नई दिल्ली। एनयूजेआई स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन और दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन की ओर से आपातकाल और प्रेस विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार, लेखक तथा हिन्दुस्थान समाचार के प्रधान संपादक रामबहादुर राय ने कहा कि कांग्रेस के नेता व कार्यकर्ता आपातकाल के दौरान पुलिस के मुखबिर बन गए थे। आपातकाल के दौरान 16 महीने जेल में बंद रहे राय ने बताया कि कांग्रेस के नेताओं के दबाव में तमाम लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाला गया था। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल को अनुशासन पर्व, कभी नहीं कहा था। कांग्रेसी नेता निर्मला देशपांडे द्वारा फैलाए गए झूठ का विनोबा भावे विरोध भी नहीं कर पाए थे।
हिन्दुस्थान समाचार के प्रधान संपादक रामबहादुर राय ने संगोष्ठी में बताया कि आपातकाल का केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने ही जमकर विरोध किया था। इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के बाद छाये सन्नाटे से हताश हो गए थे। जेपी को उम्मीद थी कि उनकी गिरफ्तारी के बाद पटना समेत देशभर में भारी विरोध होगा, लेकिन देश में पूरी तरह सन्नाटा छा गया। उन्होंने बताया कि जेपी ने जेल में एक महीने बाद अपनी डायरी लिखना शुरू किया था। आपातकाल के पहले पांच महीने में इंदिरा सरकार के अत्याचारों के कारण देश हिल गया था। इसके बाद भय को मिटाने के लिए संघ के स्वयंसेवकों ने भूमिगत होकर आपातकाल के विरोध में कार्य किया। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि क्रांतिकारी माओवादी नेता और कार्यकर्ताओं ने भी आपातकाल में सरकार और पुलिस के मुखबिरों की भूमिका निभाई थी। जेल में बंद माओवादी नेता गिरफ्तार नेताओं की जासूसी करते थे।
जेपी आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाने वाले रामबहादुर राय ने कहा कि इंदिरा गांधी के विरोध में जेपी आंदोलन में सत्ता बदलने का दम नहीं था। उन्होंने कहा कि जेलों में ऐसा माहौल था कि आपातकाल कभी समाप्त नहीं होगा और परिवार के लोगों से इस जन्म में भेंट नहीं होगी। राय ने कहा कि इंदिरा गांधी ने यह सोचकर जनवरी 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा की थी कि आपातकाल में जनता उनके निर्णय पर मोहर लगा देगी। उन्होंने बताया कि इंदिरा गांधी ने दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति, कांग्रेस नेता ओम मेहता और कई अन्य लोगों की राय पर चुनाव कराए थे। इंदिरा गांधी की सोच थी कि आपातकाल में चुनाव करा कर, वह फिर जीत जाएंगी, लेकिन जनता ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी ने केवल प्रधानमंत्री बने रहने के लिए ही आपातकाल घोषित किया था। इंदिरा गांधी को अगर सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल जाती तो आपातकाल भी नहीं थोपा जाता। इसके लिए इंदिरा गांधी ने सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को हनन किया।
कांग्रेस नेता ने पुलिस पर बनाया दबाव
25 जून 1975 को आपातकाल घोषित होने के बाद का समय था, उस समय जेपी आंदोलन में पत्रकारिता के साथ साथ कुछ भूमिका निभा रहे वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय छुपने के लिए पटना से बनारस पहुंचे और अपना सामान एक कमरे में रखने के बाद वो रात को करीब नौ बजे बनारस के कंपनी बाग चौराहे को पार कर रहे थे, उसके दूसरी ओर कांग्रेस नेता सुधाकर पांडे और उनके साथी खड़े हुए थे, उन्होंने रामबहादुर राय को देखा और जाकर पड़ोस की कोतवाली में कोतवाल को रामबहादुर राय को गिरफ्तार करने के लिए दबाव बनाया। इतना कहते हुए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का गला रूंध आया। उन्होंने बताया कि किस तरह से कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता लोगों के अधिकारों को दबाने के लिए पुलिस पर दबाव बना रहे थे।
तो नहीं लगता आपातकाल
उन्होंने कहा, “जे पी ( लोकनायक जयप्रकाश नारायण) के आंदोलन को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर आंका गया है, जबकि उसमें इतनी ताकत नहीं थी कि सरकार को उससे निपटने के लिए इमरजेंसी लगाने की जरूरत थी, उस समय उच्चतम न्यायालय से श्रीमती गांधी को राहत मिल गयी होती, तो वह आपातकाल नहीं लगातीं। ”
वामपंथी नेता ने की मुखबिरी
