भारत जी20 के अध्यक्ष के नाते नई दिल्ली में शिखर सम्मेलन आयोजित करने जा रहा है। इस एक वर्ष की अवधि में भारत ने दुनिया के देशों को अपनी सामर्थ्य दिखाई है, हर क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया है। दुनिया के इस हिस्से में, चीन भारत के उभार को लेकर बेचैन है, तो उधर हमने दुनिया के विभिन्न देशों के सच्चे मददगार के नाते दिखा दिया है कि हम विश्व को विकास और शांति का मार्ग दिखा सकते हैं। विश्व में भारत के बढ़ते कद, जी-20 और भारत-चीन संबंधों पर पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने अंतरराष्ट्रीय मामलों, विशेषकर भारत-चीन संबंधों के गहन जानकार, सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस एंड स्ट्रेटेजी के अध्यक्ष जयदेव रानाडे से लंबी वार्ता की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर अपने भाषणों में ‘ग्लोबल साउथ’ का उल्लेख करते हैं। ये ‘ग्लोबल साउथ’ की अवधारणा क्या है, विश्व राजनीति पर यह क्या असर डाल सकती है?
पहली बात तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लोबल साउथ का जिक्र अक्सर किया है, लेकिन यह नहीं कहा है कि भारत ‘ग्लोबल साउथ’ का नेता बनना चाहता है। हम बेशक, ग्लोबल साउथ में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन यह अवधारणा दूसरे देशों की मदद के भाव को लेकर है। दूसरे, ग्लोबल साउथ में बहुत से देश विकसित हैं या विकास की राह पर चल दिये हैं। मैं विकसित इसलिए भी कह रहा हूं कि चीन भी कहता है हम ग्लोबल साउथ की आवाज हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति आज वैसी नहीं रही है। ग्लोबल साउथ में बहुत से देश प्राकृतिक संपदा के मामले में धनी हैं, दुर्लभ धातुओं से भरपूर हैं। यदि ऐसे देशों से हमारे संबंध अच्छे हैं, तालमेल है, तो इससे हमें संयुक्त राष्ट्र आमसभा जैसे अनेक मंचों पर काफी मदद मिलेगी। आपको याद होगा, गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू हुआ था, तो ग्लोबल साउथ को भी हम वैसा ही कुछ मान सकते हैं। जिन देशों के पास दुर्लभ धातुओं के भंडार हैं, उनके पास जमीन भी काफी है। तो उनसे निकटता होना हमारे लिए भी लाभ की स्थिति होगी। खासतौर से चीन को देखिए, वह वहां पर अनाज के उत्पादन के लिए बहुत सी जमीन खरीद रहा है। एक आशंका है कि अगले 5-10 साल में खाद्यान्न की समस्या होगी, तो चीन का प्रयास उसी तरफ है। ऐसे में ग्लोबल साउथ का बहुत महत्व होगा। प्रधानमंत्री मोदी का मकसद भी उन देशों को यही दिखाना है कि हम एक स्वाभाविक सहयोगी देश हैं, हम जी-20 के सदस्य हैं, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी बात रखते हैं यानी हम एक महत्वपूर्ण साथी हैं।
क्या चीन उन देशों में सिर्फ खाद्यान्न समस्या से निपटने के लिए जमीन खरीदने तक सीमित है या उसका वहां अंदरखाने सैन्य नजरिए से भी कोई एजेंडा है?
बिल्कुल है, सैन्य दृष्टि से भी चीन इसमें लगा है। बल्कि मैं इसे सैन्य से ज्यादा रणनीतिक स्वार्थ कहूंगा। इसके लिए मैं दो उदारहण देता हूं। एक, आप अफ्रीका की बात करें, इथियोपिया, दक्षिण अफ्रीका, केन्या आदि की तो इन अफ्रीकी देशों में चीन जो भी विकास कर रहा है, जो रेलपटरियां आदि बिछा रहा है, वे सभी वहां के प्राकृतिक संसाधन केन्द्रों से सीधे बंदरगाह तक जा रही हैं। यानी चीन अपनी सुविधा के लिए वहां की खदानों का दोहन कर रहा है। आप जानते हैं, अफ्रीका में दुर्लभ खनिजों और धातुओं के भंडार हैं। चीन के पास दुनिया के लगभग 90 प्रतिशत दुर्लभ खनिजों और धातुओं के प्रसंस्करण की सुविधा है। उसने वहां एक तरह से बाजार बना रखा है। इसलिए चीन इन दुर्लभ संसाधनों की आपूर्ति पर अपना नियंत्रण बनाए रखने वाला है। तो यह उसका एक रणनीतिक स्वार्थ ही है।
चीन ने दक्षिण अफ्रीकी देशों को विकास के नाम पर कर्ज देकर अपने अधीन किया हुआ है। शायद इसीलिए किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर इन देशों की चीन के सामने आवाज नहीं निकलती। क्या यह स्थिति वैश्विक परिस्थितियों में कोई बदलाव ला सकती है?
