मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि से अवैध कब्जा (यानी ईदगाह) हटाया जाए और वह जमीन ट्रस्ट को सौंपी जाए। दूसरी, मुस्लिम पक्ष को ईदगाह में आने से रोका जाए और वहां कोई तोड़फोड़ न हो। तीसरी, 1968 के समझौते को निरस्त किया जाए।
गत 11 अगस्त को ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ ने मथुरा के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के न्यायालय में एक याचिका दायर की है। ट्रस्ट के सदस्य गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी के अनुसार याचिका में मुख्य रूप से तीन बातें कही गई हैं- पहली, न्यायालय से निवेदन किया गया है कि मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि से अवैध कब्जा (यानी ईदगाह) हटाया जाए और वह जमीन ट्रस्ट को सौंपी जाए। दूसरी, मुस्लिम पक्ष को ईदगाह में आने से रोका जाए और वहां कोई तोड़फोड़ न हो। तीसरी, 1968 के समझौते को निरस्त किया जाए।
बता दें कि 1968 में ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ’ और ‘शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी’ के बीच एक समझौता हुआ था। इसके अनुसार जो जहां है, वह वहीं रहेगा। यानी जहां ईदगाह है, वह वहीं बनी रहेगी। गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी कहते हैं, ‘‘मुसलमान तो यही चाहते थे, क्योंकि उन्हें पता है कि मस्जिद की जगह उनकी नहीं है।’’ कहा जाता है कि इस समझौते के पीछे कुछ सेकुलर नेता थे। इन नेताओं ने ही ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ के माध्यम से दैनिक कामकाज को देखने के बहाने 1 मई, 1958 को ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ’ बनवाया था। ऐसे ही नेताओं के इशारे पर 1959 में मुस्लिम पक्ष ने एक और मुकदमा किया। यह मुकदमा चल ही रहा था कि ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ को जानकारी दिए बिना ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ’ ने समझौते की पहल की और जल्दी ही समझौता हो भी गया। इसके अनुसार 2.50 एकड़ जमीन का स्वामित्व ईदगाह कमेटी को मिला। स्वाभाविक रूप से ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ ने इस समझौते का विरोध किया।
गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी बताते हैं, ‘‘समझौते के बाद ईदगाह कमेटी कई बार उस जमीन को अपने नाम कराने के लिए नगर निगम, राजस्व कार्यालय आदि संबंधित कार्यालयों में गई, लेकिन हर बार ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ ने इसका विरोध किया। इस कारण अभी तक 2.50 एकड़ जमीन ईदगाह कमेटी के नाम नहीं हुई है और हो भी नहीं सकती है, क्योंकि हर सरकारी कार्यालय में पूरी जमीन ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ के नाम से ही है। यहां तक कि पूरी 13.37 एकड़ जमीन का ‘कर’ भी ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ ही भरता है। यानी पूरी जमीन ट्रस्ट की है और यही कारण है कि ट्रस्ट ने अपनी जमीन पर हुए कब्जे को हटाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।’’
इससे पहले 16 अक्तूबर, 2021 को मथुरा के जिला न्यायालय ने एक याचिका स्वीकार की थी। इसमें भी निवेदन किया गया है कि ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ’ और ‘शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी’ के बीच 1968 में हुए समझौते को रद्द कर ईदगाह हटाई जाए और पूरी जमीन ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ को दी जाए।
यह याचिका ‘भगवान श्रीकृष्ण विराजमान’ और लखनऊ की अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री समेत आठ लोगों ने दायर की है। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन और विष्णुशंकर जैन के माध्यम से दायर हुई इस याचिका के बाद पूरे सनातन जगत में एक नई हलचल हुई थी।
इसके अलावा भी, श्रीकृष्ण जन्मभूमि से जुड़े लगभग 11 मुकदमे जिला न्यायालय में दायर हुए हैं। उच्च न्यायालय ने इन सभी मुकदमों को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया है। यानी इन मुकदमों की सुनवाई उच्च न्यायालय में होगी। वहीं मुस्लिम पक्ष का कहना है कि इन मुकदमों की सुनवाई जिला न्यायालय में ही हो। इसके लिए मुस्लिम पक्ष सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा है। उनकी याचिका पर सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अगस्त की तारीख तय की है। यानी सर्वोच्च न्यायालय तय करेगा कि मथुरा से जुड़े मुकदमों की सुनवाई जिला न्यायालय में होगी या उच्च न्यायालय में।
