राहुल गांधी अपने विदेशी दौरों पर लगातार भारत विरोधी तत्वों के साथ क्यों नजर आते हैं, चीन के साथ उनके क्या रिश्ते हैं या उनकी पार्टी के नेता मोदी को हटाने के लिए पाकिस्तान की मदद क्यों मांगते हैं? राहुल ऐसी संस्थाओं के साथ गलबहियां करते रहे हैं, जिनका भारत के खिलाफ लॉबिंग करने का इतिहास रहा है
आपने कांग्रेस के युवराज के लद्दाख पर्यटन के दौरान आए बयान देखे होंगे। विशुद्ध भारत विरोधी, सेना विरोधी। उन्हें यहां दोहराना जरा भी आवश्यक नहीं है। और न ही उनमें आश्चर्य की कोई बात है। कांग्रेस के युवराज का भारत विरोधी बातें करना और विदेशी धरती पर जाकर भारत के खिलाफ सक्रिय शक्तियों से मिलना-जुलना कोई नई बात नहीं है। शायद उन्हें लगता है कि सरकार विरोधी होने के नाते भारत विरोधी होना उनका अधिकार है।
बात सिर्फ कांग्रेस के युवराज की नहीं है। वह अपने क्रियाकलापों से पहले ही काफी नामधन्य हो चुके हैं। बात उन सारे दलों की है, जो केन्द्र की सरकार से भाजपा और नरेन्द्र मोदी को हटाकर स्वयं सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। ठीक है, लेकिन क्या सत्ता के लिए वे कुछ भी करेंगे? हालांकि कांग्रेस पर यह आरोप कोई नहीं लगा सकता है कि वह मानसिक-बौद्धिक- वैचारिक रूप से कभी भी मजबूत रही है। वह अपना बहुत सारा बौद्धिक-वैचारिक काम मार्क्सवादी विचारधारा के फॉसिलजीवी इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों को बहुत पहले ही सौंप चुकी है।
मार्क्सवादी इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के साथ दूसरी समस्या है। उन्हें यही विश्वास नहीं है कि कथित दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका है, सोवियत संघ समाप्त हो चुका है, मार्क्स ही नहीं, लेनिन की भी प्रतिमाएं उखाड़ फेंकी जा चुकी हैं और अब इक्कीसवीं सदी चल रही है। लिहाजा वे अपने पुराने जुमलों में कैद बने हुए हैं। उन्होंने भी पैसों की आपूर्ति का काम सोरोस जैसों और चीन के मोहरों को, और जमीन पर ‘वर्ग संघर्ष’ करने का काम इस्लामी जिहादियों पर छोड़ दिया है। गठबंधन बनते और टूटते हैं, रणनीतियां बनती हैं और अचानक खेल भी खराब हो जाते हैं। लेकिन विपक्ष की रणनीति के कलम और कंप्यूटर कम्युनिस्टों के पास हैं, और हाथ-पैर अंतत: लश्कर/ सलाउद्दीन/ इंडियन मुजाहिद्दीन/ सिमी /हुजी जैसे संगठनों के पास।
एक ओर कांग्रेस डीएमके के साथ गठबंधन में है, दूसरी ओर डीएमके पूरे दक्षिण भारत में पृथकतावादी अभियान के पक्ष में है। इस कथित अभियान के लिए कम्युनिस्टों द्वारा उछाला गया गया तर्क यह है कि दक्षिण भारत ज्यादा टैक्स देता है। तीसरा पहलू यह है कि मुफ्त में बांटने के नारे देकर कर्नाटक में सत्ता में आई कांग्रेस राज्य सरकार का दम फूल चुका है और वह लगाभग दीवालिया हालत में आकर केन्द्र से पैसे मांग रही है। उस पर तुर्रा यह कि कर्नाटक सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मानने के लिए तैयार नहीं है, आखिर वह एक कांग्रेस सरकार है, केन्द्र की बात कैसे मान ले?
ये सारी बातें सामने रखने के बाद यह प्रश्न करना ही बेमानी हो जाता है कि राहुल गांधी अपने विदेशी दौरों पर लगातार भारत विरोधी तत्वों के साथ क्यों नजर आते हैं, चीन के साथ उनके क्या रिश्ते हैं या उनकी पार्टी के नेता मोदी को हटाने के लिए पाकिस्तान की मदद क्यों मांगते हैं? राहुल ऐसी संस्थाओं के साथ गलबहियां करते रहे हैं, जिनका भारत के खिलाफ लॉबिंग करने का इतिहास रहा है। पिछले दिनों राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा के दौरान बंद दरवाजों के पीछे राहुल गांधी की किससे क्या बात हुई? वहां क्या हुआ? हडसन इंस्टीट्यूट के साथ राहुल गांधी की तस्वीरें गवाह हैं कि अब इन चीजों से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं। हडसन इंस्टीट्यूट के इस बंद दरवाजों के पीछे हुए इवेंट में राहुल के साथ बैठी नजर आई हैं सुनीता विश्वनाथ, जो सोरोस के इकोसिस्टम की कठपुतली रही हैं।
अब देखें इनके गठबंधन साथियों को। हाल ही में ममता बनर्जी ने कहा भाजपा हारेगी।
लालू प्रसाद यादव ने कहा कि मोदी भारत छोड़कर विदेश में बस जाएंगे। अरविंद केजरीवाल जो कुछ कहते रहे हैं, उसका तो ओर-छोर ही खोजना कठिन है। लेकिन यह कहने का साहस इनमें से किसी का नहीं हो सका कि वह हराएंगे। इतना ही नहीं, कोई यह कहने के लिए भी तैयार नहीं है कि वे अंत तक इस गठबंधन में बना रहेगा। कारण यह कि जो आई.एन.डी.आई. अलायंस बना है, उनमें से किसी घटक दल के पास ऐसा कोई सकारात्मक बिन्दु नहीं है, जिसके आधार पर वे मतदाता के समक्ष स्वयं को बेहतर दिखा सकें। सिवाए इस बात के कि वे सब भाजपा विरोधी हैं, और इस नाते भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी हैं।
एक ओर कांग्रेस डीएमके के साथ गठबंधन में है, दूसरी ओर डीएमके पूरे दक्षिण भारत में पृथकतावादी अभियान के पक्ष में है। इस कथित अभियान के लिए कम्युनिस्टों द्वारा उछाला गया गया तर्क यह है कि दक्षिण भारत ज्यादा टैक्स देता है। तीसरा पहलू यह है कि मुफ्त में बांटने के नारे देकर कर्नाटक में सत्ता में आई कांग्रेस राज्य सरकार का दम फूल चुका है और वह लगाभग दीवालिया हालत में आकर केन्द्र से पैसे मांग रही है। उस पर तुर्रा यह कि कर्नाटक सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मानने के लिए तैयार नहीं है, आखिर वह एक कांग्रेस सरकार है, केन्द्र की बात कैसे मान ले?
लेकिन इस सारे सर्कस के पीछे है गहरा षड्यंत्र। पढ़िए, आगे के पृष्ठों पर।
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