मुंशी प्रेमचंद ने जिन महापुरुषों से प्रेरणा प्राप्त की थी, उनमें सबसे प्रमुख थे स्वामी विवेकानंद। वे लोगों को सलाह देते थे कि स्वामी जी को जानने के लिए रोमा रोलां द्वारा लिखित जीवनी जरूर पढ़ें। वे स्वामी जी को महान समाज सुधारक भी कहते थे।
विवेकानंद हिन्दुत्व के वैश्विक योद्धा थे जिन्होंने विश्वभर में लोगों को कर्मठ वेदांत की शिक्षा दी। धार्मिक सहअस्तित्व का पाठ पढ़ाया। समग्र रूप से देखने पर विवेकानंद उस उदार, प्रगतिशील धार्मिक दृष्टि के आविष्कारक थे जिसने आधुनिक समय में हिंदू धर्म को प्रासंगिक बनाया।
एक ओर विवेकानंद ने भारतीयों में गौरव और आत्मविश्वास को जगाया, दूसरी ओर को उसकी कमजोरियों और जड़ताओं से भी निकालने की कोशिश की और यह सब लगातार भारतीय समाजयात्राएं करते हुए और लोगों को संगठित करते हुए किया। विवेकानंद की एक खासियत यह थी कि उन्हें भारत की प्राचीन परंपरा पर अभिमान था मगर वे उसकी कुरीतियों, अंधविश्वासों को दूर करने को लेकर भी प्रतिबद्ध थे।
तभी एक विचारक ने कहा था-यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। वहां सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं। स्वयं प्रेमचंद विवेकानंद के चरित्र से इतने अभिभूत थे कि उन्होंने विवेकानंद की एक संक्षिप्त जीवनी लिखी। यह जीवनी सबसे पहले मासिक जमाना के मई 1908 अंक में निकली थी। 1936 के 7 अक्तूबर को, अपनी मृत्यु के एक दिन पहले प्रेमचंद ने इसी पुस्तक का हिंदी रूपांतर प्रकाशित करने और इसका नाम बदलकर ‘‘कलम-तलवार और त्याग’’ करने को कहा। 1940 में उनके मरने के बाद यह पुस्तक इसी नाम से प्रकाशित हुई।
प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने स्वामी जी की जीवनी के संदर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है- सभी को ज्ञात है कि इस पीढ़ी ने विवेकानंद से कितना मनोबल प्राप्त किया था। मुंशी जी उग्र राष्ट्रवाद की धारा में थे। इस क्षेत्र में वे विवेकानंद की तरफ आकर्षित न होते, क्या यह संभव था?
‘‘कलम का सिपाही’’ में अमृतराय लिखते हैं— कई रूपों में विवेकानंद उन्हें अपनी तरफ खींचते थे। एक तो सच्चे हिंदू का रूप। ऐसा हिंदू जिसके मन में यह लालसा है कि आज की धन और बल से हीन हिंदू जाति फिर से पूर्वकाल की सबल, समृद्ध और आत्म गौरव शालिनी आर्य जाति बने।
दूसरा रूप एक अच्छे देशसेवी, जनसेवी का था। तीसरा रूप एक सतेज स्वाधीनता-प्रेमी का है। मुंशीजी ने विवेकानंद विषयक जीवनी में उनके भाषण का यह अंश उद्धृत किया- मेरे नौजवान दोस्तों, बलवान बनो! तुम्हारे लिए मेरी यही सलाह है। तुम भगवद्गीता के स्वाध्याय की अपेक्षा फुटबाल खेलकर कहीं अधिक सुगमता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हारी रगें और पुट्ठे अधिक दृढ़ होंगे तो तुम भगवद्गीता के उपदेशों पर अधिक अच्छी तरह चल सकते हो। गीता का उपदेश कायरों को नहीं दिया गया था, अर्जुन को दिया था, जो बड़ा शूरवीर, पराक्रमी और क्षत्रिय शिरोमणि था।
वे स्वामी विवेकानंद द्वारा दीन-दुखियों के हालात सुधारने के लिए चलाए जा रहे अभियान से बेहद प्रभावित थे। स्वामी जी की जीवनी में लिखते हैं— स्वामीजी सामाजिक सुधारों के पक्के समर्थक थे, पर उनकी वर्तमान गति से सहमत न थे। उस समय समाज-सुधार के जो यत्न किये जाते थे, वे प्राय: उच्च और शिक्षित वर्ग से ही सम्बन्ध रखते थे। परदे की रस्म, विधवा-विवाह, जाति- यही इस समय की सबसे बड़ी सामाजिक समस्याएं हैं, जिनमें सुधार होना अत्यावश्यक है, और सभी शिक्षित वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं।
