एक प्रख्यात पर्यावरणविद् हैं जेन गुडॉल। विज्ञान के आधार पर कहें तो, मनुष्य के पुरखों की दोस्त। डिस्कवरी, बीबीसी, नेशनल ज्योग्राफिक चैनल या सीएनएन, ये सभी गुडॉल के जीवन अथवा अध्ययन पर कार्यक्रम बना चुके हैं। चिम्पांजी यानी वनमानुष के व्यवहार और सामाजिक जीवन को समझने में अपना जीवन खपा देने वाली गुडॉल का एक अध्ययन दिलचस्प है। वनमानुष समाज की मानसिकता को निकट से देखने पर उन्होंने पाया कि जंगल के एक हिस्से में रहने वाले चिम्पांजी यूं तो दूसरे समूह को अपने इलाके में फटकने नहीं देते मगर साथ ही उस झुंड के नर दूसरे समूह की मादाओं को रिझाने के लिए अपने क्षेत्र की सीमा पर गश्त लगाते हैं। ज्यादा से ज्यादा मादाएं जुटाना और जितना ज्यादा हो सके बच्चे पैदा करना, एक समूह के तौर पर ताकत बढ़ाने का वनमानुषी तरीका है।
सवाल यह है कि क्या सभ्यता और संस्कार की अनगिनत सीढि़यां चढ़ने के बाद आज भी मनुष्य के स्वभाव में जंगली खुरदुरापन और खरोंचें बाकी हैं? या मत, पंथ, संप्रदाय और उपासना मार्ग के आधार पर भिन्न तरह से संगठित मनुष्य समूहों के सामाजिक व्यवहार में भी पुरखों से उलट अथवा परस्पर भिन्न किस्म की समझ विकसित हुई है। मानव और मानवता के विकास की कहानी दो अलग किंतु परस्पर गुंथी हुई गाथाएं हैं। एक का आधार विज्ञान है तो दूसरी का सामाजिक विज्ञान।
विज्ञान की कक्षाओं में पढ़ाई-दिखाई जाने वाली आनुवांशिकी की लहरदार सीढ़ी इतिहास के किस मोड़ पर मनुष्य को समझ और सामाजिकता के अनूठे स्तर पर ले गई, यह कहना कठिन है। लेकिन एक बात स्पष्ट है, मानवीय स्वभाव का परिष्कार, जीवन के महत्व की पहचान और इस लोक से परे, जीवन को किसी अलौकिक लक्ष्य केन्द्रित बनाना पूरी मानव जाति की विकास यात्रा का यही ध्येय रहा है। इस सफर में मनुष्य की सामुदायिक सोच ने एक-एक कर पड़ाव लांघे हैं। पशुवत झुंड, जंगली कबीलों, छोटे समुदायों और खास नस्लों के आधार पर खुद को संगठित करती, धीमे-धीमे कदम बढ़ाती मानवजाति की यह यात्रा कहां से कहां तक पहुंची इसकी पड़ताल दिलचस्प हो सकती है। किंतु, तरह-तरह के सूचकांक बनाने वाली मानव जाति के विकास का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने क्या मंगलग्रह के अंतरिक्ष जीव धरती पर आएंगे? नहीं, संपूर्ण मानवता को यह बात खुद परखनी होगी, खुशी से लेकर अवसाद और विकास से लेकर पिछड़ेपन तक की कसौटियों पर दुनिया को परखने वाला मनुष्य खुद किस कसौटी पर परखा जाएगा? क्या मानव स्वयं को अन्य मानवों से एकात्म कर सका? क्या वह आज भी खुद को उस जंगली झुंड वाली सोच से आजाद कर सका? अलौकिक लक्ष्य की ओर अलग-अलग राहों से बढ़ते मनुष्यों में ‘इंसानियत ‘ का स्तर क्या है, अन्य के प्रति दृष्टि क्या है और इस पूरी सृष्टि के प्रति कैसा भाव है?
मानव जाति में मनुष्यत्व का स्तर निर्धारण करने वाले सूचकांक का कांटा खुद इंसान के कर्मों और करतूतों से तय होगा। इंसानी खोपड़ियों की मीनार खड़ी कर दुनिया की छाती पर चढ़ने वाले बाबर और विश्व को सम्यक् दृष्टि देने वाले स्वामी विवेकानंद का योगदान इस तुला पर तौला जाएगा। एक पलड़े में इस्लामी आतंक के अगुआ अबू बकर बगदादी की बर्बरता होगी और दूसरे में बसरा की ही संत राबिया की कहानियां होंगी। मानुष और वनमानुष का फर्क बताने वाले इस सूचकांक की कसौटी विशुद्ध मानवीय मूल्य होंगे। मानव को मानव और स्त्री-पुरुष को समान मानने वाली वैश्विक दृष्टि की खोज इंसानियत के इस रिपोर्ट कार्ड से संभवत: आसान हो सकेगी।
बहरहाल, लव जिहाद जिन्हें काल्पनिक शब्द लगता है, झारखंड की निशानेबाज के शरीर पर प्रताड़नाओं के चिन्ह जिन्हें झूठे लगते हैं, जिहाद का प्यादा बने मुस्लिम शोहदों की हरकतों और महिला जगत की परेशानी की जिन्हें चिंता नहीं, उन मानवाधिकारवादियों, वामपंथियों, छद्म प्रगतिशील लोगों का पाखंड अपने रिपोर्ट कार्ड में लिखना समाज की जिम्मेदारी है। मजहब, पंथ, लिंग और नस्ल का फर्क करे बिना सभी के लिए समान न्याय और कानून की व्यवस्था करना इस राजनीतिक व्यवस्था का दायित्व है।
मानव समाज का जो हिस्सा स्त्री को सिर्फ बच्चे पैदा करने वाली मादा समझता है और धड़ाधड़ बच्चे पैदाकर झुंड सरीखी ताकत हासिल करने को बेचैन है, उसकी हरकतों में मादाखोर वनमानुषों का अक्स नजर आता है। इंसान और जानवर होने का फर्क बताती दो राहों में कौन सी सही है इसका सूचकांक तैयार करना और फैसला देना अब समाज का काम है, यह काम जेन गुडॉल नहीं करेंगी।
(30 Aug 2014 को अपनी बात में प्रकाशित। पाञ्चजन्य आर्काइव)
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