गुरु भ्रम और अज्ञान के सभी आवरणों को हटा कर शिष्य के अंतस को आत्म ज्ञान की ज्योति से आलोकित कर देते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा ने ही भारत को महान राष्ट्र और विश्व गुरु बनाया
मानवीय चेतना के मर्मज्ञ ऋषियों ने अज्ञान को नष्ट करने वाले ब्रह्म रूपी प्रकाश को ‘गुरु’ की संज्ञा दी है। अद्वैतारक उपनिषद् के 16वें श्लोक में उल्लेख है कि भारत की सनातन संस्कृति ने गुरु को महज व्यक्ति नहीं, वरन् ऐसी मार्गदर्शक सत्ता माना है, जो भ्रम और अज्ञान के सभी आवरण हटाकर शिष्य के अंतस को आत्म ज्ञान की ज्योति से आलोकित कर देता है। आचार्योें के आत्मज्ञान की प्रखर ऊर्जा ने समूचे राष्ट्रजीवन को प्रकाशमान किया तथा सुपात्र शिष्यों के माध्यम से इस दिव्य आत्म विद्या के सतत प्रवाहमान बने रहने की व्यवस्था भी सुनिश्चित की थी। शाश्वत जीवन मूल्यों और सुसंस्कारों के सतत बीजारोपण की इसी अमूल्य परंपरा ने भारत को महान राष्ट्र और विश्व गुरु बनाया था।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ‘‘हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसके महान गुरुओं ने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है। समय की प्रचंड धाराओं में जहां यूनान, रोम, सीरिया, बेबीलोन जैसी तमाम प्राचीन संस्कृतियां बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं। वहीं, एकमात्र हमारी भारतीय संस्कृति इन प्रवाहों के समक्ष चट्टान के समान अविचल बनी रही, क्योंकि हमें हमारी आत्मज्ञान संपन्न दिव्य-विभूतियों का सशक्त मार्गदर्शन सतत मिलता रहा।’’
गुरु-शिष्य परंपरा की प्रासंगिकता पर गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा है, ‘‘गुरु-शिष्य परंपरा आत्मज्ञान की पूंजी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का दिव्य सोपान है। प्राचीन काल में जब किसी आत्मज्ञान के जिज्ञासु साधक के अंतस में अंतरप्रज्ञा जाग्रत होती थी, तो वह ऐसे सुपात्र को खोजता था, जिसे उस आत्मज्ञान को हस्तांतरित कर सके। भारत में यह सिलसिला बिना किसी बाधा के सदियों तक चलता रहा। पौराणिक युग में परशुराम, कणाद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, संदीपनि, व्यास, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अगत्स्य आदि ऋषियों की सुदीर्घ शृंखला ने देश को ऐसे-ऐसे नर रत्न दिए, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वैदिक युग में शुरू हुई यह परंपरा 18वीं-19वीं सदी तक क्रमिक रूप से कायम रही।’’
हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसके महान गुरुओं ने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है। समय की प्रचंड धाराओं में जहां यूनान, रोम, सीरिया, बेबीलोन जैसी तमाम प्राचीन संस्कृतियां बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं। वहीं, एकमात्र हमारी भारतीय संस्कृति इन प्रवाहों के समक्ष चट्टान के समान अविचल बनी रही, क्योंकि हमें हमारी आत्मज्ञान संपन्न दिव्य-विभूतियों का सशक्त मार्गदर्शन सतत मिलता रहा। -स्वामी विवेकानंद
गुरुकुलों में आत्म ज्ञान के साथ शिल्प, वास्तु, संगीत, नृत्य, कला आदि विभिन्न लौकिक धाराओं की शिक्षा-दीक्षा भी दी जाती थी। किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सबको समान सुविधाएं उपलब्ध थीं। विद्यार्थियों के लिए शाकाहार, ब्रह्मचर्य और भिक्षाटन अनिवार्य था। इनकी तीन श्रेणियां थीं- वसु (24 की उम्र तक शिक्षा पाने वाले), रुद्र (36 की उम्र तक शिक्षा पाने वाले) व आदित्य (48 की उम्र तक शिक्षा पाने वाले)। शिक्षा का उद्देश्य आध्यात्मिक विकास व चरित्र निर्माण के साथ विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाना तथा उसे जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना था।
शिक्षा पूरी होने पर अभिभावक श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार गुरु को जो देते थे, उसे वे सहर्ष स्वीकार करते थे। वह गांवों की जागीर से लेकर लौंग के दो दाने तक कुछ भी हो सकता था। उस युग में स्त्रियों को भी लौकिक व आध्यात्मिक शिक्षाएं दी जाती थीं। सुप्रसिद्ध लेखिका विदुषी शकुंतला राव शास्त्री ने इन्हें तीन श्रेणियां में बांटा है-महिला ऋषि द्वारा लिखित श्लोक, आंशिक रूप से महिला ऋषि द्वारा लिखित श्लोक एवं महिला ऋषियों को समर्पित श्लोक। ऋग्वेद के 10वें मंडल के 39वें एवं 40वें सूक्त की ऋषिका घोषा, रोमशा, विश्ववारा, इंद्राणी शची और अपाला थीं। उनके अनुसार वैदिक युग में स्त्रियां यज्ञोपवीत धारण कर वेदाध्ययन एवं प्रात:-सायं होम आदि करती थीं। हरित संहिता के अनुसार, वैदिक काल में शिक्षा ग्रहण करने वाली स्त्रियों के दो विभाग थे- ‘ब्रह्मवादिनी’ एवं ‘सद्योदबाह’।