स्वामीजी का आदर्श बहुत ऊंचा था अर्थात निम्न श्रेणी वालों को ऊपर उठाना, उन्हें शिक्षा देना और अपनाना। ये लोग हिन्दू जाति की जड़ हैं और शिक्षित वर्ग उसकी शाखाएं। केवल डालियों को सींचने से पेड़ पुष्ट नहीं हो सकता। उसे हरा-भरा बनाना हो, तो जड़ को सींचना होगा। इसके सिवा इस विषय में आप कठोर शब्दों के व्यवहार को बहुत अनुचित समझते थे, जिनका फल केवल यही होता है कि जिनका सुधार करना है, वही लोग विरुद्ध हो जाते हैं। स्वामीजी ने सुधारक के लिए तीन शर्तें रखी हैं। पहली यह कि देश और जाति का प्रेम उसका स्वभाव बन गया हो, हृदय उदार हो और देशवासियों की भलाई की सच्ची इच्छा उसमें बसती हो।’’
स्वामी विवेकानंद प्रेमचंद के लिए एक असाधारण चरित्र थे। प्रेमचंद की आधुनिकता भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास को खारिज नहीं करती। उस इतिहास के श्रेष्ठ प्रवक्ता को उन्होंने स्वामी विवेकानंद में देखा था। वे देशप्रेम और मानव प्रेम के कथाकार और विवेकानंद उसी के सर्वोत्तम विकास, अस्पृश्यता, दरिद्रता, अशिक्षा के विरुद्ध संघर्ष करने वाले हैं और विवेकानंद उस संघर्ष के महानायक हैं।
राष्ट्रीय चेतना से पूर्ण सब रचनाओं के मूल में जो प्रेरक तत्व हैं, उनके संबंध में चर्चा करते समय अमृत राय ने कहा है,
‘‘1893 में अमेरिका पहुंचकर विवेकानंद ने जब विश्वधर्म सम्मेलन में सभी को पराजित करते हुए भारत की महान वाणी की उद्घोषणा की थी। उस वक्त भारत-वासियों का हृदय गौरव से भर गया था, उनकी धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो गया था, उनके नेत्र और उज्जवल हो उठे थे। वह एक जादू जैसा प्रभाव था। उन दिनों विवेकानंद की वाणी और साधना भारत के स्वाधीनता कामी तरुणों के लिए नयी ज्योति जैसे हो उठे थे। जाति का ऊसर जीवन नये प्रकाश से भर उठा था। हीनता की भावना दूर होकर आत्मगौरव की भावना जाग उठी थी।’’
अमृतराय ने आगे और भी कहा है। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि प्रेमचंद ने क्रांतिकारी आंदोलन में कोई योगदान नहीं किया होगा और वे शायद श्रेयस्कर रास्ता भी नहीं चुनते थे, लेकिन उनका मन विवेकानंद एवं उनकी जीवनी और गैरीबाल्डी की तरफ झुका हुआ था, जिनकी तरफ उस जमाने के क्रांतिकारी लोग झुके हुए थे।
अमृत राय ने अपनी प्रेमचंद विषयक जीवनी में विवेकानंद के जीवन चरित का कुछ अंश, स्वामी जी की प्रेरणायुक्त वाणी के साथ उद्धृत किया है। स्वामी जी के संबंध में इस रचना में समाविष्ट प्रेमचंद के मत को भी उन्होंने दिया है। प्रेमचंद ने स्वामी जी के संबंध में कहा था, जिन सब महान पुरुषों ने भारतीय नवजागरण का शंखनाद किया था, उनमें स्वामी विवेकानंद का स्थान शीर्ष पर है। उनकी दिव्य वाणी में केवल भारत की ही नहीं, समग्र विश्व की आध्यात्मिक उन्नति की उद्दीप्त घोषणा है। स्वामी जी यद्यपि आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने आध्यात्मिक प्रकाश की जो शिखा प्रज्ज्वलित की थी, वह चिरकाल तक संसार को प्रकाशित करती रहेगी।
‘‘कलम का सिपाही’’ में अमृतराय लिखते हैं—
कई रूपों में विवेकानंद उन्हें अपनी तरफ खींचते थे। एक तो सच्चे हिंदू का रूप। ऐसा हिंदू जिसके मन में यह लालसा है कि आज की धन और बल से हीन हिंदू जाति फिर से पूर्वकाल की सबल, समृद्ध और आत्म गौरव शालिनी आर्य जाति बने।