फिल्म अभिनेता रजनीकांत ने गोरक्षपीठाधीश्वर एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पैर छुए, तो कांग्रेसियों, वामपंथियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों, यू-ट्यूबर पर बेरोजगारी काट रहे पत्रकारों को तो मानो आग ही लग गई. कारण दो हैं. एक कारण, स्वयं रजनीकांत. जो तमिल भाषियों के बीच देव सदृश्य छवि रखते हैं. जिनके पीछे हर तमिलभाषी दीवाना है. दूसरा एक भगवाधारी, पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री, जो धर्मदंड के साथ-साथ राजदंड भी उतनी ही निष्ठा, सफलता और मजबूती से थामे है. ऐसे जननायक का धर्म संस्थापना के लिए उदद्धत एक सन्यासी के सामने नतमस्तक होना निश्चय ही जनता के बीच उस संदेश को मजबूती से स्थापित करता है, जिसमें धर्मध्वजा के तले लोक कल्याण की अवधारणा सतयुग त्रेता, द्वापर से चली आ रही है.
आधुनिक भारत के इतिहास अभिजात्य एवं शासक वर्ग के बीच एक दुराग्रह रहा है. मुस्लिम परस्ती. यह दुराग्रह आजादी से पूर्व भी था. इसी दुराग्रह के कारण देश बंट गया. और बंटवारे मे साथ देने के बावजूद जो अधिसंख्य मुसलमान यहां रह गए, देश का बुद्धिजीवी एवं परिवारवादी शासक वर्ग उनकी पद पूजा पर उतर आया. इसकी हमेशा से पहली शर्त रही, सनातन संस्कृति, आस्था, आराध्य, परंपरा, नीति व ग्रंथों को नकारना. यदि नकारेंगे, नहीं तो यह संसार की श्रेष्ठतम जीवन पद्धति को स्वीकार करने जैसा होगा. इसके लिए एक ब़ड़ा सुविधाजनक शब्द चुना गया. यह शब्द धर्म निरपेक्षता है. यह धर्म हीनता है और मजहब स्वीकरण है. कुल दृश्य इस प्रकार बना कि आप किसी भी हिंदू मान्यता, आराध्य, विश्वास को खारिज करें और मुस्लिम दुराग्रहों को स्वीकार करें.
यह दुराग्रह नहीं तो क्या है कि स्वतंत्र भारत में भी हिंदू भगवान श्री राम की जन्मभूमि के लिए सड़क से लेकर अदालतों तक लड़ता रहा. अपनी काशी में अपने शिव के स्थान के लिए लड़ रहा है. भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि पर आताताइयों द्वारा तान दी गई मस्जिद को हटा नहीं पा रहा है. यह दुराग्रह भारत को आज इस मोड़ पर ले आया कि यहा हिंदू बिना पुलिस सुरक्षा के शोभा यात्रा नहीं निकाल सकता. यहां ऐलान करके तीर्थ यात्रियों का नरसंहार कर दिया जाता है. अयोध्या से लौटते कारसवकों से भरी ट्रेन की बोगी को आग के हवाले कर दिया जाता है. इन भयावह हिंसा की घटनाओं को जायज ठहरान के लिए तर्क देने वालों की त्योरियां एक फिल्म अभिनेता के एक सन्यासी के पैर छूने पर तन जाती हैं. मायने कि मुसलमान कत्ल करे, तो जायज है. हिंदू यदि अपने संत के पैर छू ले, तो सांप्रदायिक.
