भारत रत्न सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन सार्थक शिक्षा प्रबल पक्षधर थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सर्वोत्तम सदुपयोग किया जा सकता है। शिक्षा का मकसद व्यक्ति को राष्ट्र का जिम्मेदार नागरिक बनाने का होना चाहिए। शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताबी ज्ञान लेना नहीं बल्कि चरित्र निर्माण और अनुशासन जैसे सद्गुणों का विकास भी है ताकि व्यक्ति किसी भी विषम परिस्थिति, समस्या से सुलझाने व जीवन के विभिन्न आयामों में सन्तुलन बनाए रखने में सक्षम हो सके। देश के प्रथम शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में विश्वविद्यालयीय व माध्यमिक शिक्षा के उत्थान के लिए अनेक सुधारवादी कदम उठाने वाले डॉ. राधकृष्णन शिक्षा के व्यवसायीकरण के कट्टर विरोधी थे। राष्ट्र के सर्वोच्च संवैधानिक पद को सुशोभित करने वाले डॉ.राधाकृष्णन मूलत: एक सुधारवादी शिक्षक थे। एक सर्वप्रिय आदर्श शिक्षक के रूप में अपने जीवन के 40 साल अध्यापन कार्य को समर्पित करने वाले इस महामनीषी की जयंती को हम सब भारतवासी हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस से रूप में मनाते हैं।
एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे राष्ट्र के इस महान शिक्षा मनीषी ने जिस तरह समूचे विश्व में भारत के ज्ञान-विज्ञान की विजय पताका लहरायी, वह हम सबके लिए गौरव का विषय है। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता थी कि विश्व शांति के लिए राजनीतिक या आर्थिक बदलाव नहीं बल्कि मानव का सुशिक्षित होना जरूरी है। शिक्षा अच्छे चरित्र का निर्माण कर व्यक्ति को सफल जीवन जीने की उच्चतम शैली सिखलाती है। जरूरत है तो इसे जीवन की प्रेरक शक्ति बनाने की। शिक्षा को जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया मानने वाले डॉ. राधाकृष्णन का कहना था, ‘’शिक्षा ऐसा सूरज है जिसकी ज्ञानरूपी प्रकाश किरणें समूचे विश्व ब्रह्मांड को आलोकित कर देती हैं। शिक्षा के द्वारा मानव मस्तिष्क का सर्वोत्तम सदुपयोग किया जा सकता है।‘’ शिक्षा को जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया तथा समूचे विश्व को एक शिक्षालय मानने वाले इस मनीषी का मानना था कि जीवन की प्रत्येक सफलता व असफलता से प्रेरणा लेकर हम सब स्वयं अपने शिक्षक बन सकते हैं। जरूरत है तो सतत जागरूक रह कर जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार रहने की।
मोटी कमाई का जरिया बन रहे निजी स्कूल
एक दौर था जब हमारे मन-मस्तिष्क में शिक्षक का विचार आते ही एक आदर्श व्यक्तित्व की छवि उभरती थी। मगर आज शिक्षा पर व्यावसायिकता और गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता देख बेहद तकलीफ होती है। काबिलेगौर हो कि वर्ष 1990 में भारत सरकार द्वारा देश में उदारीकरण का जो रास्ता अपनाया गया, उसने नैतिक जीवन मूल्यों पर आधारित भारत की मौलिक व समान शिक्षा व्यवस्था के ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तित कर दिया। भारतीय और विदेशी उद्योगपतियों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में भारी निवेश से देखते ही देखते समूचे देश में निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आ गयी है। कुकुरमुत्ते की तरह जगह जगह प्राइवेट स्कूल-कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, मैनेजमेंट संस्थान और डीम्ड यूनिवर्सिटी खुल गये जिनमें मोटी फीस लेकर उज्ज्वल भविष्य का सपना दिखाकर का दाखिला लिया जाने लगा। बताते चलें कि शिक्षा के व्यावसायीकरण की इस समस्या को कुछ साल पहले आयी एक सारगर्भित फिल्म “चाक एंड डस्टर” में अत्यन्त बारीकी व संदेशपरक ढंग से दर्शाया गया था।
