेश और पूजा अर्चना के रूप में उनके सही अधिकारों को खुशी से स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने पुनर्विवाह, वयस्क विवाह, परावर्तन, घटस्फोट, लड़कियों की शिक्षा आदि के बारे में अपने सकारात्मक विचार समाज के सामने रखे और पालन करने का आग्रह किया।

समानता पर विचार
इस महान आध्यात्मिक और सुधारवादी संन्यासी के विचार स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित हैं, जो वास्तव में मनोवेधक हैं। विष्णुबुवा ने 1859 में ‘वेदोक्तधर्मप्रकाश’ नामक एक मराठी ग्रंथ लिखा। इस पुस्तक में राजनीति पर एक अलग अध्याय है।
इसके अलावा, उन्होंने अपने उन्नत विचार ‘सुखदायक राज्यप्रकरणी निबंध’, 1867 यह छोटी मराठी पुस्तक में लिखे। यह बात माननी पड़ेगी कि कुछ महीने बाद कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित ‘दास कैपिटल’ प्रस्तुत किये गये ‘कुछ विचार विष्णुबुवा द्वारा प्रस्तुत विचारों से मिलते जुलते हैं। उन्होंने अपनी इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद ‘Essays on Beneficent Government’ 1869 में प्रकाशित किया। उसकी 10,000 प्रतियां छपवाई और भारत और विदेशों में प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को भेजी। इसमें ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया भी सम्मलित थी।
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, बड़ी मात्र में यांत्रिकीकरण हुआ और यंत्रों द्वारा निर्मित वस्तुओं का उत्पादन होने लगा। औद्योगिकीकरण के कारण श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ। विष्णुबुवा ने श्रमिकों की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए उसी के संबंध में अपने विचारों को प्रस्तुत किया।

उनकी उपरोक्त पुस्तक सुशासन की एक आदर्श अवधारणा है। इस पुस्तक का निम्नलिखित उद्धरण उनके विचारों के बारे में अच्छी जानकारी देता है। ” इसी तरह से कि सभी लोग एक परिवार हैं और सभी भूमि एक बगीचा है और जो कुछ भी इसमें उत्पादित किया जाता है वह सभी के लिये है। शासन के इस रूप में, सभी को सभी लाभ मिलते हैं और सभी को अच्छी तरह से खिलाया जाता है। इसलिए, सभी लोग संतोष के साथ जीवन जीएंगे। सभी भूमि का उपयोग अनेक प्रकार के धान की खेती और कई प्रकार के फलों, कंद, सब्जियों के लिये किया जाना चाहिए और इसे गांवों के भंडार में संग्रहीत किया जाना चाहिए। सभी ग्रामीणों को इससे आवश्यक धन, पदार्थ लेना चाहिए। पूरे वर्ष भूमि की खेती की जानी चाहिए और सभी खेतों के उत्पादन को एक व्यक्ति की नियंत्रण में रखा जाना चाहिए और सभी को आवश्यक भोजन प्राप्त करना चाहिए।

पांच साल की उम्र में सभी बालक और बालिकाओं को राजा को सौंप दिया जाना चाहिए। राजा को उनकी शिक्षा और कौशल विकास की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। हर एक व्यक्ति अपनी बुद्धि और रुचि अनुसार शिक्षा ग्रहण करें और काम सीखें और भविष्य में सुखी जीवन व्यतीत करें।

आधुनिक भारत में प्रत्येक नागरिक की पहचान का प्रमाण आधार कार्ड है। यह जानकर वाचकों को आश्चर्य होगा कि विष्णुबुवा ने अपनी ‘वेदोक्त धर्मप्रकाश इस पुस्तक में लिखा था कि सरकार के पास प्रत्येक नागरिक की पूरी जानकारी होनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक के जन्म, रंग, शिक्षा, व्यवसाय, गुण विशेष, उसकी यात्रा, मृत्यु के बारे में जानकारी सरकारी कार्यालय में होनी चाहिए। विष्णुबुवा को आज के ‘आधारकार्ड और पारपत्र की कल्पना के जनक’ कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा।

