केंद्र सरकार का कुल कर्ज व देनदारी 90.8 लाख करोड़ रुपये और जीडीपी लगभग 189 लाख करोड़ रुपये थी, जो जीडीपी का महज 48 प्रतिशत थी। यानी नरेंद्र मोदी सरकार के पहले 5 साल में जीडीपी के अनुपात में सरकार का कर्ज 4.2 प्रतिशत कम हुआ। यह भी सच है कि 2018-19 के बाद कोरोना काल में केंद्र सरकार का कर्ज बढ़ गया, क्योंकि जीडीपी में संकुचन हुआ।
कांग्रेस का आरोप है कि मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में देश पर कर्ज बढ़ गया है। लेकिन यह सही नहीं है। सच्चाई यह है कि 2013-14 में देश की जीडीपी 112 लाख करोड़ रुपये और सरकार का कुल कर्ज 58.6 लाख करोड़ रुपये था, यानी जीडीपी का 52.2 प्रतिशत। 2022-23 में जीडीपी 272 लाख करोड़ रुपये हो गई है, जबकि सरकार का कुल कर्ज व देनदारियां 152.6 लाख करोड़ रुपये है, जो जीडीपी के लगभग 56 प्रतिशत के बराबर है।
2018-19 में केंद्र सरकार का कुल कर्ज व देनदारी 90.8 लाख करोड़ रुपये और जीडीपी लगभग 189 लाख करोड़ रुपये थी, जो जीडीपी का महज 48 प्रतिशत थी। यानी नरेंद्र मोदी सरकार के पहले 5 साल में जीडीपी के अनुपात में सरकार का कर्ज 4.2 प्रतिशत कम हुआ। यह भी सच है कि 2018-19 के बाद कोरोना काल में केंद्र सरकार का कर्ज बढ़ गया, क्योंकि जीडीपी में संकुचन हुआ।
महामारी के दौरान लोगों को चिकित्सा, कोरोना टीकाकरण, ऋण में छूट सहित अन्य सुविधाएं देने के लिए कर राजस्व पर्याप्त नहीं था। इसलिए मजबूरी में सरकार को उधार लेना पड़ा। इस कारण 2019-20 में जो कर्ज-जीडीपी अनुपात 50.9 प्रतिशत था, वह 2020-21 में बढ़कर 61 प्रतिशत हो गया। लेकिन 2022-23 में यह घटकर 56 प्रतिशत रह गया है। मार्च 2023 में कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने माना था कि सरकार का पूरा ध्यान राजकोषीय घाटे और कर्ज के प्रबंधन पर है और इसका श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए।
राज्यों पर बढ़ता कर्ज
केंद्र सरकार ने राजकोषीय अनुशासन से कर्ज को सीमा के भीतर रखा है, इसलिए धुर विरोधी भी सरकार की प्रशंसा करते हैं। वहीं, वित्तीय अनुशासनहीनता के कारण राज्य सरकारों पर कर्ज बढ़ रहा है। 2013-14 में राज्य सरकारों का कर्ज जीडीपी का 22 प्रतिशत था, जो 2018-19 (कोरोना से पहले) में 25.33 प्रतिशत और कोरोना के बाद बढ़कर 31.05 प्रतिशत हो गया। केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण (जिसमें केंद्र के कर्ज व देनदारियां तथा केंद्र को छोड़ कर अन्य के प्रति राज्य सरकारों की देनदारियां शामिल हैं) 2013-14 में 67 प्रतिशत से बढ़कर 2020-21 में 89.41 प्रतिशत हो गया। यानी इस वृद्धि में सिर्फराज्य सरकारों का पूरा योगदान था।
केंद्र सरकार ने राजकोषीय अनुशासन से कर्ज को सीमा के भीतर रखा है, इसलिए धुर विरोधी भी सरकार की प्रशंसा करते हैं। लेकिन राज्य सरकारों पर कर्ज वित्तीय अनुशासनहीनता के कारण बढ़ रहा है
राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के अनुसार, राज्य सरकारों का ऋण और देनदारियां राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसके विपरीत 2020-21 तक देश के अधिकतर राज्यों का कर्ज-जीडीपी अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक था। पंजाब में यह 48.98 प्रतिशत, राजस्थान 42.37, पश्चिम बंगाल 37.39, बिहार 36.73, आंध्र प्रदेश 35.30 और मध्य प्रदेश में यह 31.53 प्रतिशत पर पहुंच गया।
‘कैग’ की मानें तो राज्य सरकारों की गारंटी और उसके उद्यमों के कर्ज को इसमें शामिल किया जाए तो राज्यों पर वास्तविक कर्ज कहीं अधिक है। ‘कैग’ केअनुमान के अनुसार, पंजाब में यह कर्ज जीडीपी का 58.21 प्रतिशत, राजस्थान 54.94, आंध्र प्रदेश 53.77, तेलंगाना 47.89 तथा मध्य प्रदेश में 47.13 प्रतिशत था। इस संबंध में कैग द्वारा परिकलित ऋण व देनदारियां राज्य सरकारों के आंकड़ों से 10 से 20 प्रतिशत अधिक हैं। वर्तमान में केंद्र व राज्य सरकारों का समग्र ऋण जीडीपी का लगभग 84 प्रतिशत है, लेकिन ‘कैग’ के अनुमान के अनुसार, केंद्र व राज्य सरकारों का समग्र ऋण जीडीपी के 90 प्रतिशत से अधिक है।
क्यों बढ़ रहा राज्यों का कर्ज?
