कृष्ण ने जरासंध के अत्याचारों से मथुरावासियों को मुक्ति दिलाने के लिए सुदूर पश्चिम में गुजरात में समुद्र के बीच ‘द्वारिका’ नामक एक भव्य नगरी बसायी
इतिहास में जितना बहुआयामी व्यक्तित्व विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण का है, वैसा संभवत: किसी अन्य का नहीं। भारत के पुरा इतिहास के इस सर्वोच्च व्यक्तित्व के विराट चरित्र को शब्दों में बांध पाना उतना ही मुश्किल है जितना सागर की लहरों को बॉहों में समेट पाना। यह श्रीकृष्ण के चरित्र की विलक्षणता ही है कि अजन्मा होकर भी वे पृथ्वी पर एक बंदीगृह में जन्म लेते हैं। मृत्युंजय होने पर भी आमजन की तरह मृत्यु का वरण करते हैं। राजपुत्र होने पर भी ग्वालों के बीच बचपन बिताते हैं। समूचे संसार को ज्ञान, कर्म और भक्तियोग की दिव्य ज्योति दिखाने वाले कृष्ण ने अवतरण से लेकर लोक लीला संवरण तक, एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जो मानवता के उद्धार के लिए न हो।
सर्वविदित है कि वाम इतिहासकारों ने हमारी सनातन संस्कृति में पूज्य कृष्ण को कपोल कल्पना बताकर हमारी गौरवशाली विरासत को धूमिल करने का ओछा षड्यंत्र रचा था, लेकिन बीते कुछ दशकों में हुए ऐतिहासिक शोधों ने उन्हें सच का आईना दिखा दिया है। ब्रिटेन में न्यूक्लियर मेडिसिन के क्षेत्र में कार्यरत प्रवासी भारतीय डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित विभिन्न खगोलीय घटनाओं व पुरातात्विक तथ्यों के आधार पर महाभारत युद्ध का समय 3067 ईसा पूर्व बताया था जो कृष्ण जन्म के पौराणिक विवरण के काफी निकट है। उनके इस शोध के अनुसार कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व 3112 में हुआ था।
अपने इस अन्वेषण के लिए उन्होंने मेम्फिस यूनिवर्सिटी में भैतिकी के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में किए गए शोध के साथ जलमग्न द्वारिका के पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त कृष्ण व बलराम की छवियों वाले सिक्के तथा मोहरें और यूनानी राजा हेलिदोरस के द्वारा श्रीकृष्ण को सम्मान देने के पुरातात्विक तथ्यों को आधार बनाया है।
हालांकि ब्रज मंडल के सांस्कृतिक इतिहास के जाने-माने विद्वान डॉ. प्रभुदयाल मीतल छांदोग्योपनिषद् के आधार पर कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का बताते हैं। डॉ. मीतल लिखते हैं-‘मैत्रायणी उपनिषद् और शतपथ ब्राह्मण के ‘कृतिका स्वादधीत’ के उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना के आधार पर पूना में गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने श्री कृष्ण का कालखंड 5000 वर्ष पूर्व का आंका था।
भारत के जाने—माने भागवत कथाकारों का भी कहना है कि श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित उल्लेखों के अनुसार, भगवान विष्णु के 8वें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का अवतरण आज से लगभग पांच हजार साल पहले 8वें मनु वैवस्वत मन्वंतर के 28वें द्वापर युग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र में मथुरा नगरी में हुआ था। हरिवंश पुराण में कहा गया है कि श्रीकृष्ण अपने युग के सर्वाधिक सफल प्रशासक थे। द्वारिका से लेकर मणिपुर तक, भारत को एक सूत्र में आबद्ध कर उन्होंने राष्ट्र को इतना बलवान बना दिया था कि सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शक्तियों द्वारा कई प्रयत्न किये जाने के बावजूद देश खंडित नहीं हुआ। आततायी शासन के अत्याचारों से मथुरावासियों को मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने सुदूर पश्चिम में गुजरात प्रांत में समुद्र के मध्य ‘द्वारिका’ नाम की एक भव्य नगरी बसायी थी।
एक समय था जब यह आधारहीन बात उड़ाई जाती थी कि ईसा पूर्व के कालखंड में भारत में उच्च कोटि की कोई सभ्यता नहीं थी, लेकिन पुरातात्विक उत्खनन, कार्बन डेटिंग व रडार स्कैनिंग के वैज्ञानिक अन्वेषण से द्वारिका की प्राचीनता की पुष्टि हो चुकी है। गुजरात के पास समुद्र में मिली इस उन्नत नगरीय सभ्यता के भग्नावशेष न सिर्फ ‘महाभारत’ ग्रंथ की ऐतिहासिकता की पुष्टि करते हैं बल्कि प्राचीन युग और आधुनिक भारत के बीच एक सीधा संबंध स्थापित करते हैं। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के 36 साल बाद हिमयुग के पश्चात जलस्तर के 400 फीट बढ़ जाने से यह भव्य नगरी समुद्र में विलीन हो गयी थी। ज्ञात सूत्रों के अनुसार, द्वारिका नगरी के अवशेषों की सबसे पहले खुदाई 1963 में डेक्कन कॉलेज पुणे में पुरातत्व विभाग और गुजरात सरकार ने मिलकर शुरू की थी।