विष्णुबुवा द्वारा लिखी गई कुछ अन्य उल्लेखनीय पुस्तकों में ‘चतुःश्लोकी भागवत याचा अर्थ (1867), सहज स्थितीचा निबंध (1888) शामिल हैं। उनके द्वारा लिखे गए और उनके निधन के बाद प्रकाशित किए गए ग्रंथ, ‘वेदोक्त धर्माचा विचार व ख्रिस्तीमतखंडन (Essence of Teachings 1874) और ‘ सेतुबंधनी टीका (1890) शामिल है। सेतुबंधनी टीका’ भगवद्गीता पर भाष्य है। इसे एक सेतु (पुल) के रूप में वर्णित किया जा सकता है, जो अज्ञानता से ज्ञान की ओर जाता है। उनकी पुस्तक ‘भावार्थ सिंधु’ का गुजराती भाषा में और वेदोक्त धर्मप्रकाश’ का भोजपुरी भाषा में अनुवाद किया गया । विष्णुबुवा ने प्रबोधन और परामर्श के साथ, लोगों को पुस्तकालयों और समाचार पत्रों की स्थापना के लिए प्रेरित किया। विष्णुबुवा ने अपने जीवन कार्य हेतु कोलकाता, वाराणसी, चेन्नई और गुजरात आदि स्थानों परामर्श और प्रबोधन के लिए 3 वर्ष (1861- 1883) यात्रा की।

कोलकाता में श्री माधव अनंत दलाल ने उनकी मदद की। विष्णुबुवा कोलकाता में 2 वर्ष रहे, जहां उनकी ब्राह्मो समाजियाँ तथा कोलकाता के गणमान्य हस्तियों के साथ चर्चा, वार्तालाप और बैठकें हुईं। प्रस्तुत लेखक दिसंबर 2022 में विष्णुबुवा द्वारा कोलकाता में किये गये कार्य के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कराने के उद्देश्य में कोलकाता गया था। परंतु इस बारे में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हुई।

विष्णुबुवा वाराणसी में लगभग 3 मास रहे। वे हमेशा दशाश्वमेघ घाट पर जाते थे। वहां एक ईसाई पादरी आया करता था। वह भोले-भाले हिंदुओं को मूर्ख बनाकर उन्हें ईसाई बनाता था। एक बार उसकी काशी विश्वनाथ मंदिर के बाहर विष्णुबुवा के साथ भेट हुई। विष्णुबुवा ने उस ईसाई पादरी द्वारा हिंदू धर्म के विरोध किए हुए मुद्दों का जोरदार खंडन किया। विष्णुबुवा की खंडन मंडन शैली देखते हुए उसने पूछा, ” क्या मुंबई में ईसाई मिशनरियों के साथ वाद विवाद करने वाले विष्णुबुवा आपही हो ?” विष्णुबुवा का सही परिचय होते ही वह पादरी तुरंत भाग गया। जब तक विष्णुबुवा वहां थे तब तक वह वापस नहीं लौटा। श्रीमान आबाशास्त्री पटवर्धनजी के उपस्थिति में यह घटना हुई। यदि किसी अभ्यासक या वाचक के पास विष्णुबुवा ब्रह्मचारी के कोलकाता, वाराणसी, चेन्नई एवं गुजरात वास्तव्य के संदर्भ में कुछ जानकारी है तो उन्हें अनुरोध है कि वह प्रस्तुत लेखक से अवश्य संपर्क करें।

विष्णुबुवा के विचार प्रवर्तक व्याख्यान, प्रवचन और लेखन की वजह से हिंदू और पारसी समाज में वैचारिक जागरण हुआ और उन्होंने अपने धर्म पर गर्व करना शुरू किया। अंततः इसने ईसाई मिशनरियों की मायावी धार्मिक शिक्षा की गति को भी तोड़ दिया। उनके चालाक षडयंत्र पराजित हो गए और हिंदू और पारसी समाज के मतांतरण को रोक दिया गया। जो ईसाई बन गये थे उनका अपने पवित्र हिंदू और पारसी में लौटना स्वाभाविक था। विष्णुबुवा का 18 फरवरी, 1871 को (महाशिवरात्रि, माघ वद्य चतुर्दशी, शक 1792) विठ्ठल मंदिर, गिरगाव, मुंबई में निधन हुआ।

