दुनिया के 22 देशों में पीने के पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक और नाइट्रेट घुले हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि भारत के 19 राज्यों के 230 जिÞलों और 14,132 बस्तियों की बड़ी आबादी इसी कारण हड्डियों और दांतों की खराबी से जूझ रही है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े देश के 18 शोधकर्ताओं ने 2023 में प्रकाशित अपने शोध में पश्चिमी राजस्थान में गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों के वजन पर फ्लोरोसिस के बुरे असर का खुलासा किया है। फ्लोराइड के खात्मे के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों पर भी इस शोध में कहा गया है कि इन्हें प्रभावी बनाने के लिए गंभीरता से काम करना होगा।
स्वास्थ्य केंद्रों और ग्राम पंचायतों में पूछताछ करने पर, यह जरूर पता लगा कि पानी की नियमित जांच की प्रक्रिया बनी है। मगर, पहले से फ्लोराइड का दंश झेल रहे लोगों की यह अपेक्षा भी है कि कोई उनका हाल-चाल पूछने तो आये, स्वास्थ्य शिविर लगें, दवाएं दी जाएं। सिर्फ़ दिलासा नहीं, असल हल निकले। जनता के दुख-दर्द से शासन की दूरी और नेताओं का चुनाव के बाद नदारद रहना, आम शिकायत है।
दुनिया के 22 देशों में पीने के पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक और नाइट्रेट घुले हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि भारत के 19 राज्यों के 230 जिÞलों और 14,132 बस्तियों की बड़ी आबादी इसी कारण हड्डियों और दांतों की खराबी से जूझ रही है। राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश में फ्लोराइड खतरनाक मात्रा में है जबकि महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी प्रभावित इलाके हैं, और तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम में भी इसका कुछ असर है।
एक लीटर पानी में डेढ़ मिलीग्राम से ज्यादा फ्लोराइड घुला हो तो वह स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाता है। एल्युमीनियम और माइका के खनन वाले इलाके फ्लोराइड के गढ़ हैं। राजस्थान के करीब सभी जिÞलों में फ्लोराइड की समस्या है। गांव के गांव हैं, जहां लोग आस्टियोआर्थराइटिस, जोड़ों की तकलीफ, दांतों के पीलेपन, खून की कमी जैसे रोगों की चपेट में हैं। दांत और हड्डियों के टेढ़ेपन के कारण, खराब पानी वाली इस पूरी बेल्ट को कभी ‘बांकापट्टी’ कहा जाता था, अब यह बात भी लोक-स्मृति से ओझल है, हालांकि समस्या अभी खत्म नहीं हुई है।
जागरूकता से छुटकारा
आईआईटी जोधपुर में ग्रामीण तकनीक पर काम कर रहे एसोसिएट प्रोफेसर आनंद पिल्लै का कहना है कि फ्लोराइड के असंतुलन से दांत और हड्डी के साथ स्नायु तंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है। एक लीटर पानी में फ्लोराइड अगर 0.1 मिलीग्राम से कम हो तो दांत सड़ने लगते हैं, डेढ़ मिलीग्राम से ज्यादा होने पर दांतों में फ्लोरोसिस हो जाता है, 4 मिलीग्राम होने पर आॅस्टियोपोरोसिस यानी हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और 10 मिलीग्राम से ज्यादा होने पर स्केलेटल फ्लोरोसिस यानी हड्डियों के टेढ़े होने के लक्षण दिखने लगते हैं। सही मात्रा में फ्लोराइड दांतों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, इसीलिए इसकी कमी होने पर पानी में सिलिकोफ्लोराइड मिलाना पड़ता है। स्वास्थ्य की इस गंभीर समस्या से समुदायों को प्रशिक्षित और जागरूक करके ही छुटकारा पाया जा सकता है।
सांसद के सीधे सवाल
अर्थव्यवस्था और नीतियों के नजरिये से देखें तो भारत की बड़ी आबादी की ‘शिक्षा-स्वास्थ्य-पानी’ की आधारभूत जरूरत को पूरा करने में गुणवत्ता पर समझौता करना पड़ता है। गुणवत्ता हासिल करने के लिए उसमें होने वाले निवेश का सवाल बड़ा लगता है और निवेश भी मुहैया हो तो फिर उसके सही इस्तेमाल में अभी ढेरों खामियां हैं। देश में पानी को घर-घर पहुंचाने का अभियान तो जोरों पर है, लेकिन साथ ही बात है पेयजल में घुली अशुद्धियों की। यह छोटी बात इसलिए नहीं कि बरसों से जारी कुछ प्रयासों पर तो अलसाया-बेरुखा शासन खुद ही पानी फेरता रहा है। जनता और ग्राम पंचायतों की भी जिम्मेदारी तय है और जन-स्वास्थ्य और अभियान्त्रिकी महकमों की तो है ही। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को हर महीने पानी के सैंपल जांच के लिए देने के आदेश तो हैं, लेकिन उसके आगे क्या?
