पिछले दिनों भारत में एक ऐसे विषय पर हंगामा मचा जिस पर वैसे तो हर इस्लामिक देश में मचता है, परन्तु दूसरे तरीके से ! वहां विध्वंसात्मक हंगामा मचता है तो भारत में इसे लेकर व्यवस्थागत बात की गयी। यहां पर बात हो रही है अहमदिया समुदाय की, जिन्हें मुस्लिम लोग मुस्लिम नहीं मानते हैं जबकि अहमदिया स्वयं को मुस्लिम कहते हैं। अब यह बहुत ही हैरान करने वाली बात है कि समानता के विमर्श का सबसे बड़ा चेहरा बनने वाले लोग और हिन्दुओं में स्वच्छता की व्यक्तिगत पसंद को व्यवस्थागत अस्पर्श्यता का विमर्श बनाने वाले लोग इस व्यवस्थागत छुआछूत पर मौन रह गए।
इसे व्यवस्थागत अस्पर्श्यता इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अहमदिया समुदाय के साथ पाकिस्तान में व्यवस्थागत भेदभाव ही होता है। हाल ही में उनके कई इबादतखानों को ढहाया गया और यहां तक कि उन तमाम अहहमदिया लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था जिन्होंने बकरीद पर बकरों की कुर्बानी दी थी।
क्या कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर सकता है कि पुलिस आकर किसी के घर के फ्रिज से कुर्बानी का मांस लेकर जा सकती है ? लेकिन पाकिस्तान में ऐसा हुआ। पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों को ईद पर पशुओं की कुर्बानी की इजाजत नहीं थी और यह भी हुआ था कि उनके घरों से पशुओं को पुलिस ने जब्त कर लिया था, एवं यह कहा गया कि वह बकरीद के बाद इन्हें ले सकते हैं।
और ऐसा नहीं है कि इस समुदाय के लोगों को बकरीद मनाने से अब मना किया जा रहा है, पिछले वर्ष भी पाकिस्तान में बकरीद पर कुर्बानी के आरोप में कई अहमदिया लोगों को गिरफ्तार किया गया था। बीबीसी के अनुसार उनके खिलाफ आपराधिक संहिता की धारा 298सी के तहत मामला दर्ज किया गया था।
इस कानून के तहत, “अहमदिया समुदाय के लोग खुद को मुसलमान नहीं कह सकते, और न ही मुसलमानों वाला कोई ऐसा काम कर सकते हैं, जिससे मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचे।”
अर्थात अहमदिया समुदाय ऐसा कोई भी कार्य नहीं कर सकता है जो मुस्लिम करते हैं। वह खुद को मुसलमान नहीं कह सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह विवाद केवल पाकिस्तान तक ही सीमित है। उनके साथ समुदाय के रूप में यह भेदभाव और भी देशों में होता है और बल्कि वहां भी वह नहीं जा सकते हैं जो इस्लाम की सर्वोच्च जगह है अर्थात हज करने के लिए ! यह ऐसा समुदाय है जो स्वयं को मुस्लिम कहता है, परन्तु वह हज करने नहीं जा सकता है क्योंकि इनकी जो अपनी मान्यताएं हैं, उसके आधार पर मुस्लिमों के अन्य फिरके इन्हें मुस्लिम नहीं मानते हैं और यही कारण है कि उनके हज करने पर रोक है।
बीबीसी ने मुस्लिमों के सभी फिरकों को चित्र रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखा कि मुस्लिमों में 80% सुन्नी हैं और 20 प्रतिशत शिया। और सुन्नी मुस्लिमों में ही हनफी इस्लामिक कानून का पालन करने वाले मुस्लिमों का एक वर्ग स्वयं को अहमदिया कहता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर वह क्या कारण है जिसके चलते मुस्लिमों के अन्य फिरके इन्हें मुस्लिम नहीं मानते हैं और वह इस सीमा तक इनके विरोधी हैं कि पकिस्तान में तो इनके इबादत खाने तोड़ते ही हैं, वह इन्हें विश्व में भी धमकियां देते हैं कि स्वयं को मुस्लिम कहना बंद करें। यह असहिष्णुता अपने ही नियमों का पालन करने वालों के विरुद्ध ?
अहमदिया समुदाय के साथ किया जा रहा यह व्यवहार समानता के उस सिद्धांत पर तो प्रश्न उठाता ही है, जिसकी व्याख्या इस्लामिक विद्वान प्राय: करते रहते हैं, परन्तु अहमदिया मुस्लिमों के साथ किया जा रहा यह व्यवहार भारत में उन लोगों की चुप्पी पर भी प्रश्न उठाता हैं, जो लगातार हिन्दुओं की व्यक्तिगत स्वच्छता की आदतों को सभ्यतागत संघर्ष बनाकर प्रस्तुत करते हैं।
जबकि यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि पाकिस्तान से एक ही वैज्ञानिक को भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला है और वह हैं अब्दुस सलाम जिन्हें वर्ष 1979 में भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। परन्तु पाकिस्तान सहित भारत के भी कथित प्रगतिशील एवं विज्ञान की दुहाई देने वाले लोग अब्दुस सलाम का नाम भी नहीं लेते हैं, प्रश्न उठता है कि भारत के कथित विज्ञान पसंद लोग ऐसा भेदभाव क्यों करते हैं ?
