भाजपा सरकार ने जब कानून हटाने की बात कही थी, तब कांग्रेस के डीके शिवकुमार ने इसे ‘ऐतिहासिक भूल’ करार दिया था। इसी तरह, उत्तराखंड में भी भाजपा सरकार ने मंदिरों पर नियंत्रण वाले चारधाम देवस्थानम कानून को निरस्त कर दिया है।
आजादी के बाद से ही सनातन आस्था केंद्रों के आचार-विचार, पौरोहित्य और दान पर सरकारों की गिद्ध दृष्टि रही है। इसके पीछे तर्क था सेकुलरिज्म। सेकुलर वर्ग मस्जिदों, चर्च आदि पर अधिकार करने से डरता था, क्योंकि वे संगठित थे और सनातन असंगठित था। तमिलनाडु में 46,021 मंदिर सरकार के नियंत्रण में हैं, जबकि कर्नाटक में 34,558 मंदिर सरकार के अधीन थे। कर्नाटक में बसवराज बोम्मई की अगुआई वाली भाजपा सरकार ने मंदिरों पर अवैध अधिकार वाले मुरजई कानून को निरस्त कर दिया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने इस कानून को फिर से लागू करने की बात कही है। 2021 में भाजपा सरकार ने जब कानून हटाने की बात कही थी, तब कांग्रेस के डीके शिवकुमार ने इसे ‘ऐतिहासिक भूल’ करार दिया था। इसी तरह, उत्तराखंड में भी भाजपा सरकार ने मंदिरों पर नियंत्रण वाले चारधाम देवस्थानम कानून को निरस्त कर दिया है।
बीते कुछ वर्षों में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग तेज हुई है। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार सनातन आस्था केंद्रों पर सरकारी नियंत्रण के विरुद्ध फैसला दे चुका है। इसी वर्ष शीर्ष अदालत ने आंध्र प्रदेश सरकार की अहोबिलम मठ के नियंत्रण से जुड़ी एक याचिका को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि धार्मिक स्थलों को धार्मिक व्यक्तियों के ही अधीन रहना चाहिए। यही नहीं, उसने सनातन आस्था स्थलों पर सरकारी नियंत्रण के विरुद्ध याचिकाओं पर केंद्र और सभी राज्य सरकारों से जवाब भी मांगा है।
तमिलनाडु की द्रमुक सरकार दीक्षितरों को प्रताड़ित कर उन्हें रास्ते से हटाना चाहती है, ताकि मंदिर को अपने अधीन लेकर उसकी संपत्ति का दोहन कर सके
एक पुस्तक है- Crimes Against India and the need to Protect Ancient Vedic Tradition. इसके लेखक हैं स्टीफन कनप्प, जो अमेरिकी मूल के ईसाई थे, लेकिन बाद में उन्होंने सनातन धर्म की दीक्षा ले ली थी। अपनी पुस्तक में उन्होंने मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का मुद्दा उठाया है। वे लिखते हैं कि विश्व प्रसिद्ध तिरुमला तिरुपति मंदिर सालाना 3,100 करोड़ रुपये एकत्र करता है, जिसका 85 प्रतिशत सरकारी कोष में जाता है। यह राशि उन कार्यों पर खर्च की जाती है, जिनका सनातन आस्था से कोई लेना-देना नहीं है। माना जाता है कि भारत में 9-10 लाख मंदिर हैं, जिनमें से लगभग 4 लाख मंदिर सरकार के अधीन हैं। इनसे राज्य सरकारों को प्रतिवर्ष लगभग एक लाख करोड़ रुपये की कमाई होती है। इनमें से मात्र 15-18 प्रतिशत राशि ही सनातन आस्था केंद्रों पर खर्च होती है, शेष राशि सरकारें अपने मनमाने कार्यों में लगाती हैं। यह कैसा सेक्लुरिज्म है?
मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की शुरुआत औपनिवेशिक काल में ही हो गई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे वाले इलाकों में मंदिरों, मस्जिदों और चर्चकी जमीन को कंपनी की संपत्ति घोषित कर दिया तो ईसाई मिशनरियों ने इसका विरोध किया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने शासन अपने हाथों में ले लिया। महारानी की सत्ता को जनहितैषी दिखाने के लिए अंग्रेज सरकार ने 1863 में धार्मिक प्रबंधन अधिनियम बनाया, जिसके तहत धार्मिक स्थलों में सरकार के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी गई। इसका सीधा तर्क था- राजसत्ता और धर्मसत्ता अलग-अलग रहेंगे। हालांकि इसके पीछे ईसाई मिशनरी और चर्च के विस्तार की आकांक्षा अधिक थी, न कि सनातन परंपरा के प्रति सम्मान का भाव। 1925 तक यही व्यवस्था रही।
मंदिर-मठ प्राचीन काल से ही न केवल आस्था के केंद्र रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ भी रहे हैं। भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में मंदिर-मठ वास्तविक संपत्ति हैं, जो सामाजिक परिवेश में बने रहने के लिए संसाधन जुटाते हैं, लोगों को रोजगार देते हैं और अपनी गतिविधियां बढ़ा कर बड़ी अर्थव्यवस्था का सृजन भी करते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के तीव्र होने के साथ 1919 में कथित राजनीतिक व प्रशासनिक सुधार लागू हुए। राज्यों में विधायिका बनीं और उन्हें कर-संग्रह का अधिकार मिला तो मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के प्रयास शुरू हो गए। इसके बाद 1926 में मद्रास रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट एक्ट के तहत मद्रास की प्रांतीय प्रांतीय सरकार ने बोर्ड बनाकर राज्य के धार्मिक स्थलों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। जब मुस्लिमों, पारसियों और ईसाइयों ने विरोध किया तो उन्होंने चर्च और मस्जिदों को छोड़ दिया। सिखों के लिए गुरुद्वारा प्रबंधन समिति बनाकर उसे भी कर मुक्त रहने दिया। लेकिन हिंदू दमन जारी रहा। आजादी के बाद नया संविधान लागू हुआ और इसके एक वर्ष बाद ही संसद में हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट एक्ट-1951 पारित हुआ। लेकिन मस्जिदों और चर्च को अछूता रखा गया। इस कानून की धारा 23 के तहत सरकार किसी भी मंदिर को अपने अधीन ले सकती है, जबकि इसकी धारा 25 मंदिर संचालन के लिए प्रबंधन समिति को कई शक्तियां प्रदान करती है।
हिंदू संस्थान एवं धर्मार्थ प्रबंधन अधिनियम-1951 के तहत राज्य सरकारें कानून बनाकर मंदिरों को नियंत्रण में ले सकती हैं और दूसरे मत-मजहब के व्यक्ति को मंदिर का प्रशासक, प्रबंधक और अध्यक्ष बना सकती हैं। ये न सिर्फ मंदिरों की परंपराओं में हस्तक्षेप कर सकते हैं, बल्कि मंदिरों के धन का इस्तेमाल किसी भी काम के लिए कर सकते हैं। वे मंदिरों की जमीन बेच सकते हैं। तमिलनाडु सरकार ने इसी कानून का दुरुपयोग कर हिंदू दान धर्म एक्ट 1959 बनाया और राज्य के 35,000 मंदिरों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद केरल, आंध्र प्रदेश, पुद्दुचेरी, कर्नाटक, ओडिशा सहित 15 राज्यों ने कानून बनाकर 4 लाख मंदिरों-मठों पर नियंत्रण कर लिया।
मंदिरों से राज्य सरकारों को हजारों करोड़ रुपये की कमाई होती है। चर्च और मस्जिद स्वतंत्र हैं। न तो उन पर सरकार का नियंत्रण है और न ही वे सरकार को पैसे देते हैं, उलटा सरकार ही मुस्लिमों और ईसाइयों पर पैसे खर्च करती है। कई सरकारें इमामों-मौलवियों को वेतन देती हैं। लेकिन मंदिरों के पुजारियों को कुछ नहीं देतीं।
मंदिर-मठ प्राचीन काल से ही न केवल आस्था के केंद्र रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ भी रहे हैं। भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में मंदिर-मठ वास्तविक संपत्ति हैं, जो सामाजिक परिवेश में बने रहने के लिए संसाधन जुटाते हैं, लोगों को रोजगार देते हैं और अपनी गतिविधियां बढ़ा कर बड़ी अर्थव्यवस्था का सृजन भी करते हैं।
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