सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौर मास कहलाता है। सौर वर्ष 365 दिन का होता है और चंद्र वर्ष 354 दिन का। यानी सौर वर्ष और चंद्र वर्ष में 11 दिन का अंतर है। तीन वर्ष में यह अंतर 33 दिन का हो जाता है।
भारतीय पञ्चांग एवं काल गणनानुसार इस वर्ष यानी विक्रम संवत् 2080 में श्रावण मास 30 दिन के बजाय 59 दिन का होगा। इस कारण इसमें चार सोमवार की जगह आठ सोमवार पड़ेंगे। इस पुरुषोत्तम मास का ज्योतिषीय आधार होता है। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक तीन वर्ष के पश्चात् अधिकमास लगता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौर मास कहलाता है। सौर वर्ष 365 दिन का होता है और चंद्र वर्ष 354 दिन का। यानी सौर वर्ष और चंद्र वर्ष में 11 दिन का अंतर है। तीन वर्ष में यह अंतर 33 दिन का हो जाता है।
अधिकमास चंद्र साल का अतिरिक्त भाग होता है, जो कि 32 माह, 16 दिन और 8 घंटे के अंतर से बनता है। सूर्य और चंद्र वर्ष के बीच इसी अंतर को पाटने या संतुलन बनाने के लिए अधिकमास लगता है। इसे ही मलमास कहते हैं। पंचांग या हिंदू कैलेंडर सूर्य और चंद्र वर्ष की गणना से चलता है। इससे व्रत-त्योहारों की तिथि अनुकूल रहती है। इसके साथ ही अधिकमास के कारण कालगणना को उचित रीति से बनाए रखने एवं तारतम्यता में सहायता मिलती है। जिस चंद्रमास में सूर्य-संक्रांति नहीं पड़ती, उसी को ‘अधिकमास’ की संज्ञा दी जाती है। जिस चंद्रमास में दो सूर्य संक्रांति का समावेश हो तो वह ‘क्षयमास’ कहलाता है। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्गशीर्ष व पौष मासों में होता है। जिस वर्ष क्षयमास पड़ता है, उसी वर्ष अधिकमास भी होता है। यह स्थिति 141 वर्ष बाद आती है।
पौराणिक कथा
अधिकमास से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने कठोर तप से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान मांगा, लेकिन अमरता का वरदान देना निषिद्ध है। इसीलिए ब्रह्मा जी ने उसे कोई और वरदान मांगने को कहा और तब हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से कहा कि आप ऐसा वरदान दें, जिससे संसार का कोई भी नर, नारी, पशु, देवता या असुर उसे मार ना सके। उसे वर्ष के सभी 12 महीनों में भी मृत्यु प्राप्त न हो, उसकी मृत्यु न दिन के समय हो और न रात को। वह किसी अस्त्र-शस्त्र से न मरे, उसे न घर में मारा जाए और न ही घर से बाहर। तब ब्रह्मा जी ने उसे ऐसा ही वरदान दिया, लेकिन इस वरदान के मिलते ही हिरण्यकश्यप स्वयं को अमर और भगवान के समान मानने लगा। तब भगवान विष्णु अधिकमास में नृसिंह अवतार (आधे नर और आधे शेर) के रूप में प्रकट हुए और शाम के समय देहरी पर बैठ अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का सीना चीर कर उसे मृत्यु के द्वार भेज दिया।
पुरुषोत्तम मास हमें अपनी आत्मा की गहराइयों को खोजने, अपनी भावनाओं को स्पष्ट करने और भगवान के प्रति आदर्श प्रेम की भावना को बढ़ावा देने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए, हमें इस महीने का महत्व समझना चाहिए और पुरुषोत्तम मास के आयोजन का अनुसरण करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास धार्मिकता, नैतिकता, आध्यात्मिकता और पवित्रता रूपी महाकुंभ के समान है। इसे आराधना, साधना, समर्पण और भक्ति के माह के रूप में माना जाता है। यह हमें आत्मा के साथ संवाद, समर्पण, आनंद और शांति का अनुभव कराता है। अथर्ववेद में इस मास को भगवान का आवास स्थल बताया गया है। शिवपुराण में इस मास को भगवान शिव का स्वरूप कहा गया है।
ऐसे बना पुरुषोत्तम मास
पुराणों में अधिकमास के पुरुषोत्तम मास बनने की बड़ी ही रोचक कथा है। इस कथा के अनुसार बारह महीनों के अलग-अलग स्वामी होते हैं पर स्वामीविहीन होने के कारण अधिकमास को मलमास कहने से उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इससे दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनसे अपना दु:ख रोया। भक्तवत्सल श्रीहरि उसे लेकर गोलोक पहुंचे। वहां श्रीकृष्ण विराजमान थे। श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया, अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूं। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुममें समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूं। और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूं। आज से तुम मलमास के स्थान पर पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे।