फ्लोराइड को लेकर पेशे से डॉक्टर, राजस्थान के सांसद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ने जल शक्ति मंत्रालय से ये सवाल पूछे कि- हर जिÞले में कितने लोग पानी में घुले आर्सेनिक, फ्लोराइड, आयरन, खारापन और नाइट्रेट की वजह से स्वास्थ्य के खतरे झेल रहे हैं? भारत सरकार ने इसके लिए क्या किया है?
जलस्तर बढ़ाने के लिए जल-संरक्षण संरचनाओं की संख्या बढ़ाने की खातिर सरकार ने क्या कदम उठाये हैं? इस पर फरवरी, 2023 में सरकार ने यह जवाब दिया – जल जीवन मिशन में राज्यों को 10 प्रतिशत बजट सिर्फ़ रसायन से प्रदूषित पानी पर ध्यान देने के लिए दिया जा रहा है। साल 2017 में ही सरकार ने ये निर्देश दिये थे कि ज्यादा फ्लोराइड वाले इलाकों में सामुदायिक जल शोधन संयंत्र लगाए जाएं और हर व्यक्ति को प्रतिदिन के हिसाब से 8-10 लीटर पीने का शुद्ध पानी मिले। जवाब में यह भी बताया गया कि देश में 2019 में 57,539 बस्तियों का पानी इन अशुद्धियों से भरपूर था, जिनमें से चार साल में 36,774 बस्तियों में शुद्ध पानी पहुंच चुका है।
साल 2019 तक आर्सेनिक का 14,020 और फ्लोरोसिस का 7996 बस्तियों में असर था, जबकि अब सिर्फ दर्जन भर बस्तियां बाकी हैं जहां पानी की ये अशुद्धियां दूर नहीं हुई हैं। देश में फ्लोरोसिस के खात्मे का राष्ट्रीय कार्यक्रम 2009 से जारी है। नीति आयोग ने 2015-16 में, एक हजार करोड़ रु. राजस्थान और पश्चिम बंगाल को इसी काम के लिए दिये। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में भी फ्लोरोसिस निशाने पर है जिसमें सामुदायिक स्तर पर इसकी पहचान, अस्पतालों में जांच, सर्जरी, मरीज पुनर्वास और स्वास्थ्य जागरूकता की बात शामिल है।
आंकड़ों ने उगला सच
पानी और जन-स्वास्थ्य दोनों राज्यों के मसले हैं, इसलिए फ्लोराइड के मसले को सुलझाना राज्यों का दायरा है। पानी संविधान की राज्य सूची की प्रविष्टि 17, पानी के नियमन-विकास से जुड़े मामले संघ सूची की प्रविष्टि 56 और राज्यों के आपसी विवाद-नदी तंत्र, अनुच्छेद 262 के दायरे में हैं। फ्लोरोसिस से छुटकारा पाने के लिए बने राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीपीसीएफ) के 2014 में बने नये दिशानिर्देशों में, चरणबद्ध तरीके से समस्या की समय पर पहचान, जांच और निगरानी के साथ जागरूकता का खाका है। जहां केंद्र की मदद भरपूर है, वहीं राज्यों में पानी और जन-स्वास्थ्य के कार्यक्रमों के कमजोर क्रियान्वयन की वजह से खास तौर से कस्बाई और ग्रामीण इलाके बेहाल हैं। राजस्थान के ही पाली, सिरोही, नागौर और जयपुर जिलों के आस-पास शहर से जरा दूर निकलते ही, दोहरी कमर, पीले दांत, वाले लाठी लेकर चलते लोग दिख जाएंगे।