प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण और शहरी) के तहत गरीबों के लिए पहले ही 3 करोड़ घर बन चुके हैं। इस मद में भारी भरकम राशि की मंजूरी, कोरोना काल से अब तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत के तहत करोड़ों लोगों को 5 लाख रुपये तक मुफ्त इलाज, बुनियादी ढांचा विकास पर भारी खर्च, औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने पर लगभग 3 लाख करोड़ रुपये, कोरोना के दौरान राहत व प्रोत्साहनों के साथ टीकाकरण पर भारी-भरकम खर्च के बावजूद केंद्र का कर्ज सीमा के भीतर है, जबकि कई राज्य सरकारें राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने में विफल रही हैं।
राज्यों पर बढ़ते कर्ज के पीछे आरबीआई ने मुफ्तखोरी को बड़ा कारण माना है, क्योंकि कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त योजनाओं पर खर्च होता है। पंजाब में यह खर्च 45.5 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 30.3 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 28.8 तथा झारखंड में 26.7 प्रतिशत है। यानी पंजाब में जीडीपी की 2.7 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 2.1 प्रतिशत राशि मुफ्त योजनाओं पर खर्च की जाती है।
बढ़ते कर्ज के खतरे
जब अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां देश में कुल कर्ज का लेखा-जोखा लेती हैं, तो उसमें केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों का कर्ज भी शामिल होता है। ऐसे में देश में जीडीपी अनुपात में ‘समग्र सरकारी कर्ज’ में लगातार हो रही वृद्धि चिंता का सबब बनती जा रही है। हाल ही में ‘मूडीज’ ने उच्च सरकारी ऋण और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए राजकोषीय फिसलन के जोखिम को चिह्नित किया है, जो रैंकिंग में गिरावट का कारण बन सकता है। यह अन्य बातों के अलावा, विदेशों में भारतीय कंपनियों के लिए उधार लेने की लागत को प्रभावित करता है। इस तरह की गिरावट से हमारी विकास क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
जब मुफ्त में कुछ दिया जाता है, तो इसके लिए जिम्मेदार राजनेता ‘कल्याणकारी राज्य’ के नाम पर इसे औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश करते हैं। यदि मुफ्तखोरी को नहीं रोका गया तो देश कर्ज के भंवर में फंस सकता है। कई राज्यों में 100 से 200 यूनिट मुफ्त बिजली, पानी और महिलाओं को मुफ्त यात्रा सुविधाएं दी जा रही हैं। चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। वोटबैंक के लिए मुफ्त की योजनाओं, प्रतिस्पर्धी लोकलुभावन वादों के कारण देश का कुल कर्ज बढ़ रहा है, जिसे आने वाली पीढ़ियों को वहन करना होगा।
मुफ्तखोरी के कारण हम वेनेजुएला, श्रीलंका, पाकिस्तान सहित कई देशों का हश्र देख रहे हैं। सरकार के बढ़ते कुल कर्ज ने पहले ही वैश्विक एजेंसियों ने हमारी क्रेडिट रैंकिंग को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इसलिए हमें ‘मुफ्तखोरी’ और ‘हकदारी’ के बीच अंतर समझना होगा। जिनके पास घर नहीं है, जो भूख से पीड़ित हैं, ऐसे लोगों की मदद की जाए, न कि समर्थ लोगों की। जो अकुशल हैं, उन्हें कौशल प्रदान किया जाए। राजकोषीय अस्थिरता की कीमत पर मुफ्त में स्कूटर, मंगलसूत्र और लैपटॉप देकर देश के विकास में बाधा डालने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती।
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