मुस्लिम महिलाओं ने हिजाब, निकाह और तलाक पर की खुलकर बात, कानून हो एकसमान

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सोनाली मिश्रा

समान नागरिक संहिता को लेकर इन दिनों तमाम तरह के प्रश्न हैं, तरह-तरह के सर्वे हो रहे हैं और कई तरह की बातें भी हो रही हैं और इसे एकदम से जैसे मुस्लिम विरोधी बताया जाने लगा है। परन्तु क्या यह मुस्लिम विरोधी है या फिर मुस्लिम महिलाओं की चाह कुछ अलग है।

news18 द्वारा समान नागरिक संहिता को लेकर कराए गए सर्वे से बहुत ही चौंकाने वाले परिणाम निकलकर आए हैं। यह परिणाम इसलिए चौंकाने वाले हैं क्योंकि महिलाओं ने वह बिलकुल नहीं कहा है, जिसकी अपेक्षा एक बड़ा वर्ग कर रहा था। यह परिणाम इसलिए भी चौंकाने वाले हैं क्योंकि यह मुस्लिम महिलाओं का वह चेहरा दिखाते हैं, जिसे हिजाब विवाद के चलते पिछड़ा दिखाने का प्रयास किया गया था।

महिलाओं ने हिजाब, शादी और तलाक पर खुलकर बात की और उदार चेहरा दिखाया।  जहां आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना था कि “बहुसंख्यक नैतिकता” को धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं करना चाहिए तो वहीं मुस्लिम महिलाएं इस विषय में क्या कहती हैं, यह जानना बहुत ही रोचक है। इस सर्वे में प्रश्न किया गया था कि क्या आप सभी पुरुष और महिलाओं के लिए शादी की कानूनी उम्र को 21 वर्ष करने का समर्थन करते हैं ?

तो सर्वे में 78.7% मुस्लिम महिलाएं यह सोचती हैं कि 21 वर्ष ही सभी पुरुष और महिलाओं के लिए निकाह के लिए कानूनी उम्र होनी चाहिए।

इस सर्वे के अनुसार 18-44 आयु वर्ग में, 80.1% (5,040) ने ‘हां’ कहा, 15.8% (995) ने ‘नहीं’ कहा, और 4.1% (260) ने कहा ‘पता नहीं या कह नहीं सकते’ 44+ आयु वर्ग के लोगों के मामले में, 73.6% (1,280) ने ‘हां’ कहा, 19.7% (342) ने ‘नहीं’ कहा, और 6.7% (118) ने कहा ‘पता नहीं या कह नहीं सकते’।

इस सर्वे में विभिन्न क्षेत्रों की 8 हजार से अधिक महिलाओं ने भाग लिया था। उनकी शैक्षणिक, वैवाहिक एवं आर्थिक स्थिति एकदम अलग अलग थी।

इस सर्वे में भारत के लगभग सभी राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, चंडीगढ़, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, लद्दाख, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पुडुचेरी, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की महिलाएं सम्मिलित थीं एवं इस सर्वे में लगभग सभी भाषाओं का प्रतिधित्व था।

इसके साथ ही मुस्लिम पुरुषों की एक से अधिक शादियों का भी मुस्लिम महिलाओं ने विरोध किया। सर्वे में यह प्रश्न जब पूछा गया कि क्या वह मुस्लिम पुरुषों को चार शादी का अधिकार दिया जाना चाहिए ?

चूंकि यह ऐसा प्रश्न है, जिसे लेकर बहुत अधिक चर्चा नहीं होती है, और होती भी है तो यह कह दिया जाता है कि भारत में आमतौर पर एक ही शादी मुस्लिम पुरुष करते हैं। मगर ऐसा नहीं है, कई मामले सामने आते हैं, जिनमें मुस्लिम पुरुष एक से अधिक शादी करते हैं, तो इस प्रश्न के उत्तर में सर्वे की गयी महिलाओं में से स्नातक या उससे अधिक पढ़ाई कर चुकी 76.5 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं ने इसके विरोध में मत दिया।

इस प्रश्न के विरोध में लगभग सभी उम्र की महिलाओं ने नकारात्मक ही उत्तर दिया।

नेटवर्क 18 के अनुसार मुस्लिम महिलाओं को यह नहीं बताया गया था कि यह प्रश्न समान नागरिक संहिता को लेकर है। उनसे उन्हीं समस्याओं पर प्रश्न किए गए, जो उनके जीवन और समुदाय से जुड़ी थीं। इस सर्वे में यह भी पाया गया कि जिन महिलाओं से प्रश्न किए गए थे, उनमे से 67% महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होनें सभी भारतीयों के लिए एक समान कानून की बात की।

एक से अधिक शादियों पर मुस्लिम महिलाओं का विरोध होना एक शादी की ओर बहुत ही सशक्त विचार उत्पन्न करता है, क्योंकि मुस्लिम पुरुषों की एक से अधिक शादियों की जब बात आती है तो यह विचार एक बहुत बड़े तबके की ओर से आता है कि जब मुस्लिम महिलाओं को इससे समस्या नहीं है तो औरों को समस्या क्यों है ?

यहां तक कि संपत्ति में मुस्लिम पुरुषों के समान अधिकार पाने के लिए भी लगभग 82% मुस्लिम महिलाओं ने कहा। यहां इस विषय को उस मामले से देखा जा सकता है, जिसमें केरल में एक वकील सी शुक्कुर ने अपनी ही बीवी से विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत इसलिए दोबारा शादी की थी जिससे उनकी बेटियों को उन्हीं की संपत्ति पूरी मिल सके।

क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार बेटियों को अपने पिता की संपत्ति का केवल दो तिहाई हिस्सा मिलता है और शेष हिस्सा उनके भाइयों के पास जाता। मगर उनके कोई बेटा नहीं है और वह अपनी बेटियों को ही अपनी सारी जायदाद देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया था।

तो क्या यह माना जाए कि कुछ लोग जो समान नागरिक संहिता का विरोध यह कहते हुए कर रहे हैं कि यह मुस्लिम विरोधी है, वह मात्र अपना एजेंडा चला रहे हैं और तमाम मुस्लिम महिलाओं की आवाज को अनसुना कर रहे हैं?

इस सर्वे में एक और महत्वपूर्ण बात निकलकर आई कि तलाकशुदा जोड़ों को बिना किसी प्रतिबन्ध के आपस में ही दोबारा शादी करने की आजादी होनी चाहिए। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हलाला निकाह का दर्द कोई भी नहीं उठाना चाहता है। हलाला पर तो बात ही नहीं होती है। न ही महिला मुद्दों के ठेकेदारों द्वारा और न ही प्रगतिशीलता के ठेकदारों द्वारा। मुस्लिम महिलाओं ने हलाला निकाह का विरोध किया, क्योंकि यह महिलाओं के लिए एक शोषण का ही माध्यम है।

इस सर्वे की बातों पर गौर किया जाए तो यह समझ में आएगा कि कहीं न कहीं सुधार की आस मुस्लिम महिलाओं में खुद भी है और वह चाहती हैं कि उनके विषय हिजाब की अनिवार्यता तक न सिमट कर जाएं और वह चाहती है कि मीडिया में उनके विषय जाएं। वह परिवर्तन को अपनाने के लिए तैयार हैं, वह परिवर्तन की बाट जोह रही हैं और जैसा यह सर्वे कहता है कि वह चाहती हैं कि उन्हें भी उसी दृष्टि से देखा जाए, जैसा शेष समुदायों की महिलाओं को देखा जाता है।

 

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