और व्यवस्थागत रूप से किए जा रहे इस इतने बड़े भेदभाव पर मौन धारण करते हैं। यह बात पूरी तरह से सत्य है कि वह पाकिस्तान के मामले में नहीं बोल सकते हैं, परन्तु भारत में ?, भारत में अभी हाल ही में इस समुदाय को मुस्लिम मानने से इंकार कर दिया गया। आंध्र प्रदेश के वक्फ बोर्ड ने हाल ही में भारत में अहमदिया समुदाय को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया। वहीं इसका समर्थन भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम संगठन जमीयत-उलेमा-ए हिन्द ने भी कर दिया।
वहीं इस प्रस्ताव पर भारत सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए यह कहा कि यह कदम परस्पर समुदायों में नफरत फैलाने जैसा कदम है और यह उस समुदाय के विरुद्ध नफरत की मुहीम चलाने जैसा है जिसका प्रभाव पूरे देश में फैल सकता है।
आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड ने केंद्र सरकार को पत्र लिखते हुए कहा था कि आंध्र प्रदेश समेट देश के कई और राज्यों के वक्फ बोर्ड अहमदिया समुदाय का विरोध कर रहे हैं और उन्हें इस्लाम से बाहर करने के प्रस्ताव पारित कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने इस बात पर वक्फ बोर्ड से कहा कि उसके पास अहमदिया समुदाय समेत किसी भी और समुदाय की मजहबी पहचान निर्धारित करने की कोई जिम्मेदारी नहीं दी गयी है और न ही यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता है।
क्या है विवाद ?
अहमदिया समुदाय की स्थापना वर्ष 1889 में पंजाब के लुधियाना जिले के कादियान गांव में मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी और उन्होंने एक बैठक बुलाकर स्वयं को खलीफा घोषित कर दिया था। अहमदिया समुदाय के लोग गुलाम अहमद को मुहम्मद के बाद एक और पैगंबर मानते हैं, जबकि इस्लाम में यह स्पष्ट लिखा है कि मुहम्मद खुदा द्वारा भेजे गए अंतिम पैगंबर हैं।
इसी बात को लेकर मुस्लिम समुदाय अहमदिया समुदाय को मुस्लिम नहीं मानता है और पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देशों में उन्हें गैर मुस्लिम घोषित किया गया है।
सबसे हैरान करने वाली बात यही है कि भारत में जब वक्फ बोर्ड एवं जमीयत-उलेमा-ए हिन्द ने उसी व्यवस्थागत भेदभाव को यहां पर भी लागू करना चाहा तो समानता के विमर्श के ठेकेदार कहां चले गए ? इतना ही नहीं इनफोसिस की संस्थापक सुधामूर्ति की व्यक्तिगत खाने की पसंद को लेकर यह कहने वाली आरफा खानम शेरवानी कि उन्हें मात्र मांसाहार के चलते ब्राहमण की रसोई में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, भी वक्फ बोर्ड के इस व्यवस्थागत भेदभाव पर नहीं बोलीं ?
क्या ऐसे लोगों की सहिष्णुता यही है कि जब अपने मजहब की बात आए तो भाग जाया जाए और हिन्दुओं के प्रति विषवमन किया जाए, क्योंकि यही वह वर्ग है जो न ही पसमांदा मुस्लिमों के साथ हो रहे मजहबी व्यवस्थागत अत्याचारों के बारे में बात करता है और न ही शियाओं के विषय में !
परन्तु यह भी बहुत हैरानी की बात है कि जहां एक ओर आरफा एवं कथित समानता के झंडाबरदार सुधामूर्ति द्वारा यह कहे जाने पर हिन्दू धर्म को विभाजनकारी बताने में लग गए कि उन्होंने कहा कि वह शुद्ध शाकाहारी हैं और बाहर जाने पर शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेंट ही खोजती हैं क्योंकि वेज और नॉन वेज वालों में वही चम्मच वह लोग प्रयोग करते हैं परन्तु उससे कुछ दिन पहले वक्फ बोर्ड और जमीयत-उलेमा-ए हिन्द द्वारा एक बहुत बड़े वर्ग के साथ हुए इतने बड़े अन्याय पर चुप रह गए और भारत सरकार द्वारा जब इस प्रस्ताव का विरोध किया गया तो वह भारत सरकार के साथ भी नहीं खड़े हुए।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या यह वर्ग भारत में भी इस समुदाय के प्रति तमाम अत्याचारों को मौन समर्थन देता रहेगा ? उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है।
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