राज्य के अलवर, बासवाड़ा, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, दौसा, पाली, सीकर, झुंझुनू के इलाकों में स्थिति ज्यादा खराब है। तर्क यह भी है कि ये पहले के मामले हैं, नये मामले नहीं हैं। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि नये मामले भी लगातार आ रहे हैं और बच्चों सहित गर्भवती महिलाएं भी इसकी चपेट में हैं। आंकड़ों में बताया जा रहा है कि राजस्थान के फ्लोराइड के असर वाले 4,177 इलाकों में से 4161 में साफ पानी पहुंचा दिया गया है। सरकार ने पूरे देश का यह आंकड़ा भी दिया है कि फरवरी 2023 तक, 45 लाख से ज्यादा पानी के नमूने प्रयोगशाला में और 79 लाख से ज्यादा नमूने फील्ड टेस्टिंग किट से जांचे जा चुके हैं। पानी और तकनीक के जानकार लोग बताते हैं कि फ्लोराइड से छुटकारा पाने के कई प्रभावी तरीके हैं, लेकिन उस तकनीक को अपनाने के बाद ठीक से संचालन-क्रियान्वयन हुए बगैर, नतीजे नहीं आते।
पानी में अशुद्धियां
देश के अलग-अलग हिस्सों में पानी में अलग-अलग अशुद्धियां घुली हैं। इनमें सबसे ज्यादा 12 राज्यों में नाइट्रेट की, 9 राज्यों में फ्लोराइड की, 4 तटीय इलाकों सहित 9 में खारेपन की, 7 में लोहे, 5 में क्लोराइड, 3 में जिंक, और एक-एक राज्य में आर्सेनिक, सल्फाइट और क्रोमियम की समस्या है।
खारा पानी, मीठे वादे
जून की भारी गर्मी में जयपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर खजूरिया गांव के एक हैंडपंप पर दर्जन भर महिलाएं और बच्चे पानी भरते मिले। पूछा तो सबने पानी की किल्लत और तकलीफ बताई।
कैलाशी अपनी बेटी साक्षी और ममता भी बच्चों के साथ, दिन भर में पानी भरने के लिए 3-4 चक्कर लगाती हैं। सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले हेमंत ने बताया कि स्कूल में पीने का पानी नहीं है, इसलिए यहीं हैंडपंप पर आते हैं पानी भरने। उनकी विधानसभा चाकसू के विधायक आये थे स्कूल में और वादा भी किया था स्कूल में पानी की व्यवस्था का, लेकिन कुछ नहीं किया। ममता बताती हैं कि गांव में बीसलपुर का पानी लाने के लिए लाइन डाल दी गई लेकिन अभी तो नल में पानी आता ही नहीं, और बाकी पानी खारा ही है, इसलिए पीने के पानी के लिए डेढ़-दो किलोमीटर दूर यहीं आना पड़ता है, सुबह शाम।
यह वही इलाका है, जहां आस-पास की ढाणियों में फ्लोरोसिस के कारण टेढ़ी हड्डियों के कारण, लाठी के सहारे ही जिंदगी बसर हो रही है। वक्त से पहले बूढ़े हो गए, 30-50 की उम्र के युवा इन गांवों में कोई भविष्य नहीं देखते। देश भर में राजस्थान के ही सबसे ज्यादा इलाके हैं जहां पानी की गुणवत्ता खराब है। फ्लोराइड वाली 168 बस्तियों में से 16 में पानी साफ करने वाले सामुदायिक संयंत्र नहीं हैं। वनवासी जिÞले बांसवाड़ा के फ्लोराइड वाले सभी 11 इलाके पूरी तरह अछूते हैं।
