‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ ग्रंथमाला में लेखक कृष्णानंद सागर ने विभाजन काल के तथ्यों का प्रामाणिक विवरण सामने रखा है। तथ्यों की पुष्टि की लेखकीय सतर्कता से यह पुस्तक उक्त इतिहास का प्राथमिक प्रामाणिक स्रोत है। उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है
1947 में अखंड भारत को मजहबी उन्माद की तलवार से चीर कर इस्लामिक अधिकृत क्षेत्र का निर्माण किया गया। रातोंरात करोड़ हिंदू अपने ही मुल्क में शरणार्थी बन गये। आज तीन पीढ़ियों के बाद भी वे जख्म नासूर बने हुए हैं क्योंकि इस देश ने अपने इतिहास से न सीखने की कसम जो खा रखी है। इसमें कुछ दोष उन बौद्धिक जमातियों का भी है जिन्होंने स्वतंत्र भारत में शिक्षा और बौद्धिक क्षेत्र को अनैतिक रूप से अधिग्रहीत कर लिया था। अत: आधुनिक इतिहास का प्रणयन ही भ्रम और कपट के आधार पर हुआ। इसलिए भावी पीढ़ियां भ्रमित रहीं और अब तक हैं। किन्तु जैसा कि तथागत बुद्ध कहते हैं, ‘सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। फिर सत्य के स्वयं को प्रकट करने के अपने ही मार्ग हैं, अनूठे मार्ग हैं। तुम बस शांति रखो, धैर्य रखो, ध्यान करो और सब सहो। यह सहना साधना है। श्रद्धा न खोओ, श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजरने दो। श्रद्धा और निखरकर प्रकट होगी। सत्य सदा ही जीतता है।’ इसी अनुरूप विभाजन कालीन भारतीय इतिहास के सत्य के प्रकटीकरण का माध्यम बने हैं विख्यात चिंतक श्री कृष्णानन्द सागर।
लेखक बौद्धिक जगत में सुपरिचित हैं। उनका अपना प्रशंसनीय आभामंडल है। कृष्णानन्द सागर सुरुचि साहित्य, दिल्ली (1970), संघ अभिलेखागार दीनदयाल शोध संस्थान, दिल्ली (1982), जागृति प्रकाशन, नोएडा (1985) एवं वैचारिक मंच ‘चिन्तना’ (1993) के संस्थापक होने के साथ ही बाबा साहब आप्टे स्मारक समिति, दिल्ली के उपाध्यक्ष है।
भारतीय इतिहास एवं संस्कृति संबंधी विषयों के विशेषज्ञ के रूप में उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन एवं लेखन किया है। वे पाञ्चजन्य, आॅर्गेनाइजर, इतिहास दिवाकर, चाणक्य वार्ता, राष्ट्र धर्म आदि विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन करते रहे हैं। हिंदी, पंजाबी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार है। उन्हें विभिन्न समाचार चैनलों पर होने वाली समसामयिक चर्चाओं में सहभागिता करते हुए देखा जा सकता है।
इसी अनुरूप कृष्णानन्द जी द्वारा लिखित आलोच्य पुस्तक-माला ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ कई सन्दर्भों में विशिष्ट है। यह विगत दो दशकों से अधिक के लेखकीय परिश्रम का प्रतिफल है। 1994 में भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष ठाकुर राम सिंह द्वारा लेखक कृष्णानन्द सागर को इस कार्य का प्रस्ताव दिया गया। उनके द्वारा इस दुरूह कार्य में अपनी असमर्थता व्यक्त करने के बाद वर्ष 2002 में रामसिंह जी ने फिर से कृष्णानंद जी को बुलाकर वास्तविक राष्ट्रीय इतिहास के लुप्त होने का अंदेशा जताते हुए सत्य को प्रकट करने हेतु इस कार्य को पूरा करने का वचन लिया। तद्नुरूप अगले 20 वर्ष तक कृष्णानंद जी के अथक परिश्रम द्वारा इस ग्रंथ-माला का प्रणयन हुआ।
खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी का ऐतिहासिक नग्न सत्य उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गयी रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवार्ताएं खंड-चार तक क्रमश: दी गयी हैं
तथ्यों का संकलन करते हुए उनके लिए भी यह कठिन था कि वे साक्षात्कार के दौरान अविश्वसनीय, अतिरेकपूर्ण और अपुष्ट घटनाओं के विवरण से बचते हुए प्रामाणिक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करें। अत: लगभग 500 से अधिक साक्षात्कारों के बाद उन्होंने ऐसे 350 व्यक्तियों की आपबीती को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है जो लेखकीय कसौटी के अनुकूल रहे थे। प्रामाणिकता से इतने सारे लोगों की आपबीती को कलमबद्ध करने के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं।
