तुलसीदास जयंती: जहां मातु हुलसी ने तुलसी जनायो

Published by
प्रो. योगेंद्र मिश्र

आषाढ़ पूर्णिमा को गंगा किनारे नृसिंह जी ने तुलसी को दयनीय अवस्था में देखा और उन्हें अपने साथ ले आए। उन्हें पढ़ाया और उनकी जीविका का प्रबंध भी कर दिया। तुलसीदास रामकथा करने लगे, जिससे उनका मान-सम्मान बढ़ने लगा। शक् संवत् 1454 में देवोत्थान एकादशी के दिन उनका विवाह काव्य-पुराणों में अभिरुचि रखने वाली 12 वर्षीया रत्नावली के साथ हुआ।

गोस्वामी तुलसीदास के नाना अयोध्या नाथ दुबे गंगा के दक्षिण तट स्थित तारी ग्राम में रहते थे। उनका गोत्र कौडिन्य और व्यवसाय ज्योतिष था। उनके वैसे तो कई पुत्र हुए, पर कन्या हुलसी ही जीवित रहीं, जिनका विवाह आत्माराम सुकुल से हुआ। चूंकि हुलसी तुलसी जी की पूजा किया करती थीं, इसलिए बालक का नाम तुलसीदास रखा गया। जब तुलसीदास 10 महीने के हुए तो तारी में सरस्वती की मृत्यु हो गई। इसलिए तुलसीदास के माता-पिता को वहां जाना पड़ा। सरस्वती का श्राद्ध कर्म करने के बाद वे लौटने का विचार ही कर रहे थे कि हुलसी को हैजा हुआ और वह चल बसीं। आत्माराम जी उनकी अंत्येष्टि कर सोरों लौट आए। लेकिन कुछ दिन बाद उनका भी देहांत हो गया। तुलसीदास अपनी दादी के पास रहने लगे। उनके चाचा जीवाराम के निधन के बाद आर्थिक स्थिति खराब हो गई। दादी तुलसी को सांत्वना देतीं कि राम भला करेंगे तू राम को भज। इसके बाद तुलसीदास राम-नाम भजने लगे, इस कारण लोग उन्हें ‘राम बोला’ पुकारने लगे।

शक् संवत् 1441 की आषाढ़ पूर्णिमा को गंगा किनारे नृसिंह जी ने तुलसी को दयनीय अवस्था में देखा और उन्हें अपने साथ ले आए। उन्हें पढ़ाया और उनकी जीविका का प्रबंध भी कर दिया। तुलसीदास रामकथा करने लगे, जिससे उनका मान-सम्मान बढ़ने लगा। शक् संवत् 1454 में देवोत्थान एकादशी के दिन उनका विवाह काव्य-पुराणों में अभिरुचि रखने वाली 12 वर्षीया रत्नावली के साथ हुआ। संवत् 1462 में तुलसीदास अयोध्या श्रीराम के दर्शन करने पहुंचे। फिर वहां कुछ दिन रहने के बाद प्रयाग गए और काशी जाकर विश्वनाथ के दर्शन किए।

जब वघेला वासी हरसिंह देव को तुलसीदास के बारे में पता चला तो उन्होंने दशाश्वमेध घाट पर उनसे पूरे सावन मास शिवपुराण सुना और उन्हें बहुत धन दिया। उनका कथा वाचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ जुटती थी। उनकी कथाओं से काशी के मणिराम अग्रवाल इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एक माह तक उनसे वाल्मीकि रामायण की कथा सुनी। संवत् 1464 में उन्हें तारापति के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन 3 वर्ष दो माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई। पुत्र शोक में तुलसीदास अपने आराध्य को भी भूल गए। संवत् 1469 के श्रावण में रत्नावली अपने भाई शंभुनाथ के साथ अपने मायके बदरिया चली गई।

इधर, तुलसीदास भी रामकथा बांचने लगे। 11वें दिन शाम को कथावाचन कर जब वे घर लौटे तो उन्हें पत्नी से मिलने की उत्कट इच्छा हुई। भाद्रपद मास की अंधेरी रात थी और धीमी वर्षा भी हो रही थी। लेकिन गंगा पार कर ससुराल पहुंच गए। बाद में रत्नावली उनके पास आईं और पूछा कि आधी रात को कैसे आए? गंगाजी कैसे पार की? इस पर तुलसी ने कहा, ‘‘राम कथा पूर्ण कर आज सांयकाल ही लौटा। पर तुम्हारे बिना जी अकुलाने लगा तो तुम्हारे प्रेम रूपी पोत में बैठ कर गंगाजी पार कर आ गया।’’ यह सुनकर रत्नावली बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने कहा, ‘‘मेरे प्रेम में आपने गंगाजी पार कर ली। तब तो भगवत्प्रेम में मनुष्य अवश्य ही संसार रूपी सागर को पार कर जाते होंगे।’’ यह सुनकर तुलसीदास के मन में वैराग्य जागा। वे आंख बंद कर सोचने लगे कि मेरा जीवन तो राम प्रेम के बिना ही बीत रहा है। रत्नावली उनके पैर दबा रही थीं। उन्होंने सोचा कि पति सो गए हैं, इसलिए वह भी सोने चली गई। उनके जाने के बाद तुलसीदास उठे और रात में ही चुपचाप वहां से निकल गए।