चीन का असली मकसद तो यही है। इतना ही नहीं, शंघाई कॉर्पोरेशन आर्गनाइजेशन, ब्रिक्स और बीआरआई, ये तीनों चीन की पहल पर गठित हुए मंच हैं। चीन का यही मकसद है कि इनके माध्यम से वैश्विक व्यवस्था को नियंत्रित किया जाए। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी अपने भाषणों में इसका संकेत दिया है कि हम बराबरी और न्यायपूण वैश्विक व्यवस्था चाहते हैं। यानी छुपे तौर पर कह रहे हैं कि, हम दुनिया के नेता होना चाहते हैं। उनके इस मकसद में रूस भी उनके साथ है। ये दोनों देश इस दृष्टिकोण को आगे बढ़ा रहे हैं।
दूसरी बात जो आपने कही कि क्या ये कर्ज में डूबे देश उनकी मदद कर सकते हैं? तो हां, बिल्कुल कर सकते हैं। चीन ने बीआरआई और दूसरी परियोजनाओं के नाम पर इन देशों को 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा का कर्ज दिया हुआ है। श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों की आज जो हालत है उससे साफ है कि वे चीन के इस कर्ज को लौटा ही नहीं सकते। अब ये नौबत आ रही है कि ये देश चीन को कह रहे हैं कि इस कर्ज को अनुदान में बदल दो, या ‘मदद’ में बदल दो। लेकिन आज तो खुद चीन के पास पैसे नहीं हैंइसलिए वह कर्ज को अनुदान में बदलने का इच्छुक नहीं है। अब हालत यह हो सकती है कि श्रीलंका जैसे देश कहें कि हम आपका कर्ज तो लौटा नहीं सकते। तब चीन के पास क्या विकल्प बचेगा? चीन इसके लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में नहीं जा सकता, क्योंकि उन देशों के साथ उसके कर्ज के लगभग सभी करारों में ऐसी गोपनीय शर्तें हैं जिन्हें वह दुनिया को नहीं बताना चाहता।
श्रीलंका और पाकिस्तान ने तो आईएमएफ से भी कर्ज लिया हुआ है। क्या उसमें इन देशों को दिक्कत नहीं आई?
बिल्कुल आई। श्रीलंका ने जब आईएमएफ से कर्ज मांगा तो उसने कहा कि पहले आप चीन के साथ हुआ अपना करार दिखाओ कि उसमें क्या शर्तें हैं, तब हम कर्ज देने पर विचार करेंगे। ऐसा ही पाकिस्तान के संबंध में भी हुआ। चीन ने जिस जिस देश को कर्ज दिया है, तो वहां के सत्ताधारी नेताओं को भी इसके लिए बहुत पैसा खिलाया है। इसलिए वे नेता चीन के विरुद्ध कभी मुंह नहीं खोलेंगे। हां, उनके हटने पर अगर कोई और सरकार आए तो शायद वह देश चीन के विरुद्ध वोट डाले। लेकिन भारत में असल मायनों में लोकतंत्र है, इसलिए चीन जानता है यहां ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता है। हमारे यहां कल कोई सरकार थी आज दूसरी सरकार है। इसलिए चीन के लिए यहां इस तरह की हरकतें करना बहुत मुश्किल है।
जोहान्सबर्ग के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की जो तस्वीरें दिखीं उनमें जिनपिंग के हाव-भाव में पहले जैसी दमदारी नहीं झलकी। आपने कहा कि चीन के पास आज पैसा नहीं है। उस बैठक में भी चीन भारत के सामने कमजोर नजर आया था। क्या ये विश्व अनुक्रम में बदलाव के संकेत हैं?