पुस्तक चार खंडों में है। प्रत्येक भाग अन्य खंडों से स्वतंत्र है। लेकिन इन सभी खंडों के मध्य निरंतरता बनी रहती है। प्रत्येक खंड में औसतन पौने पांच सौ पेज हैं। हर भाग की प्रस्तावना पृथक विद्वान ने लिखी है। चारों खंडों के प्रस्तावक क्रमश: श्रीराम आरावकर (महामंत्री, विद्या भारती), प्रो. सुरेश्वर शर्मा (पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर), दीनानाथ बत्रा (अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली) एवं ब्रिगेडियर राजबहादुर शर्मा (राष्ट्रीय प्रधान, सांस्कृतिक गौरव संस्थान, सदस्य, इंडियन नेशनल कमीशन फार को-आॅपरेशन विद यूनेस्को) हैं। प्रत्येक प्रस्तावना विषय के संदर्भ और संदर्श को गति देती है।
यह ग्रंथमाला बहुआयामी है। जैसे, कहीं आजाद हिंद फौज के संघर्षों की यात्रा के विवरण हैं तो कहीं राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन की झलक है। खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी के ऐतिहासिक नग्न सत्य को उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। तत्पश्चात अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गई रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवातार्एं खंड-चार तक क्रमश: दी गई। तीसरे भाग में लेखक द्वारा विभाजन से सम्बंधित महापुरुषों को अखंड भारत के पुरोधा, हिंदू रक्षा के योजनाकार, विभाजन कालीन हिंदू समाज का रक्षक नेतृत्व और विभाजनकालीन योद्धाओं की चित्रमाला द्वारा चित्रकथात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया है।
उक्त ग्रंथमाला विभाजनकालीन इतिहास के कई नये तथ्यों से अवगत कराते हुए कुछ भ्रामक धारणाओं का खंडन करती है। यह तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की कायरता, संघ के स्वयंसेवकों के जुझारू और निष्ठावान रवैये का प्रामाणिक विवरण है। इस ग्रन्थमाला से पाठक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों और आत्मबलिदान को समझ पाएंगे। वे जानेंगे कि कैसे विभाजनकालीन राजनीति से दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की रक्षार्थ अपना सर्वस्व झोंक दिया। यह पुस्तक ‘संघ ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय क्या योगदान दिया’ जैसे प्रश्न का परोक्ष उत्तर देगी। संघ के स्वयंसेवकों का अतुलनीय बलिदान आपको गौरवान्वित करेगा।
किताब में वर्णित इस्लामिक आक्रांताओं एवं मजहबी भेड़ियों द्वारा हिन्दू समाज की संपत्तियों की लूट-आगजनी, पुरुषों, महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों की निर्मम हत्याओं, महिलाओं से बर्बर बलात्कार, अपहरण की आपबीती पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएंगे। कई पीड़ितों के अनुभव तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों की भयावहता से परिचित कराएंगे तो कुछ साक्षात्कार मजहबी उन्माद एवं नृशंसता के नग्न यथार्थ बताएंगे। ऐसे विभिन्न रूपों में यह ऐतिहासिक दस्तावेज आपका भ्रम तोड़ेगा, आपको झकझोरेगा, आपको आंदोलित करेगा और अंतत: आपकी ऐतिहासिक और भविष्य की दृष्टि को दिशा प्रदान करेगा।
एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह उन इंसानों के लिए है जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है
एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह इंसानों के लिए जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है। लेखक अपने न्याय निर्णयन में धार्मिक-जातीय पूर्वाग्रह से पूर्णत: मुक्त रहे हैं। उन्होंने निरपेक्ष भाव से मुस्लिम समाज के उस वर्ग का भी विवरण दिया है जिसमें मजहबी पूर्वाग्रह से अधिक मानवीयता का अंश है, जिसमें भातृत्व-भाव का अंश है, जिनमें ‘ईमान’ की तासीर जिन्दा है और जो अपनी पंथीय कट्टरता से स्वयं को बचाने में सफल रहे।