दौसा जिले के 14 में से 10, और पाली के 10 में से 9 इलाकों में पानी की सफाई की व्यवस्था है। बड़ी समस्या खारे पानी की है। सबसे ज्यादा बाड़मेर की 8558, जोधपुर की 504 और भरतपुर की 429 बसाहटों सहित कुल 9750 का पानी खारा है, यानी पीने लायक नहीं है। प्रदेश में नाइट्रेट की अशुद्धि वाली बस्तियां 461 भी हैं। नाइट्रेट वाली रासायनिक खाद इस अशुद्धि का मुख्य स्रोत हैं, और एक लीटर पानी में 10 मिलीग्राम से ज्यादा नाइट्रेट घातक है, जो लीवर, आंत और दिल पर असर डालता है। नाइट्रेट, थायरॉइड और कैंसर जैसी बीमारियों का कारण भी है।
समाधान आसान, फिर भी…
जहां जमीन का पानी नीचे गहरे चला गया है, वहां फ्लोराइड की अशुद्धि की आशंका बढ़ गई है। जरूरत से ज्यादा फ्लोराइड, कैल्शियम और आयरन की कमी पैदा कर देता है। इसलिए खान-पान की आदतों में सुधार जरूरी है। पीने और खाना बनाने के लिए फ्लोराइड वाले इलाकों में बारिश के पानी को सहेजने और उसे काम में लेने को कहा जाता है।
इसके लिए सरकार के ‘कैच द रेन’ कार्यक्रम के तहत बारिश के पानी को सहेजने के लिए 2022-2023 के दौरान बनायी 75 हजार संरचनाओं का हवाला भी दिया गया है। साथ ही कृत्रिम तरीके से पानी का भराव भरपूर रहे, इसके लिए चेक डैम, एनिकट आदि के आंकड़े भी सरकार के पास हैं। देश भर की फिक्र यह भी है सिर्फ पानी ही नहीं, खान-पान में मिला काला और सेंधा नमक, यानी रॉक साल्ट भी फ्लोराइड की मात्रा को बढ़ा रहा है। जरूरत से ज्यादा फ्लोराइड के साथ जी रही आबादी के खाने में कैल्शियम सही मात्रा में रहे, यह जरूरी है।
मैग्नीशियम ठीक रहे तो वह भी कैल्शियम को शरीर में सोखने में मदद करता है। इसके अलावा विटामिन सी और एंटीआक्सिडेंट रोजमर्रा के खाने का हिस्सा बने रहें तो यह फ्लोराइड को शरीर में घुलने से रोकते हैं। आईआईटी खड़गपुर ने पश्चिम बंगाल और बिहार के इलाकों में लाल मिट्टी यानी ‘रेड मड’ तकनीक से फ्लोराइड नियंत्रण पर अच्छा काम किया है। सक्रिय कार्बन तकनीक, अलुमिना आयन एक्सचेंज, फ्लोराइड संतुलन के लिए तैयार सामुदायिक जांच संयंत्र, अब आम उपयोग में हैं।
‘नलगोंडा तकनीक’ में काम में ली जाने वाली फिटकरी सहित और भी कई तरीके हैं जिन्हें जरूरत के हिसाब से अपनाया जाता है। नलगोंडा असल में तेलंगाना राज्य का वह इलाका है जहां 1937 में फ्लोराइड के खतरे का देश का पहला मामला सामने आया था। यहां 2014 में ‘आपरेशन भागीरथ’ चलाकर फ्लोरोसिस के सफाये का लक्ष्य बनाया गया और साल 2020 में तेलंगाना देश का पहला फ्लोरोसिस मुक्त राज्य बन गया।
देश के कोने-कोने तक साफ पानी की पहुंच चुनौती तो है, मगर तकनीक और सामुदायिक भागीदारी का तालमेल रहे, और स्वास्थ्य के ये गंभीर मसले राज्यों के स्तर पर, राजनीति और प्रशासनिक अनदेखी से मुक्त रहें, तो पानी के ये दाग जल्द धोना आसान होगा।
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