लोकतंत्र के नाम पर, लोकतंत्र की हत्या

तिजोरी की चाबी किसे सौंपी जाए, तिजोरी के आधार पर राजनीति कैसे चले और राजनीति के आधार पर तिजोरी कैसे चले-यही दुष्चक्र वंशवाद को जन्म देता है

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हितेश शंकर

कुछ राजघराने, कुछ दरबारी हाल ही में ‘लोकतंत्र’ को बचाने के लिए पटना में मिले थे, फिर कुछ चुनिंदा राजघराने एवं दरबारी बेंगलुरू में मिलने वाले थे, लेकिन एक अन्य राजघराने पर आए संकट को देखते हुए उनकी बैठक स्थगित हो गई।

लोकतंत्र की हत्या करने के इरादे से लोकतंत्र के ही नाम की छुरी बनाना सिर्फ विडंबना या विद्रूपता नहीं, बल्कि आम लोगों को गुलाम समझने की मानसिकता का सबसे मुखर प्रकरण है। कुछ दिनों पूर्व दुबई में पाकिस्तान के दो सबसे शक्तिशाली राजनीतिक राजवंशों के प्रमुखों और उनके वंशजों की एक बैठक हुई थी। इसमें कथित तौर पर यह तय किया गया कि वहां चुनाव के पहले जो कार्यवाहक व्यवस्था बनानी होती है, वह क्या होगी और इन दोनों घरानों के गठबंधन के तहत क्या होगा, जिसे ‘पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट’ कहा जाता है।

माने राजघरानों ने अपना नाम डेमोक्रेटिक मूवमेंट रखा और फिर दरबार लगाकर फैसला किया कि जम्हूरियत कैसी रहेगी। लेकिन वास्तव में इसे लेकर हमें पाकिस्तान का उपहास करने का कोई अधिकार नहीं है। भारत में, माने विखंडित भारत के इस तरफ वाले हिस्से में भी यही सब होता रहा है। कुछ राजघराने, कुछ दरबारी हाल ही में ‘लोकतंत्र’ को बचाने के लिए पटना में मिले थे, फिर कुछ चुनिंदा राजघराने एवं दरबारी बेंगलुरू में मिलने वाले थे, लेकिन एक अन्य राजघराने पर आए संकट को देखते हुए उनकी बैठक स्थगित हो गई।

अगर ऐसे राजघरानों और दरबारियों से लोकतंत्र परिभाषित होगा, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हम अपने लोकतंत्र को पाकिस्तान जैसा बनाना चाहते हैं? इस उपमहाद्वीप की परिवार-वर्चस्व वाली सत्ता राजनीति की शक्ति संरचना को बारीकी से समझना जरूरी है। यह जितनी दासताबोध पर आधारित और स्वामीबोध से संचालित है, उतनी ही भ्रष्टाचार से उत्प्रेरित भी है। यह बात विचारणीय है कि इस तरह का वंशवाद विशेष तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप में क्यों सबसे ज्यादा स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है, जहां वंशवाद को राजनीति का पर्याय मान लिया गया था।

क्या इसलिए कि सदियों की औपनिवेशिक गुलामी के कुछ तंतु कुछ लोगों की मानसिकता में बस गए हैं, और यह उनका दोहन और शोषण करने की कोशिश है? क्या कुछ लोग सिर्फ इस कारण प्रतिगामी किस्म की बातें करते हैं क्योंकि उन्हें अपना स्वार्थ इसी में दिखता है कि लोग गुलामी की मानसिकता में जीते रहें? यदि इसका लेशमात्र भी सच है, तो इसका अर्थ यह है कि इस उपमहाद्वीप को अभी अपनी स्वतंत्रता की आंतरिक लड़ाई और लड़नी होगी।

इस आशय के कुछ शोध और अध्ययन उपलब्ध हैं, जिनमें पाया गया है कि वंशवादी राजनीति की जड़ें भ्रष्टाचार जनित राजनीति में होती हैं। तिजोरी की चाबी किसे सौंपी जाए, तिजोरी के आधार पर राजनीति कैसे चले और राजनीति के आधार पर तिजोरी कैसे चले-यही दुष्चक्र वंशवाद को जन्म देता है। हालांकि कानूनी कारणों से और अतिगोपनीय किस्म के सौदों को सिद्ध कर सकने की भारी-भरकम चुनौती को देखते हुए ऐसे शोध में किसी का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन कुछ बातें स्वयं स्पष्ट होती हैं और कुछ अपराध बिना सबूत के अपराधी का नाम चीख चीख कर बता देते हैं।

ऐसे राजघरानों और दरबारियों से लोकतंत्र परिभाषित होगा, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हम अपने लोकतंत्र को पाकिस्तान जैसा बनाना चाहते हैं? इस उपमहाद्वीप की परिवार-वर्चस्व वाली सत्ता राजनीति की शक्ति संरचना को बारीकी से समझना जरूरी है। यह जितनी दासताबोध पर आधारित और स्वामीबोध से संचालित है, उतनी ही भ्रष्टाचार से उत्प्रेरित भी है। यह बात विचारणीय है कि इस तरह का वंशवाद विशेष तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप में क्यों सबसे ज्यादा स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है, जहां वंशवाद को राजनीति का पर्याय मान लिया गया था।

वंशवादी राजनीति में भ्रष्टाचार की अनिवार्यता का यह पक्ष इस बात को भी रेखांकित करता है कि यह राजनीति किस तरह देश के विकास के लिए भी घातक है। किसी भी वंशवादी दल में सिर्फ चेहरों और नामों की जड़ता नजर नहीं आती, बल्कि वंशवाद-परिवारवाद की यह भी मजबूरी है कि वहां चिंतनशून्यता और नीति विहीनता भी बनी रहे। इसी प्रकार जो भी लोग ऐसे दलों का समर्थन करते हैं या ऐसे नेतृत्व का समर्थन करते हैं, वे भी कोई निर्णय अपने विवेक से न ले पाने के लिए भी मजबूर होते हैं। यह स्थिति राजनीति के विकास के लिए भी बड़ा खतरा है, इसे भले ही चाटुकारिता या दरबारी होने की आदत कहकर टाल दिया जाता हो। भारत ने पिछले दशक में जिस नीतिगत पंगुता या ‘पॉलिसी पैरालीसिस’ का सामना किया था, उसे इस परिप्रेक्ष्य में आसानी से समझा जा सकता है।

अच्छी बात यह है कि यह अपराध धारा स्वयं सूखती जा रही है। कम से कम आधा दर्जन वंशवादी राजनीतिक दलों की राजनीतिक हैसियत अब मात्र इस कारण शून्यप्राय हो गई है, क्योंकि उन दलों में ‘दल’ जैसा कुछ बचा ही नहीं है। अपने-अपने घरानों की अकुशल-अयोग्य अगली पीढ़ी को जैसे ही इन दलों पर थोपा गया, तो वहां सिर्फ वंश रह गया, वंशवाद का समर्थन करने वाले भी नहीं बचे। यदि राजनीतिक दलों को पैसा कमाने के उद्देश्य से प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों और परिवार की वंशवादी राजनीति में बदला जाएगा, तो उसका हश्र तो यह होना ही है। यह जितनी जल्दी अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचेगा, देश के लिए उतना ही अच्छा होगा।
@hiteshshankar

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