मदनदास जी ने शब्दों को जीना सिखाया
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मदनदास जी ने शब्दों को जीना सिखाया

मित्र होने के नाते मदनदास जी ने व्यावहारिकता, अपने बारे में निर्भीकतापूर्वक और पारदर्शितापूर्वक जीवन बिताना उन्होंने स्वयं जी कर सिखाया। जीवन में शब्दों का अर्थ क्या है, यह भी उन्होंने ही सिखाया

by के.एन. गोविंदाचार्य
Jul 31, 2023, 07:26 pm IST
in संघ, श्रद्धांजलि
एक कार्यक्रम में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के साथ श्री मदनदास

एक कार्यक्रम में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के साथ श्री मदनदास

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1977 से लेकर 1988 तक हम दोनों ने साथ-साथ विद्यार्थी परिषद में काम किया। 1988 में मैं बीजेपी में और 1991 के बाद वह संघ में। 11 वर्ष यशवंत राव हमारे अभिभावक थे और मदन जी मेरे मित्र थे।

के.एन. गोविंदाचार्य

मेरा मदनदास जी से संबंध 50 वर्ष से अधिक का है। मेरे लिए यह मान सकना कठिन है कि मेरे मित्र मदनदास जी नहीं रहे। यह तो नियति का चक्र है। काल पर किसका वश है?

उन्होंने मुझे शब्दों को जीना सिखाया। पारस्परिकता, मत अनेक, निर्णय एक। यह सब शब्द तो मालूम हैं, लेकिन जीवन में उनके अर्थ क्या हैं? मैं एक उदाहरण देना चाहता हूं। कठुआ (जम्मू) में मेरे संगठन के साथी सुनील उपाध्याय थे। विद्यार्थी परिषद के क्षेत्रीय संगठन मंत्री के नाते जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और पंजाब का काम देखते थे। उनको किडनी का कष्ट हो गया। उल्टी-दस्त भी हो रहा था। तय हुआ कि उनको इलाज के लिए बंबई लाना पड़ेगा।

मदनदास जी जम्मू से आ रहे थे। उसी ट्रेन में थ्री टियर में रिजर्वेशन कराया गया। उस समय थ्री टायर में चलने की ही परंपरा थी। आर्थिक स्थिति भी उसी की इजाजत देती थी। जहां तक मुझे याद है फ्रंटियर मेल थी। दो बर्थ थी-लोअर और मिडल। सुनील जी की बर्थ नीचे थी। पूरी रात मदनदास जी उनके पास बैठे रहे। सुनील जी को बार-बार उल्टी हो रही थी और मदनदास जी बार-बार उसे साफ करते थे, ताकि सहयात्रियों को कष्ट न हो। यह क्रम 24 घंटे पूरे रास्ते चला। यह थे मदनदास जी।

अपने गढ़े हुए कुछ कार्यकर्ताओं के साथ मदनदास जी बैठे हुए बीच में। (बाएं) अभाविप के पूर्व अध्यक्ष राज कुमार भाटिया, (दाएं) भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा। पीछे (बाएं से) भाजपा केंद्रीय कार्यालय मंत्री महेंद्र कुमार, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन और मदनदास जी के सहयोगी नवल जी

हम लोगों में सुनील अंग्रेजी के अच्छे वक्ता थे, लेकिन उन्हें ड्राफ्टिंग कमेटी में रखते थे, तो वह आते नहीं थे। वह अपनी घर की समस्याओं के बारे में भी कुछ बताते नहीं थे। कई बार महीने-महीने भर नहीं आते। हम लोगों के मन में कई सवाल आते थे, लेकिन यह सोचते थे कि जब समय आएगा और सुनील बताएंगे, तब देखेंगे। पूछने की आवश्यकता न पड़े, तो देखा जाएगा। बंबई अस्पताल में भर्ती होने के बाद सुनील ने मुझे सूचना पहुंचाई कि गोविंद जी बंबई बैठक में आ रहे हैं, उनसे कहना मुझसे मिलने आ जाएं, क्योंकि मैं अधिक दिन जिऊंगा नहीं।

मैं उनसे मिलने गया, तो बोले, ‘‘मैंने आपको कुछ बताने लिए बुलाया है। आप लोगों के जो सवाल थे, उनका जवाब देना है। मुझे शब्दों का ज्ञान तो था, लेकिन उनके अर्थों का ज्ञान नहीं था। मुझे भरोसा नहीं था, इसीलिए जब आप लोग ड्राफ्टिंग कमेटी में मुझे रखते तो मैं नहीं आता था। शब्द, अर्थ और जीवन एक साथ हो सकता है, मुझे मालूम ही नहीं था।