‘‘गुरु-शिष्य परंपरा आत्मज्ञान की पूंजी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का दिव्य सोपान है। प्राचीन काल में जब किसी आत्मज्ञान के जिज्ञासु साधक के अंतस में अंतरप्रज्ञा जाग्रत होती थी, तो वह ऐसे सुपात्र को खोजता था, जिसे उस आत्मज्ञान को हस्तांतरित कर सके। भारत में यह सिलसिला बिना किसी बाधा के सदियों तक चलता रहा। पौराणिक युग में परशुराम, कणाद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, संदीपनि, व्यास, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अगत्स्य आदि ऋषियों की सुदीर्घ शृंखला ने देश को ऐसे-ऐसे नर रत्न दिए, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वैदिक युग में शुरू हुई यह परंपरा 18वीं-19वीं सदी तक क्रमिक रूप से कायम रही।’’ – पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
ब्रह्मावादिनी स्त्रियां आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर धर्मशास्त्रों का अध्ययन करती थीं, जबकि सद्योदबाह विवाह तक अध्ययन करती थीं। इन्हें प्रार्थना एवं यज्ञों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र पढ़ाए जाते थे तथा संगीत व नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि उनके आश्रम में लव-कुश के साथ आत्रेयी नामक बालिका भी पढ़ती थी। 8वीं सदी के महाकवि भवभूति ने अपने नाटक ‘मालती-माधव’ में भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है।
गुरु-शिष्य परंपरा पर पश्चिम के दार्शनिक शोपेनहॉवर का कहना है कि ‘‘विश्व में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति हुई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि भारत से। जिज्ञासु शिष्यों ने ज्ञानी गुरु के सान्निध्य में उनके प्रतिपादनों को क्रमबद्ध कर उपनिषदों के रूप में दुनिया को जो दिव्य धरोहर दी थी, उसका कोई सानी नहीं है। यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहां के मानव ने अपने हृदय में दैवीय गुणों का पूर्ण विकास किया, तो मेरी उंगली भारत की ओर ही उठेगी। यदि मैं स्वयं से पूछूं कि वह कौन सा साहित्य है, जिससे ग्रीक, रोमन और यहूदी विचारों में पलते आए यूरोपवासी प्रेरणा ले सकते हैं, तो मेरी उंगली केवल भारत के इस वैदिक साहित्य की ओर ही उठेगी।’’
‘विद्या’ और ‘शिक्षा’ में अंतर
वैदिक चिंतन कहता है कि विद्यादान का गुरुतर दायित्व संभालने वाले आचार्योंके अंतस में सर्वप्रथम दो प्रश्न उभरे थे- ‘क्या’ सिखाया जाए तथा ‘कैसे’ सिखाया जाए? शास्त्रज्ञ कहते हैं, ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् सच्ची विद्या वह है जो हमारे अंतस से प्रभुत्व को मिटाकर देवत्व की भावना जाग्रत करती है, जीवन का सत्य स्वरूप और सन्मार्ग दिखाती है। पश्चिमी चिंतन में गुरु का कोई महत्व नहीं है, इसीलिए वे शिक्षा व विद्या का भेद नहीं जानते। यूरोप की भौतिक उन्नति, प्रगति, विकास और ज्ञान का संबंध आधुनिक शिक्षा से है, जो पुस्तकीय ज्ञान, सूचना संग्रह, डिग्रियों और शारीरिक सुख-भोगों तक सीमित है। वहां शिक्षक और छात्र तो हैं, पर गुरु और शिष्य नहीं। शिक्षा तो है, पर विद्या और दीक्षा नहीं। भारत में मशीनी मानव विकसित करने वाली इस शिक्षा की बुनियाद अंग्रेजों के शासन में पड़ी थी। मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण नई पीढ़ी जड़ों से कटती चली गई। आज शिक्षा का मूल उद्देश्य पैसा कमाना हो गया है।
‘‘विश्व में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली और सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति हुई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि भारत से। जिज्ञासु शिष्यों ने ज्ञानी गुरु के सान्निध्य में उनके प्रतिपादनों को क्रमबद्ध कर उपनिषदों के रूप में दुनिया को जो दिव्य धरोहर दी थी, उसका कोई सानी नहीं है। यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहां के मानव ने अपने हृदय में दैवीय गुणों का पूर्ण विकास किया, तो मेरी उंगली भारत की ओर ही उठेगी। यदि मैं स्वयं से पूछूं कि वह कौन सा साहित्य है, जिससे ग्रीक, रोमन और यहूदी विचारों में पलते आए यूरोपवासी प्रेरणा ले सकते हैं, तो मेरी उंगली केवल भारत के इस वैदिक साहित्य की ओर ही उठेगी।’’ – दार्शनिक शोपेनहॉवर
नमन-वंदन का पुण्य दिवस
महर्षि वेदव्यास का प्राकट्य दिवस गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ी पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा के रूप में लोक प्रतिष्ठित है। यह पावन पर्व कहता है कि पूर्णिमा के चांद जैसा गुरु ही आषाढ़ की बदली जैसे शिष्यों के अंत:करण में ज्ञानरूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। धर्मशास्त्र गुरु वंदना में स्तुति गाते हैं-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ का शुभारंभ ‘बंदहुं गुरुपद पदमु परागा’ वंदना से किया है। कबीर कहते हैं, ‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय।’ हिंदू दर्शन में देहधारी को ही गुरु मानने की बाध्यता नहीं है। मन में सच्ची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरु को कहीं भी पाया जा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा में गुरु को ढूंढ़ा और महान धनुर्धर बना। दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बनाए थे। उन्होंने संसार में मौजूद हर उस वनस्पति, प्राणी, ग्रह-नक्षत्र को अपना गुरु माना, जिससे सीखा जा सकता था।
टिप्पणियाँ