मामला 13.37 एकड़ जमीन का है, जो श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के नाम पर है। जो भी श्रद्धालु श्रीकृष्ण जन्मभूमि गया है, उसने अवश्य देखा है कि जन्मस्थान पर ही एक मस्जिद है, जिसे ईदगाह भी कहा जाता है। यह मस्जिद 13.37 एकड़ जमीन पर खड़ी है।
क्या है इतिहास
इस मामले को समझने के लिए इतिहास में जाना होगा। एक पौराणिक कथा के अनुसार सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने अपने कुल देवता (श्रीकृष्ण) की स्मृति में कटरा केशव देव पर एक मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके बाद चौथी शताब्दी में राजा विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार कराया। 1017 में लुटेरे महमूद गजनवी ने उस मंदिर को तोड़ दिया। 100 से अधिक वर्ष तक वह मंदिर उसी अवस्था में रहा। 1150 में जज्ज नामक व्यक्ति ने उस मंदिर को फिर से बनवाया। लगभग 400 वर्ष बाद यानी 1550 में सिकन्दर लोदी ने फिर से उस मंदिर को तुड़वा दिया। फिर 1618 में ओरछा के राजा वीर सिंह बुंदेला ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि, जिसे कटरा केशव देव भी कहा जाता है, पर 33,00000 रु. खर्च करके एक मंदिर बनवाया। उस समय इतने पैसे से बने इस मंदिर की भव्यता देखने योग्य थी। मंदिर की ऊंचाई 250 फीट थी। आगरा के किले से ही मंदिर दिखता था।
मंदिर की प्रसिद्धि इतनी थी कि उस समय भी पूरे भारत से हिंदू दर्शन के लिए आते थे। मुगल शासक औरंगजेब, जो मजहबी कट्टरता से भरा था, इस मंदिर की भव्यता से बहुत चिढ़ता था। अत: उसने 1669 में इस मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया। इसके बाद मंदिर को गिराकर 1670 में वहां मस्जिद बना दी गई। ‘आलमगीरी’ नामक पुस्तक में वर्णन है कि जब मंदिर तोड़ दिया गया तो औरंगजेब हाथी पर चढ़कर वहां पहुंचा और उसने मंदिर तोड़ने वालों को ईनाम दिया। इसके साथ ही उसने हिंदुओं को अपमानित करने के लिए हुक्म दिया कि मंदिर में जो मूर्तियां तोड़ी गई हैं, उन्हें आगरा किले में स्थित बेगम साहिब मस्जिद की सीढ़ियों में लगाया जाए, ताकि जो लोग नमाज पढ़ने के लिए वहां जाएं, वे मूर्तियां उनके पैरों तले हों। इसका वर्णन औरंगजेब के फरमान में भी है।
इस घटना के लगभग 100 वर्ष बाद यानी 1770 में मथुरा और उसके आसपास मराठों का राज हो गया। मराठों ने ईदगाह सहित पूरे परिसर को सरकारी जमीन घोषित कर दिया और जो लोग वहां रह रहे थे, उनसे कर वसूलने लगे। 1803 में अंग्रेजों ने मराठों को परास्त कर मथुरा पर कब्जा कर लिया। उन्होंने भी उस स्थान को सरकारी जमीन ही माना। उस समय कुल जमीन थी 15.70 एकड़।
पटनीमल ने खरीदी जमीन
अंग्रेजों ने 1815 में 15.70 एकड़ जमीन नीलाम कर दी। नीलामी में बनारस के राजा पटनीमल ने उस जमीन को खरीद लिया। इस पर वे मंदिर बनाना चाहते थे, लेकिन मुस्लिम पक्ष के विरोध के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। कई साल तक ऐसे ही चलता रहा। इसके बाद 1828 में अताउल्ला खान नामक एक व्यक्ति ने मुकदमा किया। उसका कहना था कि नीलामी में राजा पटनीमल को ईदगाह छोड़कर बाकी जमीन मिली है, लेकिन अदालत में वह कोई प्रमाण नहीं दे पाया। इस कारण 1832 में अदालत ने निर्णय दिया कि ईदगाह सहित पूरी जमीन पर राजा पटनीमल का अधिकार है। इस कारण आज जहां ईदगाह है, उसके आसपास की जमीन के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें मुआवजा दिया था। यह मुआवजा वहां से निकल रही मथुरा-वृंदावन रेलवे लाइन की जमीन के लिए था।
बता दें कि 1888 में यह रेल लाइन उस परिसर के लगभग बीच से गुजर रही थी। राजा पटनीमल ने इसका विरोध किया। उन्होंने जमीन का उचित मुआवजा मांगा। 1892 में उन्हें उसका मुआवजा मिला। यह प्रसंग भी बताता है कि उस स्थान के असली स्वामी राजा पटनीमल ही थे। इसके बाद भी लगभग 137 वर्ष तक मुकदमेबाजी होती रही, लेकिन इन सभी मुकदमों में इस जमीन पर राजा पटनीमल के वंशजों का ही अधिकार माना गया। हां, न्यायालय ने मुसलमानों को केवल ईद के अवसर पर हिंदुओं की सहमति से वहां नमाज पढ़ने की अनुमति दी थी।