राष्ट्रवाद और सामाजिक हिंदुत्व की मूल आवाज
विष्णुबुवा को अपने पवित्र राष्ट्रीय कार्य में सर जीजीभॉय जमशेठजी, जगन्नाथ शंकरशेठ, हरि केशवजी सेठ गोकुळदास तेजपाल, भाऊ दाजी लाड, विनायकराव वासुदेव, नारायण दीनानाथजी, दादोबा पांडुरंग. दादाभाई नौरोजी . कई महान व्यक्तियों की सहायता मिली। अक्कलकोट के राजा मालोजीराजे भोसले के दरबार में विष्णुबुवा ने एक सप्ताह वेदोक्त धर्म के महत्व पर व्याख्यान दिये। यहां उनको श्री स्वामी समर्थ का साथ, मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिला।

केवल 46 वर्षों के जीवन काल में विष्णुबुवा ने सामाजिक परामर्श और जागरण का प्रशंसनीय काम किया, जिससे हिंदू धर्म का रक्षण हुआ। उन्होंने अपने देशवासी, विधर्मी और विदेशी लोगों से की जा रही आलोचना पर ध्यान नहीं दिया। अनेक अपमान सहे और वेदोक्त धर्म की स्थापना के अपने महान उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित किया। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद और सामाजिक हिंदुत्व की अवधारणा के पीछे की मूल आवाज कहा जा सकता है जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मा था।

1992 में स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क द्वारा प्रकाशित और केनेथ डब्लू जोन्स द्वारा संपादित पुस्तक Religious Controversy In British India के प्रथम अध्याय में वॉशिंग्टन विश्वविद्यालय के प्रो. फ्रँक कॉनलोन ने विष्णुबुवा के जीवन कार्य एवं उनके अलौकिक व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है। प्रो. कॉनलोन ने विष्णुबुवा का वर्णन करते हुए लिखा है, ‘विष्णुबुवा ब्रह्मचारी को आधुनिक समय के दो महान स्वामी, दयानंद और स्वामी विवेकानंद के पूर्ववर्ती के रूप में वर्णित किया जाता है ।’ (‘Vishnubuva Brahmachari has been described as the Predecessor of the two great swamis of modern times, Dayananda and Vivekananda.’)

विष्णुबुवा ब्रह्मचारी सामाजिक केंद्र
‘विष्णुबुवा ब्रह्मचारी सामाजिक केंद्र’ की स्थापना चैत्र शुद्ध पंचमी- लक्ष्मी पंचमी (6 अप्रैल 2022) पर की गई। इसका उद्देश्य विष्णुबुवा के चरित्र और कार्य के आधारपर समाज प्रबोधन और सेवा के माध्यम से बलशाली भारत के निर्माण के लिए प्रयास करना यह है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्येष्ठ प्रचारक श्रद्धेय श्री. मोरोपंत पिंगळे ने 90 के दशक में विष्णुबुवा के जन्मस्थान शिरवली का दौरा किया था। उन्होंने महान द्रष्टा विष्णुबुवा ब्रह्मचारी के चरित्र और कार्य के अनुरूप एक उचित स्मारक स्थापित करने का आग्रह किया था। विष्णुबुवा ब्रह्मचारी सामाजिक केंद्र’ इस न्यास की स्थापना के पीछे श्री. मोरोपंत पिंगळे जी की प्रेरणा है। न्यास को पूज्य श्री सनातन स्वामी (तिकोना पेठ, तालुका- मावल, पुणे) द्वारा आशीर्वाद प्राप्त है और उनका मार्गदर्शन उपलब्ध है। विष्णुबुवा ने शिरवली में श्रीदत्तगुरु पादुका की स्थापना की थी। विष्णुबुवा ब्रह्मचारी सामाजिक केंद्र द्वारा इनकी दैनंदिन पूजा की जाती है और प्रत्येक पूर्णिमा को पादुका पर अभिषेक किया जाता है।

विष्णुबुवा ब्रह्मचारी सामाजिक केंद्र की वेबसाइट vishnubuvabrahmachari.com अपनी योजनाओं, कार्यक्रमों और गतिविधियों का विवरण प्रदान करती है। इस वेबसाइट पर विष्णुबुवा की पुस्तकें अपलोड की गई है। विष्णुबुवा के जीवन और कार्य पर तीन विद्वानों ने PhD की है। उनके प्रबंध भी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। न्यास द्वारा विष्णुबुवा के साहित्य अनुसंधान और शिक्षा, प्रशिक्षण, अभावग्रस्त और दीन लोगों के लिए सेवा, प्रशिक्षण और विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

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