पहाड़ी नदियों का एक अलग ही सौन्दर्य होता है जो आपको अपनी ओर खींचता है। इस सड़क को हिंदुस्थान-तिब्बत रोड भी कहते हैं, जो तिब्बत की सीमा तक जाती है।
हम पांच लोग सुबह तैयार होकर शिमला से आगे चले। किन्नौर की लम्बी यात्रा पर चले। 12 बजे लगभग 60 किलोमीटर दूर हम नारकण्डा पहुंचे। नारकण्डा के बाद सड़कें नीचे की ओर ले जाती हैं और कुछ दूर बाद ऐसा लगता है जैसे हम फिर मैदान में वापस आ गये हों। तापमान भी नारकण्डा के आगे बढ़ने लगता है। कुछ दूर आगे जाकर हमें सतलुज नदी मिली। हम जिस सड़क से यात्रा कर रहे थे, वह अठखेलियां करती सतलुज के समानान्तर ही चल रही थी। उल्लेखनीय है कि पहाड़ी नदियों का एक अलग ही सौन्दर्य होता है जो आपको अपनी ओर खींचता है। इस सड़क को हिंदुस्थान-तिब्बत रोड भी कहते हैं, जो तिब्बत की सीमा तक जाती है।
आगे दत्त नगर पड़ा। यहां अत्यन्त प्राचीन काल में बना भगवान दत्तात्रेय का मन्दिर है। हम सभी लोग सड़क से थोड़ा अन्दर सतलुज नदी की ओर चले तो हमें जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मन्दिर दिखाई दिया। मशहूर यायावर राहुल सांकृत्यायन ने अपनी एक पुस्तक में इस मन्दिर का जिक्र किया है। हमने निर्णय लिया कि आगे सराहन नाम की जगह है जहां भीमाकाली का बहुत ही प्रसिद्ध मन्दिर है, रात्रि विश्राम वहीं करेंगे। रास्ते में रामपुर शहर मिला।
बुशहर राज्य के राजा राम सिंह ने रामपुर को अपनी राजधानी बनाया था। हमें सराहन पहुंचना था, इसलिये हम बिना रुके आगे बढ़ गये। ऐसी मान्यता है कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ के समय सती का कान यहां आकर गिरा था इसी कारण इसे 51 पीठों मे से एक पीठ का दर्जा प्राप्त है। यह मन्दिर पूरी तरह लकड़ी से बना हुआ है। इसके स्थान पर नये मन्दिर का निर्माण किया गया है जो हू-ब-हू प्राचीन मन्दिर जैसा ही है। सराहन पहुंचते-पहुंचते शाम हो गयी थी। मन्दिर के अतिथि गृह में ही हमें कमरे मिल गये।
सामने बर्फीले पहाड़ों के बीच श्रीखण्ड चोटी दिखाई दे रही थी। हम सब प्रकृति के इस रूप को देखकर अभिभूत थे। मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। मई के महीने में ही तापमान इतना कम था कि गरम कपड़ों में भी ठंड महसूस हो रही थी। रात के चलते दर्शन करना सम्भव नहीं था, इसलिए हमने सुबह दर्शन करने का निर्णय लिया। बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए बर्फबारी और बर्फसे ढके पहाड़ भले ही रोमांच पैदा करते हों पर यहां के निवासियों को बहुत कठिन समय बिताना पड़ता है। उन्हें सर्दियों के लिए पहले से ही खाने-पीने की वस्तुओं और ईंधन की व्यवस्था करनी पड़ती है। भीमाकाली मन्दिर परिसर में ही एक भोजनालय में हम सबने रात का खाना खाया और सोने चले गए।
अगले दिन सुबह उठकर नहा-धोकर, पूजा-पाठ कर हम माता भीमाकाली के दर्शन के लिए निकले। अत्यन्त कलात्मक ढंग से बना लकड़ी का विशाल मन्दिर मन में श्रद्धाभाव जगा रहा था। सबसे ऊपरी तल पर देवी की मूर्ति स्थापित थी। आरती की तैयारी चल रही थी। हम सब आरती और पूजा-अर्चना के पूरा होने तक हाथ जोड़े श्रद्धा से अभिभूत हो खड़े रहे। फिर प्रसाद ग्रहण करके वापस आ गये। मन्दिर के प्रांगण में ही तीन अन्य मन्दिर थे जो भगवान रघुनाथ, नृसिंहजी और पातालभैरवजी के थे। आगे शोनठोंग नामक जगह पर अतिथि भवन के कमरे हमारे लिए आरक्षित थे, इसलिए हमें हर हाल में वहां तक तो चलना ही था। खैर, हम सराहन से उतर कर जेवरी कस्बे से फिर हिंदुस्थान-तिब्बत रोड पर आगे बढ़ गए।
(लेखक यायावर,साहित्यकार और फोटोग्राफर हैं)
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