यही वह भारत भूमि है, जहां कभी राजा जनक का राज रहा. 12 वर्षीय अष्टावक्र और श्वेतकेतु नगर में भ्रमण कर रहे हैं. राजा जनक भी उसी मार्ग पर निकले हैं. जब उनकी दृष्टि पड़ती है, तो जनक अपने सुरक्षा कर्मियों ने इन बाल सन्यासियों को रास्ते से हटाने के लिए कहते हैं. लेकिन अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं कि वे मार्ग से हट जाएं. उस मार्ग पर उनका पहला अधिकार है क्योंकि वे सभी शास्त्रों में पारंगत ऋषि हैं. जनक को मार्ग छोड़ना पड़ता है. इतना ही नहीं, ये कहना पड़ता है कि मिथिला के सभी मार्गों पर विचरण का पहला अधिकार उनको है. ये सत्ता का ज्ञान एवं धर्म के सामने समर्पण है. यहां रजनीकांत और योगी आदित्यनाथ की आयु के बीच के अंतर को लेकर उपहास उड़ाने वालों को ध्यान देना चाहिए कि राजा जनक एक 12 वर्षीय बाल सन्यासी के समक्ष झुके हुए हैं. असल में सनातन ही वह मार्ग है, जो ज्ञान की श्रेष्ठता को स्थापित करता है. असंख्य ऐसे उदाहरण मिलेंगे. पिप्लाद से लेकर ध्रुव व प्रहलाद तक. जहां राज सत्ता ही नहीं, सर्वोच्च सत्ता भी ज्ञान एवं धर्म के सामने झुकी नजर आती है.
एक और बिंदु अज्ञानता और धर्म निरपेक्षता के जहरीले धुए के बीच छिप जाता है. यह बिंदु है गोरक्ष पीठ. आखिर क्या है गोरक्ष पीठ और उसका महत्व. कौन हैं गोरखनाथ?
नव नाथ, चौरासी सिद्ध, अनंत कोटी सिद्ध मध्ये कथ पढ़ जप कर सुनायो…. तो वो हैं गोरखनाथ. शिव रूपी गोरखनाथ का अवतरण त्रेता युग में माना गया है. लेकिन साथ ही यह भी माना गया है कि वह हर युग में हैं. शिव का वह रूप जिसने मंत्रों को संस्कृत से बाहर निकाला. आम बोल-चाल की भाषा में महायोगी गोरखनाथ के मुख से निकले मंत्र ही शाबर मंत्र कहलाए. यह जन-जीवन से जुड़े मंत्र हैं. इसमें बारिश होने से लेकर चौके में बरकत तक के मंत्र हैं. हर देव, हर इष्ट की साधना के मंत्र हैं. जो सामान्य जन संस्कृत में पारंगत नहीं था, या नहीं है… वह अपनी साधना गुरू गोरथनाथ, कुल नौ नाथ, 84 सिद्धों और अनंत कोटी सिद्धों के मुख से सामान्य बोलचाल की भाषा में निकले मंत्रों से कर सकता है. ऐसा कहा जाता है कि ये मंत्र स्वयं सिद्ध हैं. यह मार्ग, यह शाखा जिसे नाथपंथ कहते हैं अनादि काल से न तो कमजोर पड़ी न ही लुप्त हुई. ये सनातन के साथ चली आ रही है. क्या जानते हैं कि महायोगी गोरखनाथ कौन हैं… ओंकारे शिवरूपी, मध्याह्ने हंस रूपी, संध्यायाम साधु रूपी… हंस परमहंस दो अक्षर. गुरू तो गोरक्ष काया तो गायत्री. इसी को जानना ब्रह्म को जानना है. लेकिन भ्रम में जीने वालों का ब्रह्म से क्या सरोकार.
अनंत काल से पृथ्वी पर दो शक्तियां रही हैं. एक धर्म मार्ग पर चलती हैं, तो दूसरी अधर्म मार्ग पर. भगवान श्री राम को भगवान न मानने वाले उस युग में भी थे. श्री कृष्ण को एक सामान्य बालक समझने वाले उनके युग में भी थे. लेकिन सत्य को नकारने वालों का उस युग में जो हश्र हुआ, वह सत्य की असत्य पर विजय ही तो है. इस युग में कुछ लोग सत्य को नकार रहे हैं, आप समझ सकते हैं कि उनका क्या होगा…
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