मालवीय जी का पदार्पण
1940 की शुरुआत में पंडित मदनमोहन मालवीय मथुरा आए तो वे जन्मभूमि को देखने के लिए गए। वहां की स्थिति देखकर वे बहुत दु:खी हुए। मंदिर के नाम पर केवल खंडहर था और उसके पास ही एक मस्जिद शान से खड़ी थी। उन्होंने दु:खी मन से वहां के लोगों से बात की और यह जाना कि इस जगह का मालिक कौन है। मथुरा के लोगों ने उन्हें बताया कि राजा पटनीमल के वंशज इसके मालिक हैं। इसके बाद वे राजा पटनीमल के वंशज रायकिशन दास से बनारस में मिले। उन्होंने उनसे आग्रह किया कि आप उस स्थान पर मंदिर बनवाएं, क्योंकि वहां हिंदू आते हैं और खंडहर देखकर बहुत दु:खी मन से वापस जाते हैं। इस पर रायकिशन दास ने कहा कि उनके पास पैसे नहीं हैं और यदि आप मंदिर बनवाना चाहते हैं, तो पूरी जमीन आपके नाम कर दी जाएगी। फिर 1943 में सेठ जुगलकिशोर बिड़ला मथुरा गए।
वे भी वहां की स्थिति देखकर बहुत निराश हुए। उन्होंने भी मालवीय जी के साथ ही रायकिशन दास से मंदिर के बारे में चर्चा की। रायकिशन दास ने उनसे भी कहा कि उनके पास पैसे नहीं हैं। यह भी कहा कि मुकदमा लड़ते-लड़ते उन पर 13,000 रु. का कर्ज हो गया है। ऊपर से उसका 10,000 रु. सूद हो गया है। बिड़ला जी ने रायकिशन दास का सारा कर्ज उतार दिया। इसके बाद 8 फरवरी, 1944 को राजा पटनीमल के वंशजों ने इस जमीन का मालिकाना अधिकार मालवीय जी, सनातन धर्म सभा, बनारस के तत्कालीन अध्यक्ष गणेशदत्त वाजपेयी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. भीखनलाल आत्रे को दे दिया। दुर्भाग्यवश 1946 में मालवीय जी इस दुनिया से चले गए। इसलिए वे मंदिर पुनरोद्धार का कार्य शुरू नहीं कर पाए, लेकिन वे यह कार्य जुगलकिशोर बिड़ला को सौंप गए थे।
समतलीकरण के दौरान खुदाई हुई, जिसमें गर्भगृह भी मिला। इसके नीचे सीढ़ियां जा रही हैं और अंत में एक दरवाजा भी है, जो ईदगाह की ओर खुलता है। उस समय विवाद को समाप्त कराने के लिए प्रशासन से उन सीढ़ियों और दरवाजे को बंद करा दिया। उन्होंने यह भी बताया कि पूरी ईदगाह मंदिर की नींव पर टिकी है। – गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी
‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ का गठन
इन्हीं बिड़ला जी ने 21 फरवरी, 1951 को ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ बनाया। इस ट्रस्ट के प्रथम अध्यक्ष थे लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष गणेश मावलंकर और उपाध्यक्ष का दायित्व दिया गया स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी को। ट्रस्ट ने मंदिर बनाने की दिशा में कदम उठाने शुरू किए तो स्थानीय लोग भी आगे आए। स्वामी अखंडानंद सरस्वती के नेतृत्व में लगभग तीन साल तक लोगों ने श्रमदान करके पूरी जमीन को समतल बनाया। फिर 1957 में पहले मंदिर की नींव रखी हनुमान प्रसाद पोद्दार यानी भाई जी ने।
केवल एक वर्ष में यानी 1958 में रामकृष्ण डालमिया ने अपने खर्च से इस मंदिर का निर्माण कार्य पूरा कराया। गोपेश्वरनाथ चतुर्वेदी आगे बताते हैं कि समतलीकरण के दौरान खुदाई हुई, जिसमें गर्भगृह भी मिला। इसके नीचे सीढ़ियां जा रही हैं और अंत में एक दरवाजा भी है, जो ईदगाह की ओर खुलता है। उस समय विवाद को समाप्त कराने के लिए प्रशासन से उन सीढ़ियों और दरवाजे को बंद करा दिया। उन्होंने यह भी बताया कि पूरी ईदगाह मंदिर की नींव पर टिकी है।
इसके बाद प्रसिद्ध उद्योगपति रामनाथ गोयनका ने वहां श्रीकृष्ण चबूतरा बनवाया। इसके बाद भी वहां अनेक मंदिर और भवन बने। आज श्रीकृष्ण जन्मभूमि का जो भव्य रूप दिखता है, उसको कई चरणों में पूरा किया गया है। अंतिम चरण 1982 में पूरा हुआ है।
अब जो स्थिति बनी है, उसमें मुस्लिम पक्ष का कहना है कि 1992 के पूजा स्थल कानून के कारण इस मामले को लेकर कोई वाद चल ही नहीं सकता है। वहीं हिंदू पक्ष का कहना है कि यह मामला वर्षों से पहले से ही न्यायालय में चल रहा है। इस कारण इस पर पूजा स्थल कानून लागू ही नहीं होता है। फिलहाल दोनों पक्षों की नजर सर्वोच्च न्यायालय पर टिकी है। वहां से जो आदेश होगा, उसी आधार पर यह मामला आगे बढ़ेगा।
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