ट्रेन में 24 घंटे की यात्रा ने मुझे बताया कि सबके लिए एक और एक के लिए सब- इसका अर्थ क्या है, मुझे समझाया। इसी तरह, हमने देखा कि शब्दों का जो अर्थ था- जी कर बताना है। हम मानते हैं कि सब बराबर हैं, सब कार्यकर्ता हैं, सब पूर्णकालिक, समभाव वाले ही हैं, पर जीवन में ‘आल फॉर वन और वन फॉर आल’ शब्द तो सुने थे, लेकिन जीना ऐसा होता है, इसे मदनदास जी ने जी कर दिखाया, जब वह बर्थ पर बैठे थे। हमें लगा अपनी टीम ही ऐसी है, जो हम स्पिरिट आफ कलेक्टिविटी एंड स्पिरिट आफ एनानमिटी सोचते हैं, वह जीवन में होता है और जीवन में उतर सकता है।’’

फिर बोले, ‘‘आप कहते थे, मित्र को लॉकर की तरह होना चाहिए, जो मित्र है, उसे खोल सके और आपके अंदर समाचार भर सके। लॉकर के मैनेजर को उसे खोलने का अधिकार नहीं है। जो ग्राहक है, वही खोलता है। हम लोगों की मित्रता भी ऐसी ही है। हम सुनते थे मित्रता, लेकिन स्ट्रीट कॉर्नर मित्रता अलग होती है और ‘फ्रेंडशिप विद पर्पज’ अलग होती है। इस सब शब्दों का अर्थ उस दिन पता चला।’’ उन्होंने बताया कि एक उदाहरण हम सुना करते थे और हम भी बोलते थे, लेकिन अर्थ नहीं मालूम था, जीना तो दूर की बात है। फिर सुनील ने कहा, ‘‘अब मैं शांति से जा सकता हूं। मदन जी ने हमें सिखाया कि हम पद पर हैं, तो हम सब कुछ जानते हैं, यह भ्रम न हो। सब कुछ जानना जरूरी भी नहीं और संभव भी नहीं है।’’

1977 से लेकर 1988 तक हम दोनों ने साथ-साथ विद्यार्थी परिषद में काम किया। 1988 में मैं बीजेपी में और 1991 के बाद वह संघ में। 11 वर्ष यशवंत राव हमारे अभिभावक थे और मदन जी मेरे मित्र थे। मित्र के नाते समझकर व्यवहार करना मुझे उन्होंने सिखाया। अपने बारे में निर्भीकतापूर्वक व पारदर्शितापूर्वक जीवन बिताना उन्होंने खुद जी कर सिखाया है। जितना सीखा उतना उनका किया हुआ और जो न सीखा वह मेरी अपनी कमी के कारण।

एक बार की बात है। वर्षा हो रही थी। सब एक साथ गोवा में कार्यकर्ता के घर पर थे। सब दरवाजे और खिड़कियां बंद थीं। सुबह हुई तो अचानक कुछ लोग आ गए और हमें बाहर आने को कहा। एक ने कहा कि बहुत वर्षा हो रही है। इस पर यशवंत राव जी ने तुरंत कहा कि अखिल भारतीय संगठन मंत्री हो, तो इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें सब कुछ पता है। रात में तुम बाहर गए थे क्या? फिर कैसेकह रहे हो कि तेज वर्षा हुई? सब कुछ जानना जरूरी नहीं है। जब मदनदास जी को संगठन मंत्री बनाया गया तो वह यशवंत राव के पास गए। उन्होंने कहा कि हमें तो स्टेटमेंट भी लिखना नहीं आता है, हमको काम क्यों दे दिया? इस पर यशवंत राव ने कहा, ‘‘यह किसने कहा कि तुमको स्टेटमेंट लिखना पड़ेगा। स्टेटमेंट अच्छा लिखने वालों को जोड़ना और उनको विद्यार्थी परिषद का अच्छा कार्यकर्ता बनाना, यह तुम्हारा काम है, स्टेटमेंट लिखना तुम्हारा काम नहीं है।’’

मुझे याद है, राजगीर में विद्यार्थी परिषद की टोली गई थी। रोपवे बन गया था। रोपवे पर यात्रियों को चढ़ाने-उतारने वालों में वहां के कुछ स्थानीय असामाजिक तत्व भी थे। विद्यार्थी परिषद की टोली में छात्राएं भी थीं। उन असामाजिक तत्व की हरकतों पर मदनदास जी नाराज हो गए और उन लोगों से भिड़ गए। कई को उठाकर पटका। सब भाग गए। वह बहुत बहादुर भी थे।

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