मैंने भी ब्रिक्स की तस्वीरें देखी हैं। जिनपिंग उनमें थोड़े कमजोर तो दिख रहे थे। इसके पीछे कारण कुछ भी हों, पर एक बात सच है कि उनके मन में फिलहाल जो असंतोष है, वह उस देश में सब जगह दिख रहा है। आज वहां के छात्र सोच रहे हैं कि इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी रोजगार क्यों नहीं मिल रहा? अभिभावक कहते हैं कि हमारा एक ही बच्चा है, हमने अपना सब उसे काबिल बनाने में लगा दिया तो भी उसे नौकरी नहीं मिल रही है। चीन में बैंकिंग व्यवस्था, बाजार आदि ठप पड़े हैं। लोग निराशा की तरफ बढ़ रहे हैं, जिससे आने वाले समय में देश में और समस्याएं हो सकती हैं। दूसरी बात, चीन का व्यापारी वर्ग परेशान है, उनके व्यापार ठप हो रहे हैं। वहां हर साल दसियों हजार कंपनियों पर ताले पड़े रहे हैं। वहां के छात्रों पर, आम जनता पर सीसीटीवी कैमरों से निगरानी रखी जा रही है। इससे छात्रों और आम लोगों में तनाव का माहौल बना हुआ है। कॉलेजों के पुस्तकालयों से पश्चिम की किताबें हटा दी गई हैं। प्रोद्यौगिकी क्षेत्र दिक्कत में है। सेना के असंतोष है। रिटायर हो चुके सेना के अधिकारी परेशान हैं कि अब उन्हें रहने को घर तक नहीं दिया जा रहा है, न पूरी पेंशन है, न कोई और नौकरी। सेना पर बहुत सख्ती कर दी है। कुछ महीने से उनका विदेश मंत्री गायब है, जिसका किस्सा भी अजीब है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नाम पर कई विरोधी नेताओं को बाहर कर दिया गया है। मुझे लगता है चीन अंदरूनी कलह के दौर से गुजर रहा है। अभी पिछले दिनों सिंगापुर के अखबार में हांगकांग के एक कारोबारी, जो कम्युनिस्ट पार्टी का एक वरिष्ठ सदस्य था, ने एक आलेख लिखा है। उसमें शी जिनपिंग का नाम लिए बिना उसने उनकी एक-एक नीति की बखिया उधेड़ी है। इससे दिखता है कि वहां दरारें गहराती जा रही हैं। अभी 26 अगस्त को शी जिनपिंग ने सिंक्यांग में एक कार्यक्रम में बोलते हुए आठ बार ‘स्थायित्व’ की बात की। साफ है कि कहीं न कहीं चीन लड़खड़ा रहा है।
मैं यह जरूर कहूंगा कि भारत के आम लोगों में आत्मविश्वास जगा है। आम लोगों की सोच और व्यक्तित्व में एक निखार आया है। इसके साथ ही, लोग देश से जुड़े मुद्दों पर आगे आकर अपनी बात रखने की इच्छा जताते हैं, उनमें एक भरोसा जगा है। भारत के लोगों ने डोकलाम में जो हुआ वह देखा, फिर अप्रैल 2020 में गलवान संघर्ष भी देखा। हमारे सैनिक मोर्चे पर तैनात हैं। हमने एक कदम पीछे नहीं हटाया है। हमारा सीधा सा कहना है कि बातचीत से सीमा विवाद खत्म करो और पीछे हटो, युद्ध की कोई जरूरत नहीं है। ये चीजें बढ़ता आत्मविश्वास झलकाती हैं। हमारा चंद्रयान-3 मिशन दिखाता है कि प्रतिबंधों के बावजूद हमने अंतरिक्ष में कमाल किया है।
भारत के एनएसए अजित डोवल ने साफ कहा है कि जब तक चीन और भारत के बीच भरोसा कायम नहीं होगा, सीमा विवाद नहीं सुलझ सकता। इस पर आप क्या कहेंगे? चीन सही रास्ते पर आएगा या वह अपनी अकड़ में ही रहेगा? अभी चीन ने फिर से अक्साई चिन और अरुणाचल को अपने नक्शे में दिखाया है।
चीन की यह ताजा हरकत कोई नयी बात नहीं है। वे पहले भी अपने नक्शे में भारत के इन भागों को चीन के अंदर दिखा चुके हैं। यह चीन की सुनियोजित चाल है कि ‘हम तो पहले से यह कहते आ रहे हैं, किसी ने आपत्ति नहीं की। तो यही सही स्थिति है’। हमारे एनएसए डोवल ने सही कहा कि भरोसे की कमी है। असल में ‘जीरो ट्रस्ट’ की स्थिति है। भारत ने चीन के साथ जितने भी समझौते किए थे चीन ने अप्रैल, 2020 में उन सब पर पानी फेर दिया। चीन पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता। चीन वार्ता में आज कुछ कहता है तो कल कुछ और। भारत ने कहा कि दोनों पक्ष पहले की स्थिति पर लौटें, फिर बात करें। मेरे ख्याल से चीन पीछे नहीं हटेगा। पिछले साल अक्तूबर में जिस दिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का 20वां अधिवेशन शुरू हुआ था, उस दिन उसमें गलवान का वीडियो दिखाया गया। चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग, गलवान में लड़ा उनका कमांडर और करीब 5,000 लोगों ने वह वीडियो देखा। उसका संदेश यही था कि भारत के साथ हमारा इसी प्रकार का संबंध है और जब तक जिनपिंग राष्ट्रपति हैं, यह ऐसा ही रहेगा। दूसरे, जिनपिंग ने अपने किसी भाषण में सीमा विवाद पर बात तक नहीं की। उन्होंने वेस्टर्न कमांड के अपने सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा है। उनके इस रवैए में बदलाव के कोई संकेत भी नहीं हैं।
तो फिर समाधान क्या है?