इधर, श्रीराम को मन में धारण कर तुलसीदास नगर-नगर, गांव-गांव और जंगल-जंगल भटकते हुए अयोध्या पहुंचे। यहां दो माह बिताने के बाद वे प्रयाग पहुंचे। इसके बाद चित्रकूट में ही रह कर राम भजन में लीन हो गए। संवत् 1480 में वे फिर अयोध्या गए और वहां सात माह रहने के बाद तीर्थाटन करते हुए 1485 में काशी पहुंचे। यहां अपने निवास स्थान पर कभी रामकथा कहते और कभी शिव कथा। हालांकि उनका चित्रकूट, अयोध्या और प्रयाग आना-जाना लगा रहा, लेकिन अधिकांश समय वह काशी में ही रहते थे। उनके सत्संग में संतों और भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। संवत् 1493 में वह अपने चचेरे भाई नंददास के पास मथुरा पहुंचे, जो कृष्ण भक्त थे और वैरागी हो गए थे। नंददास ने उन्हें सूरदास जी से मिलवाया। इसके बाद नंददास उन्हें गोवर्धन ले गए, जहां तुलसी को भगवान कृष्ण के रूप में श्रीराम के दर्शन हुए। यहीं रह कर उन्होंने ‘श्री कृष्ण गीतावली’ की रचना की और काशी लौट गए।

ज्येष्ठ मास में गोस्वामी जी जब चित्रकूट में थे, राजवीर नामक एक भक्त उनसे मिलने आया। लोग उसे राजा साधु कहते थे। वह साधुओं की सेवा करता था। वह प्रतिदिन गोस्वामी जी की कथा सुनने आता था। एक दिन उसने गोस्वामी जी से यमुना संगम के दक्षिण तट पर स्थित अपनी कुटिया में पधारने का आग्रह किया। उसके अनुरोध के वशीभूत तुलसीदास संवत् 1644 में राजा साधु के साथ यमुना किनारे जंगल स्थित उसकी कुटिया में पधारे। यह स्थान वर्तमान में राजापुर के नाम से ख्यात है। अविनाशराय जो तुलसीदास जी के ननिहाल में रहते थे, उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘तुलसी प्रकाश’ में इसका विस्तृत विवरण दिया है।

गोस्वामी जी ने शक् संवत् 1496 की चैत्र शुक्ल नवमी को अयोध्या में रामचरितमानस लिखना शुरू किया और संवत् 1500 की ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया को उसे पूरा किया। इस बीच उनका काशी और अयोध्या आना-जाना लगा रहा। पांचवें वर्ष से ही उनके द्वारा रचित रामचरितमानस की ख्याति होने लगी। 1509 के ज्येष्ठ मास में गोस्वामी जी जब चित्रकूट में थे, राजवीर नामक एक भक्त उनसे मिलने आया। लोग उसे राजा साधु कहते थे। वह साधुओं की सेवा करता था। वह प्रतिदिन गोस्वामी जी की कथा सुनने आता था। एक दिन उसने गोस्वामी जी से यमुना संगम के दक्षिण तट पर स्थित अपनी कुटिया में पधारने का आग्रह किया। उसके अनुरोध के वशीभूत तुलसीदास संवत् 1644 में राजा साधु के साथ यमुना किनारे जंगल स्थित उसकी कुटिया में पधारे। यह स्थान वर्तमान में राजापुर के नाम से ख्यात है। अविनाशराय जो तुलसीदास जी के ननिहाल में रहते थे, उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘तुलसी प्रकाश’ में इसका विस्तृत विवरण दिया है। इसके अलावा, वर्ष 1874, 1886, 1908, 1909 के बांदा गजेटियर भी इसकी पुष्टि करते हैं। राजा साधु की जहां कुटिया थी, वह स्थान इतना रमणीक था कि तुलसीदास वहीं रह कर राम कथा कहने लगे। यहां उन्होंने हनुमान मंदिर की स्थापना की थी।

तुलसीदास का शरीर गौर और सुंदर, किन्तु स्थूल था। वे आजानुबाहु थे और गले में माला, कटि में श्वेत अधोवस्त्र यज्ञोपवीत, मस्तक पर तिलक धारण करते थे। संवत् 1652 में राजा साधु श्रीहनुमत मंदिर में ध्यान में बैठा था, तभी उसका निधन हो गया। तुलसीदास की आज्ञानुसार ग्रामवासियों ने राजा साधु का अन्तिम संस्कार किया। तुलसीदास ने समारोहपूर्वक भंडारा भी किया था। इसके बाद राजा साधु की प्रस्तर मूर्ति गढ़ाकर हनुमान मंदिर में स्थापित कर दी। वर्तमान राजापुर (चित्रकूट) में काले प्रस्तर की राजा साधु की जो प्रतिमा है, उसे तुलसीदास ने ही लगवाया था। यही नहीं, राजा साधु की सेवा से प्रसन्न होकर फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, संवत् 1652 को उन्होंने उस स्थान का नाम ‘राजापुर’ घोषित कर दिया। वह पांच वर्ष तक वहीं रहे। इस प्रकार, राजा साधु की सेवा का फल प्रत्यक्ष रूप में उसे देकर तुलसीदास संवत् 1657 में काशी आ गए और जीवन का अंतिम समय यहीं व्यतीत किया। 112 वर्ष की अवस्था में उन्होंने श्रावण शुक्ल सप्तमी विक्रम संवत् 1680 को शरीर त्याग दिया।

(सौजन्य – पाञ्चजन्य आर्काइव)

Share
Leave a Comment