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक डॉ. शैल पांडेय ने अपने लेख – प्रेमचंद की रचनाओं पर स्वामी जी का प्रभाव – में लिखा है, ‘‘प्रेमचंद ने अपने जीवन में जिन महापुरुषों से प्रेरणा प्राप्त की थी, स्वामी विवेकानंद उनमें अनन्यतम हैं। आधुनिक युग में पाश्चात्य जगत से आये भौतिकवाद के प्रवाह के सामने जिन्होंने आध्यात्मिकता की दीवार खड़ी कर दी, उन्हीं स्वामी विवेकानंद को प्रेमचंद बुद्ध, शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु और कबीर के समकक्ष महापुरुष मानते थे। पाश्चात्य भौतिकता के तेज से जब हमारी आंखें चौंधिया रही थीं, उस वक्त प्रेमचंद ने लिखा है, इस योद्धा संन्यासी ने हमें जाग्रत करते हुए लिखा है, कहां रास्ता भूलकर भागे जा रहे हो? वह तेज सत्य का तेज नहीं, सत्य का तेज तो वह ज्ञान का प्रकाश है जो तुम्हारे भीतर विद्यमान है, जिसके लिए पूरा विश्व व्याकुल है, जिसे प्राप्त करने के लिए वह उत्सुक होकर तुम्हारी ओर निहार रहा है। जो पाश्चात्य जगत भारतीय सभ्यता और मत को हीन समझकर ईसाई धर्म के आलोक में हमारी भलाई करना चाहता था, स्वामी जी ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा, प्राच्य जगत का सबसे बड़ा अभाव धर्म नहीं है। उन लोगों के पास धर्म तो काफी मात्रा में है। पीड़ित भारत के लक्ष-लक्ष क्षुधा से दुखी मनुष्य शुष्क गले से एक-एक रोटी के लिए चीख रहे हैं। उन्हें रोटी चाहिए, हम लोग उन्हें पत्थर दे रहे हैं। भूखे व्यक्ति को धर्म का उपदेश देने का अर्थ है, उसका अपमान करना। उसे अगर दर्शन की शिक्षा दी जाए तो यह भी उसका अपमान करना है।’’
प्रेमचंद ने विवेकानंद को भारतीय संस्कृति के लुप्त गौरव के पुन: प्रतिष्ठापक के रूप में रेखांकित किया है। देश प्रेम के आकर्षण से ही वे अमेरिका गए थे। जनसामान्य की गरीबी ही भारत की गरीबी का मूल कारण है, यह बात स्वामी जी कहा करते थे। सबसे पहले उसे दूर करना होगा, तभी हमलोग प्रगति कर सकेंगे। स्वामी जी द्वारा किए गए सुधार मार्ग के संबंध में प्रेमचंद ने कहा है, स्वामी जी समाज सुधार का पूरी तरह से निर्वाह करते थे। लेकिन उन्होंने अपने जमाने की सुधार प्रणाली का जरा भी समर्थन नहीं किया है। उनकी दृष्टि में सुधारक लोग यह नहीं जानते हैं कि घाव का वास्तविक स्थान कहां पर है? उनमें जितने सुधार किये जा रहे थे, वे सभी उच्च शिक्षित वर्ग में ही सीमित थे। जैसे पद दूर करना, विधवा-विवाह का प्रचलन इत्यादि। स्वामी जी का आदर्श इन सबसे उठकर उन्हें अपना बना लेना- यह है हमारा लक्ष्य।
डॉ. श्रीमती शैल पांडेय के मुताबिक दीन दुखियों, अशिक्षितों और पद-दलितों के प्रति स्वामी जी के असीम प्रेम ने ही प्रेमचंद को गंभीर रूप से प्रभावित किया था। मानवीय प्रेम ही प्रेमचंद के साहित्य की प्राणवस्तु है। उनके संबंध में डा. नगेंद्र ने कहा है- वे सहज संत थे, इनके हृदय की सहानुभूति पर मनुष्य का सहज अधिकार था। जीर्ण कुटिया में रहने वाला ही यथार्थ राष्ट्र है, जिसकी कथा स्वामी जी ने कही है, जिन दीन-दुखियों के दुख निवारण के लिए स्वामी जी अमेरिका दौड़े गये थे, जिनकी कल्याण कामना के कारण उन्होंने अपने लिए मोक्ष भी नहीं चाहा था, प्रेमचंद के साहित्य के मूल में उन्हीं दीन-दुखियों और दलितों को हम पाते हैं। उनके साहित्य में उन्हीं के दुख, कष्ट, भूख और दर्द के सजीव चित्र हैं।
भारतीय किसान की पीड़ा और शोषण के जो यथार्थ चित्र प्रेमचंद के गोदान उपन्यास में हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। खेतों में जो हल चलाता है, जो बीज बोता है, फसल पर उसका अधिकार नहीं है। उस युग के शासन तंत्र और महाजनों ने मिलकर किसानों को लूटकर किस तरह खत्म कर दिया था, इसका प्रेमचंद ने गंभीरता से अनुभव किया था। शोषकों के प्रति उनका आक्रोश व्यंग्य रूप में प्रस्फुटित हो उठा है। स्वामी जी ने इन्हीं के संबंध में कहा है, यही नीच लोग युग-युगों से उनका रक्त चूसते रहे हैं और उन्हें अपने पैरों तले रौंदते रहे हैं। प्रेमचंद सामान्य जीवन की समस्याएं उठाकर उस संबंध में जनमत तैयार करना चाहा है।
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