देखिए, हमें खुद को हर स्थिति के लिए तैयार रखना होगा। यदि शी जिनपिंग ने कदम पीछे नहीं खींचे तो भारत भी अब कोई समझौता न करते हुए जमा रहने वाला है। मुझे नहीं लगता कि आज की हमारी सरकार सीमा को लेकर रत्तीभर कदम पीछे खींचेगी।
शायद यही वजह है कि आज लद्दाख में घुसपैठ में बहुत कमी आई है? पहले मनमोहन सरकार के वक्त जहां साल में लगभग 500 बार चीनी सैनिक भारत में घुस आते थे अब उनकी वैसी हिम्मत नहीं होती!
बिल्कुल। इसकी एक वजह है कि हमारे सैनिक सीमा पर मुस्तैद हैं।
यही चीन है जो मोस्ट वांटेड आतंकवादियों को संयुक्त राष्ट्र में ब्लैक लिस्ट करने की भारत की कोशिशों में अड़ंगा लगाता आ रहा है। ऐसा कब तक चलेगा?
हां, बिल्कुल। अभी तक उसने अपना वही रुख बनाया हुआ है। इतना ही नहीं, कश्मीर का हमारा जो अंदरूनी मसला है उसमें भी वह और पाकिस्तान टांग अड़ाते हैं। जिनका कश्मीर से कोई लेना—देना नहीं वे उसमें दखल देने की कोशिश करते हैं। पाकिस्तान कहता है, दखल देना उसका हक बनता है। कश्मीर पर चीन भी बयानबाजी करता था। अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश टांग अड़ाते थे। अब धारा 370 को निरस्त करके हमने साफ कहा है कि कश्मीर हमारा हिस्सा है, इसमें किसी अन्य की कोई भूमिका नहीं है। इस मुद्दे को चीन सुरक्षा परिषद में तीन बार ले गया। उनको तकलीफ यह है कि कश्मीर पर भारत का नियंत्रण रहा तो आर्थिक गलियारे के नाम पर गिलगित-बाल्टिस्तान और अक्साईचिन में उसने जो पैसा लगाया है, वह डूब जाएगा। वह दुविधा में है।
भारत के जी-20 के अध्यक्ष बनने से चीन क्या थोड़ा बहुत असहज महसूस करता है? यह स्थिति वैश्विक व्यवस्था पर क्या असर डाल सकती है?
मैं तो कहूंगा कि इसके लिए केवल जी-20 एकमात्र कारण नहीं है। भारत का विकास लगातार होता जा रहा है और चीन भारत की इस तरक्की को बारीकी से देख रहा है। चीन देख रहा है कि भारत विकास तो कर ही रहा है, साथ ही भारत को जी-20 की अध्यक्षता भी मिल गयी। जिस तरीके से भारत ने जी-20 का नेतृत्व किया है उससे चीन की परेशानी बढ़ती जा रही है। आजकल चीन की अमेरिका से भी दूरियां बढ़ती जा रही हैं। धीरे-धीरे अमेरिका चीन के साथ व्यापारिक संबंध कम करता जा रहा है। अमेरिका ने भी कहा है कि चीन के साथ संबंध रखना उसके लिए ठीक नहीं है। लेकिन अमेरिका और भारत में अंतर है। अमेरिका में आबादी बहुत कम है। अमेरिका टेक्नोलॉजी में आगे है। लेकिन चीन हमारे बाजारों में घुसा हुआ है। अच्छा है कि हमने उसे अपने बाजार से हटाने की कोशिश शुरू कर दी है। लेकिन, अप्रैल 2020 से पहले चीन के साथ हमारा कारोबार 70 अरब डॉलर का था वह आज 170 अरब डॉलर का हो गया है। अभी भी अनेक चीजें चीन से आती हैं। इसे रोकने के लिए हमारे व्यापारियों को जागरूक करना होगा। उसके लिए रास्ते तलाशने होंगे। चीन के माल पर रोक लगे, इसके लिए एक नीति बनानी होगी।
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