अस्मै समर्पित: सर्वे ये गुणा मयि संस्थिता:। पुरुषोद्घामेति मन्नाम प्रथितं लोक वेदयो:। अहमेवास्य संजात: स्वामी च मधुसूदन:॥
अर्थात् मुझ पुरुषोत्तम में जितने भी सद्गुण हैं उन सभी गुणों को धारण कर पुरुषोत्तम मास विख्यात हो जाएगा। मैं स्वयं इस मास का अधिपति होकर अपने भक्तों को दुर्लभ पद प्रदान करूंगा, जो बड़े बड़े ऋषियों के लिए भी अप्राप्य है। पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजा, व्रत एवं अनुष्ठानपूर्वक मेरी आराधना करने वाले भक्त मुझे प्रिय होंगे। इस मास में अन्नदान, व्रत, तुलसी व्रत, नारियल व्रत, पुरुषोत्तम व्रत, स्नान और तीर्थयात्रा के आयोजन किए जाते हैं।
धार्मिक संगठनों और मंदिरों में विशेष उत्सव और प्रवचन सभाएं आयोजित की जाती हैं, जिनके माध्यम से लोग पुरुषोत्तम मास की महिमा का आनंद लेते हैं। इस मास में जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। इस मास में श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीराम कथा वाचन और विष्णु भगवान की उपासना की जाती है। गायत्री महामंत्र, महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप, शिव आराधना, शिवाभिषेक करने का इस माह में अपना अलग ही महत्व है। पुरुषोत्तम मास में कथा पढ़ने, सुनने से भी बहुत लाभ प्राप्त होता है। इस मास में धरती पर शयन, एक ही समय भोजन करने से अनंत फल प्राप्त होते हैं।
अधिकमास चंद्र वर्ष का अतिरिक्त भाग होता है, जो कि 32 माह, 16 दिन और 8 घंटे के अंतर से बनता है। सूर्य और चंद्र वर्ष के बीच इसी अंतर को पाटने या संतुलन बनाने के लिए अधिकमास लगता है। इसे ही मलमास कहते हैं
वृक्षारोपण के लिए अनुकूल वातावरण होने के कारण इस माह में तुलसी अर्चना करने, वृक्षारोपण कर धरती को हरियाली से भरने का विशेष महत्व बताया गया है। अखिल विश्व गायत्री परिवार की ओर से बाल वाटिका का विशेष कार्य प्रारंभ हुआ है। इसमें बच्चों को वृक्षारोपण के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित किया जाता है। पुरुषोत्तम मास में भागवत कथा के साथ-साथ भक्तों को गंगा शुद्धि-सरोवर शुद्धि एवं समस्त जलस्रोत शुद्धि के लिए संकल्पपूर्वक प्रयास करना चाहिए।
पुरुषोत्तम मास में दीपदान, वस्त्र एवं श्रीमद्भागवत कथा ग्रंथ दान करने का विशेष महत्व है। इस मास में दीपदान करने से धन-वैभव में वृद्धि होने के साथ ही पुण्य लाभ प्राप्त होता है। इसलिए पूरे महीने प्रात: एवं सायं दीपदान अवश्य करें। जहां भी कथा आदि का आयोजन हो वहां आयोजक-कथावाचक दीपदान अवश्य करें। दीपक की प्रेरणा अप्प दीपो भव, ऊर्जावान रहना, दूसरों को प्रकाशित करना, कम साधनों में भी प्रकाश फैलाना, ज्ञान रूपी दीपक जलाने जैसे भाव के साथ दीपदान करें।
पुरुषोत्तम मास हमें अपनी आत्मा की गहराइयों को खोजने, अपनी भावनाओं को स्पष्ट करने और भगवान के प्रति आदर्श प्रेम की भावना को बढ़ावा देने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए, हमें इस महीने का महत्व समझना चाहिए और पुरुषोत्तम मास के आयोजन का अनुसरण करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास धार्मिकता, नैतिकता, आध्यात्मिकता और पवित्रता रूपी महाकुंभ के समान है। इसे आराधना, साधना, समर्पण और भक्ति के माह के रूप में माना जाता है। यह हमें आत्मा के साथ संवाद, समर्पण, आनंद और शांति का अनुभव कराता है। अथर्ववेद में इस मास को भगवान का आवास स्थल बताया गया है। शिवपुराण में इस मास को भगवान शिव का स्वरूप कहा गया है। मासानामधिमासस्त्वं व्रतानां त्वं चतुर्दशी। अर्थात् हे महाकाल! आप महीनों में अधिमास एवं व्रतों में चतुर्दशी (शिवरात्रि) व्रत हैं। इसलिए इस मास में प्रत्येक सनातनी को धर्म-कर्म के लिए समय निकालना ही चाहिए।
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