जैसा कि कृष्णानंद जी ‘लेखकीय’ भाग में लिखते हैं, ‘यह ग्रंथ आज की मुस्लिम युवा पीढ़ी के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। उन्हें इससे पता चलेगा कि उनके पूर्वजों ने देश के विभाजन के समय कितने घिनौने और बर्बर कृत्य किए थे। उन दुष्कृत्यों की ही प्रतिक्रियास्वरूप लाखों मुसलमानों को भी अपने प्राण गंवाने पड़े थे। इस ग्रंथ के वाचन से उन्हें यह प्रेरणा मिलेगी कि भावी सुखी व शान्तिमय जीवन के लिए उस समय के मुसलमानों द्वारा किये गये घिनौने कृत्यों की निन्दा करते हुए उन्हें पूर्णतया त्याग दिया जाए, उनकी गलतियों को दोहराया न जाए।’
भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अत: इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुन: किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।
इसे मात्र इतिहास की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भविष्य के नजरिये से पढ़ने की जरूरत है। जैसे कि पुस्तक की प्रस्तावना में श्रीराम आरावकर (महामंत्री, विद्या भारती) लिखते हैं, ‘इतिहास को भुलाने का दुष्परिणाम समाज को कालांतर में अवश्य ही भुगतना पड़ता है। भारत विभाजन की त्रासदी व उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए विस्थापन की भीषण आपदा पर रचित यह ग्रंथ हम सभी को यह बताने में सक्षम है कि भविष्य में किसी भी कीमत पर इस प्रकार की दुर्घटना को हम पुन: कभी भी नहीं होने दें।’
विभाजन के अग्नि कुंड से निकली यह ग्रंथमाला विभाजन की त्रासदी का जीवंत, प्रामाणिक दस्तावेज है, इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। यह कृष्णानन्द सागर की आपबीती भी है। यह निस्सार मजहबी उन्माद से उत्पन्न पीड़ा का अभिलेखकीय प्रमाण है। यह वह वेदना है जिसे लेखक आज भी स्वयं जी रहे हैं क्योंकि वह स्वयं इस अग्नि-कुंड से निकले हैं। वह इसमें डाली गयी समिधा और उठने वाली लपटों व धुएं के प्रत्यक्षदर्शी रहे। इसलिए इसे विभाजन के प्रामाणिक इतिहास का प्राथमिक स्रोत कहना चाहिए।
कृष्णानन्द सागर मूलत: अविभाजित भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्र स्यालकोट के रहने वाले हैं। विभाजन के समय उनका परिवार लाहौर के कसूर में रह रहा था। वे स्वयं अपनी जमीन से बलात् उजाड़े गये शरणार्थी समूह का हिस्सा रहे हैं। वे उस साझे दर्द के भोक्ता हैं। लेकिन यह दु:ख तब और बढ़ जाता है जब मजहबी हिंसा के शिकार शरणार्थियों के साथ बौद्धिक अन्याय भी किया जाता है, जहां उनकी पीड़ा को लघुतर एवं भ्रामक रूप में प्रदर्शित किया गया है। कृष्णानन्द जी प्राक्कथन में स्वयं स्वीकार करते हैं,’ मैं स्वयं विभाजन काल का साक्षी हूं। मेरे जैसे अनेक उस काल के भुक्तभोगी लोग वर्षों से यह महसूस कर रहे थे कि विभाजन काल का इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं लिखा गया।’
लेखक अपनी पीड़ा के भाव को यूं व्यक्त करते हैं,
सोचता हूं,
हम एक रात के लिए
घर से निकले थे
आज तीन पीढ़ियां बीत गयीं
लेकिन वह एक रात समाप्त नहीं हुई
वह रात
कब समाप्त होगी
और हम कब घर वापस पहुंचेंगे?
इसका उत्तर
क्या कोई देगा?
यह पुस्तक-माला किसी चयनित समाज या वर्ग के लिए नहीं है। इसे भारत के हर नागरिक वर्ग विशेषकर युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए। चूंकि भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अत: इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुन: किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।
अंतत:, इतिहास वही होता है जो भविष्य का बोध कराये। अगस्त माह यदि ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति के सुख का प्रतीक है तो साथ ही यह विभाजन की वेदना की याद भी दिलाता है। सुख और वेदना के इस सन्धिकाल एवं विभाजन की विभीषिका की बरसी पर इस ऐतिहासिक ग्रंथमाला से बेहतर राष्ट्रीय विमर्श नहीं हो सकता। इसे पढ़िए, इतिहास को समझिए और अपनी भविष्य दृष्टि का निर्माण कीजिए। क्योंकि यदि आप इतिहास को नहीं समझेंगे तो यकीन मानिये, इतिहास आपको नहीं समझेगा और यदि इतिहास ने आपको नहीं समझा, स्वीकार नहीं किया तो आप इतिहास के किसी कोने में दफन हो जाएंगे।
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