भारत के जाने—माने भागवत कथाकारों का भी कहना है कि श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित उल्लेखों के अनुसार, भगवान विष्णु के 8वें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का अवतरण आज से लगभग पांच हजार साल पहले 8वें मनु वैवस्वत मन्वंतर के 28वें द्वापर युग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र में मथुरा नगरी में हुआ था। हरिवंश पुराण में कहा गया है कि श्रीकृष्ण अपने युग के सर्वाधिक सफल प्रशासक थे। द्वारिका से लेकर मणिपुर तक, भारत को एक सूत्र में आबद्ध कर उन्होंने राष्ट्र को इतना बलवान बना दिया था कि सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शक्तियों द्वारा कई प्रयत्न किये जाने के बावजूद देश खंडित नहीं हुआ।
पुरातत्ववेत्ता एच.डी.संकलिया की अगुआई में हुई इस खुदाई में शुरुआत में तीन हजार साल पुराने कुछ बर्तन मिले। इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ‘मैरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट’ और देश के ख्याति प्राप्त पुरातत्वविद् डॉ. एस.आर. राव के नेतृत्व में 1979 में यहां फिर से उत्खनन शुरू हुआ, जिसमें कुछ प्राचीन बर्तन मिलने के बाद समुद्र की गहराई में एक बेहद उन्नत सभ्यता के चिन्ह मिले। इसके बाद 2005 में एक और खोज में समुद्र के गर्भ में समाए पुरावशेष एक-एक कर सामने आए तो हजारों वर्ष पुराने पौराणिक विवरण जीवंत हो उठे।
विशालकाय भवनों और लंबी दीवारों के ढांचे, तराशे गए पत्थरों के टुकड़े इस पुरातन सभ्यता के अद्वितीय वैभव को उजागर करने लगे। अन्वेषण विशेषज्ञों का कहना है कि यहां समुद्र के भीतर जो दीवारें, नालियां व मूर्तियां मिली हैं, वे प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित हैं। शोधकर्ता मितुल चतुर्वेदी का कहना है कि वर्तमान की बेट द्वारका जहां स्थित है, समुद्र के उसी भाग में प्राचीन नगर बसा था। यहां समुद्र की गहराई में मिले स्तंभ, गोल आकृतियां, प्राचीन दीवार, पत्थर और नगर रचना के बेजोड़ नमूने एक अद्भुत देवलोक का आभास कराते हैं।
ऐसी थी कृष्ण की बनाई द्वारिका
हरिवंशपुराण के अनुसार, श्रीकृष्ण ने जब मथुरा त्यागकर यदुवंशी बंधु-बांधवों को अन्यत्र बसाने का विचार किया तो उनके वाहन पक्षिराज गरुड़ उन्हें उत्तर-पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र के तट पर ले आये। वहां समुद्रदेव ने सागर के मध्य नगर निर्माण के लिए उन्हें 12 योजन भूमि प्रदान की थी और देवशिल्पी विश्वकर्मा ने वहां उनके लिए स्वर्ण मंडित भव्य द्वारिका नगरी का निर्माण किया था। पौराणिक साक्ष्य देखें तो श्रीमद्भागवत, महाभारत तथा हरिवंशपुराण में द्वारिका के अद्वितीय वैभव का स्पष्ट विवरण दर्ज है। श्रीमद्भागवत (10,50, 50-52) में वर्णन है-यहां के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान तथा मेरु के समान उच्च थे।
नगरी के चारों तरफ चौड़ी खाइयां थीं, जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था, जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी। रमणीय द्वारिकापुरी की पूर्व दिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित था। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के आसपास अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के 50 प्रवेश द्वार थे। 50 द्वारों के कारण ही शायद इसका नाम द्वारिका या द्वारवती पड़ा। महाभारत का सभा पर्व (38) कहता है-द्वारिकापुरी चारों ओर से गहरे सागर से घिरी हुई थी।
सुंदर प्रासादों से सज्जित द्वारिका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यंत्र, शतघ्नियां, अनेक यंत्रजाल और लौहचक्र द्वारिका की रक्षा करते थे। द्वारिका की लंबाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका दोगुना था। द्वारिका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे, जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था। इस दिव्य नगरी के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे।
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