पद्मश्री से सम्मानित देश के जाने-माने शिक्षाविद् प्रो जगमोहन सिंह राजपूत शिक्षा क्षेत्र में आये इस बदलाव पर चिंता बताते हुए कहते हैं कि आज सरकारी स्कूलों में देश के 60 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं। मगर मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान न दिए जाने के कारण इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता लगातार घट रही है और प्राइवेट स्कूलों की ओर लोगों का रुझान बढ़ रहा है। बकौल प्रो. राजपूत, किसी भी राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति का आधार उसकी शिक्षा की गुणवत्ता, स्वीकार्यता, गतिशीलता और उपयोगिता होती है। इसलिए सरकारी और निजी स्कूलों की स्तरीयता के इस अंतर को गंभीरता से कम करने जरूरत है। नीतिगत स्तर पर यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में किया गया निवेश सर्वोत्कृष्ट लाभांश देता है।
नयी शिक्षा नीति एक सकारात्मक पहल
विश्वगुरु भारत की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए भारत सरकार की नयी शिक्षा नीति को एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। देश के जाने माने शिक्षाविद् डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल कहते हैं कि मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्र निर्माण की दिशा में जो भी महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं, उनमें नयी शिक्षा नीति एक अत्याधिक महत्वपूर्ण कार्य है। यह कार्य आगामी वर्षो में सबसे युवा देश को सही दिशा प्रदान करने वाला एवं नई वैश्विक चुनौतियों पर विजय प्राप्त करने वाला सिद्ध होगा। वस्तुतः राष्ट्र निर्माण की दिशा में यह एक क्रांतिकारी कदम है। भारत को सतत ऊंचाईयों की ओर बढ़ने की दृष्टि से अति आवश्यक है कि भारत का युवा देश की विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी आवश्यकताओं, देश की कला, भाषा और ज्ञान परंपराओं के बारे में ठोस ज्ञान प्राप्त करे। आजीविका और वैश्विक पारिस्थितिकी में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों के कारण ये आवश्यक है कि देश का युवा इतना सक्षम हो कि विश्व पटल पर उसके आत्मविश्वास के सधे पांव कभी लड़खड़ाएं नहीं।
भारत में समग्र और बहु विषयक शिक्षादान की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। ज्ञान का विभिन्न कलाओं के रूप में दर्शन भारतीय चिंतन की पूरी दुनिया को सबसे बड़ी देन है। देश की नयी शिक्षा नीति का मूल लक्ष्य स्कूल और उच्च शिक्षा प्रणालियों में परिवर्तनकारी सुधार लाना है। इस नीति के तहत स्कूल से लेकर कॉलेज शिक्षा नीति तक में बदलाव किया गया है। नयी शिक्षा नीति का लक्ष्य है- शिक्षार्थी का संपूर्ण विकास जिसे साक्षरता, संख्याज्ञान, तार्किकता, समस्या समाधान, नैतिक, सामाजिक, भावनात्मक मूल्यों के विकास के द्वारा सम्भव किया जा सके। ज्ञान, प्रज्ञा, सत्य की खोज भारत के प्राचीनतम शिक्षा पद्धतियों के आधार हैं जिनकी लौ के प्रकाश में नई शिक्षा पद्धति का ढांचा गढ़ा गया है। इस नयी शिक्षा नीति का लक्ष्य युवा वर्ग के व्यक्तित्व का विकास इस प्रकार करना है कि उनमें अपने मौलिक दायित्वों, संवैधानिक मूल्यों, देश के साथ जुड़ाव, बदलते विश्व में नागरिक की भूमिका और उत्तरदायित्वों की जागरूकता उत्पन्न हो सके और भावी पीढ़ी सही मायने में वैश्विक नागरिक बनकर अपने ज्ञान, कौशल, मूल्यों का सदुपयोग करते हुए देश का नाम सतत ऊंचा कर सकें और साथ ही स्वयं भी गौरवान्वित हो सकें।
टिप्पणियाँ