पहले दूरदर्शन पर गिने-चुने कार्यक्रम आते थे और रात 12 बजे प्रसारण बंद हो जाता था। इसलिए देखने की भूख बची रहती थी। अब 200 टीवी चैनल, सैकड़ों ओटीटी प्लेटफार्म हैं, फिर भी कुछ समझ नहीं आता है कि क्या देखा जाए। खाने के साथ भी ऐसा ही है। हमारे आसपास व्यंजनों के इतने विकल्प हैं कि अब भोजन का इंतजार भी नहीं करते।
अस्सी और नब्बे के दशक में जब मैं अपने गांव में होता था, तो दादी चूल्हे पर अरहर की दाल पकाती थीं। वह भी आज वाली अरहर नहीं, छिलके के साथ वाली देसी अरहर। इस दाल के साथ अक्सर बस एक ही सब्जी होती थी। मैं उस वक्त बहुत छोटा था, मगर एक कटोरा भर कर सिर्फ दाल पी जाता था। चावल और रोटी के साथ तो दाल खाता ही था। बड़े होने पर दादी के हाथ की उस दाल के स्वाद को मैं याद किया करता था।
मैं अक्सर सोचता कि आखिर क्यों वैसी स्वाद वाली दाल अब नहीं मिलती? मुझे लगता था कि शायद अब दाल और सब्जियों में वह स्वाद नहीं रहा। मगर ऐसा नहीं है। दाल में अब भी वही स्वाद है, मगर हमारे पास अब विकल्प और खाना इतना ज्यादा हो गया है कि हमें न तो ठीक से कभी भूख लगती है और न ही हम किसी एक चीज का अकेले मजा ले पाते हैं।
उस वक्त खाने में गिने-चुने विकल्प होते थे और खाना भी गर्मागर्म मिलता था। उस समय न तो फ्रिज होते थे और न भोजन भंडार करने का सामान। हम बच्चे तब तक भूखे बैठे रहते थे, जब तक खाना न पक जाए। शाम को खेलने के बाद ऐसी भूख लगती थी जैसे कि क्या मिले और क्या खा लें। चूल्हे पर आराम से खाना पक रहा होता था। न कुकर था, न कोई गैस चूल्हा। देसी दाल पकने में अच्छा खासा समय लेती थी। इसलिए हमारा पेट खाने का इंतजार करता था। पेट एकदम खाली हो जाता था और आंतें बेचैन हो जाती थीं, सिर्फ दाल के लिए।
विडंबना यह कि अब ज्यादातर लोगों के साथ ऐसी स्थिति बनती ही नहीं। हर जगह खाना उपलब्ध है। हर जगह खाने के ठेले, फल के ठेले, होटल, रेस्तरां, कोल्ड ड्रिंक से लेकर सैकड़ों तरह के नमकीन और स्नैक्स। ये सब किसी भी इनसान को अब वैसी भूख लगने ही नहीं देते। जरा सी भूख लगी, आदमी कुछ न कुछ खा लेता है। आंतें कभी खाने के लिए तड़पती ही नहीं। इसलिए अब ‘स्वाद’ ओवररेटिड चीज बन चुका है।
10 -15 वर्ष से मैंने खाने के बीच में कुछ भी खाना बंद कर दिया। सुबह बस नाश्ता किया, उसके बाद दोपहर में खाना खाया और फिर उसके बाद सीधे रात में ही कुछ खाता हूं। बीच में न तो स्नैक्स खाता हूं और न ही कुछ पीता हूं, सिवा पानी के। मेरे आसपास खाने का कितना भी सामान हो, मैं कुछ नहीं खाता। और इसी का नतीजा है शायद कि अब भी मैं गांव से छिलके वाली देसी दाल मंगवाता हूं और उसे कभी-कभी बनवा कर खाता हूं। अब चूल्हे वाला स्वाद तो नहीं मिलता, मगर हां, आंतें जब भूख से कुलबुला जाती हैं तो वही मजा आता है जो बचपन में आता था।
यह वैसे ही है, जैसे पहले दूरदर्शन था। तब मनोरंजन का बस यही एक जरिया था। हम बच्चे उस पर ‘कृषि दर्शन’ तक देख डालते थे। भले कुछ समझ आए या न आए। दूरदर्शन पर गिने-चुने कार्यक्रम आते थे और रात 12 बजे प्रसारण बंद हो जाता था। इसलिए देखने की भूख बची रहती थी। अब 200 टीवी चैनल हैं। नेटफ्लिक्स समेत सैकड़ों ओटीटी प्लेटफार्म हैं, मगर फिर भी कुछ समझ नहीं आता कि क्या देखा जाए। एक तरह से यह ‘ओवर ईटिंग’ जैसा ही है। कोई रस नहीं रहा, अब देखने में, क्योंकि विकल्प इतने ज्यादा हैं कि अब मन भर चुका है।
इसी वजह से पिछले करीब 10 -15 वर्ष से मैंने खाने के बीच में कुछ भी खाना बंद कर दिया। सुबह बस नाश्ता किया, उसके बाद दोपहर में खाना खाया और फिर उसके बाद सीधे रात में ही कुछ खाता हूं। बीच में न तो स्नैक्स खाता हूं और न ही कुछ पीता हूं, सिवा पानी के। मेरे आसपास खाने का कितना भी सामान हो, मैं कुछ नहीं खाता। और इसी का नतीजा है शायद कि अब भी मैं गांव से छिलके वाली देसी दाल मंगवाता हूं और उसे कभी-कभी बनवा कर खाता हूं। अब चूल्हे वाला स्वाद तो नहीं मिलता, मगर हां, आंतें जब भूख से कुलबुला जाती हैं तो वही मजा आता है जो बचपन में आता था।
अपने आसपास तमाम भोजन उपलब्ध होने के बावजूद मैंने बरसों पहले खाने के सारे विकल्प बंद कर दिए। खाना मेरे पेट को तभी मिलता है, जब आंतें पनाह मांग लेती हैं। और इसी वजह से मैं शाम 6 या 7 बजे तक रात का भोजन हर हाल में कर लेता हूं। मैं फ्रिज से निकाल कर कभी भी कुछ नहीं खाता। फ्रिज मेरे लिए किसी काम का नहीं।
अपने आसपास मौजूद भोजन के ढेरों विकल्पों को खत्म कर दीजिए, फिर खाने का मजा देखिए।
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