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने इसी कड़ी में ये भी बताया कि कैसे बनारस की जेल में रहते हुए कैसे एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी नेता ने उनकी और उनके साथियों की मुखबिरी जेलर से की थी। उन्होंने कहा, “ आपात काल के पहले पांच महीने पूरे देश के लिए स्तब्धकारी थे। लोगों को लगता था कि अब देश में कभी चुनाव नहीं होंगे। लोग सोचने लगे थे , जो जेल में डाल दिए गए हैं , उनसे अब अगले जन्म में ही मुलाकात होगी।” उन्होंने कहा कि आपातकाल के पहले पांच महीने के सन्नाटे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिगत गतिविधियों ने हल्का किया और धीरे-धीरे आपातकाल के खिलाफ सक्रियाता बढ़ने लगी और भव का वातावरण कम होने लगा था। राय ने कहा कि 1977 में श्रीमती गांधी ने चुनाव इस लिए कराया क्योंकि उन्हें दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति, राजनीतिज्ञ ओम मेहता और उस समय के कई अन्य महानुभावों ने चुनाव कराने के लिए घेराबंदी कर समझाया-बुझाया था। ‘आपातकाल के दौरान ही वे चुनाव कराए गए। इंदिरा गांधी की सोच थी कि आपातकाल में चुनाव करा कर, वह फिर जीत जाएंगी, लेकिन जनता ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया।’
मीडिया पूरी तरह स्वतंत्र है – आलोक मेहता
आईटीवी के संपादकीय निदेशक पद्मश्री डॉ आलोक मेहता ने कहा इस समय पत्रकारों के बीच यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि देश में आपातकाल जैसी स्थिति है। उन्होंने कहा कि आज भी मीडिया को पूरी स्वतंत्रता है कि वह तथ्यों के आधार पर समाचारों का प्रकाशन करे। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी कहा करती थी कि हमें जयप्रकाश के आंदोलन से उतना खतरा नहीं है जितना अखबारों से है।
मेहता ने कहा कि आपातकाल के दौरान झुग्गी हटाने, श्रमिकों को बोनस का भुगतान न होने और गोदावरी जल संकट तक की खबरें लिखने पर भी पाबंदी थी। सरकारी अधिकारी और दरबारी ‘राजा से बढ़कर वफाद़ार बन गए थे। आपातकाल के दौरान हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी में संवाददाता रहे मेहता ने कहा कि आपातकाल के दौरान लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए पत्रकारों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इसी कारण तमाम पत्रकारों की इंदिरा सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ी। इंदिरा सरकार ने प्रेस को कुचलने के लिए सेंसरशिप का पूरी तरह दुरुपयोग किया। सरकारी अधिकारी और दरबारी ‘राजा से बढ़ कर वफाद़ार बन गए थे। आपातकाल ने एक बड़ा सबक यह दिया है कि अब कोई भी सरकार इस बारे में सोच भी नहीं सकती है।
देश परिवारवादी सत्ता की सनक से नहीं, बल्कि संविधान से चलेगा – हितेश शंकर
पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने कहा कि महत्वपूर्ण यह है कि आपातकाल को देखने की मीडिया की दृष्टि क्या है? जिस आपातकाल की हम बात कर रहे हैं, उसके बाद कई पीढी निकल गई है, बहुत से पत्रकारों का जन्म आपातकाल के बाद का है। बाद की पीढियों को आपातकाल समझाना कठिन काम है। मीडिया नई पीढी को कैसे कनेक्ट करे और मीडिया खुद इसपर सबक कैसे हैं। ये समझना जरुरी है। उन्होंने कहा कि, आम तौर पर जब आपातकाल की बात आती है तो इलाहबाद हाई कोर्ट का चुनाव रद्द करने और छह साल के लिए इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने वाले फैसले की बात आती है। लेकिन आपातकाल लगा 1975 में पर उसका बीज 1967 में ही पड़ गया था।
1967 में गोलकनाथ केस इसमें बड़ा मुद्दा था, सरकार ने हैनरी गोलकनाथ के लिए 20 एकड़ जमीन छोड़ी थी, लेकिन कोर्ट ने इसमें सरकार के फैसले को ओवररूल किया। साथ ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण का मामला था। 1971 में रियासतों के राजाओं के प्रीवी पर्स के मामलों में सरकार और न्यायपालिका के बीच भारी असहमति दिखाई दी। 1971 में जब इंदिरा गांधी जब 352 सांसदों के साथ इंदिरा जी दोबारा सत्ता में आई तो सार्वजनिक तौर पर ये कहा गया कि हमें “कमिटिड ब्यूरोक्रेसी और ज्यूडिशरी” चाहिए। फिर चौथा केशवानंद भारती वाला मामला था, उसमें कोर्ट ने कहा कि सरकार बहुत कुछ बदल सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती। बल्कि संविधान बेसिक स्ट्रक्चर क्या है, उसकी परिभाषा की व्याख्या भी सुप्रीम कोर्ट ने दी। चुनाव कैसे होंगे, संसद कैसे चलेगी, संप्रुभता क्या है इन सबको डिफाइन करने का काम न्यायपालिका ने किया। ये बहस 68 दिन चली। 24 अप्रैल को 13 जजों की बेंच ने 7-6 की सहमति से ये पास किया। इसमें सरकार से सहमत वाले जजों को पुरस्कृत किया गया और असहमति वालों को प्रताणित किया गया।
अखबारों मे सबएडिटर की जगह इंस्पेक्टर बैठ गए थे
हितेश शंकर ने कहा कि भारत के इतिहास में आपातकाल को याद रखा जाएगा, इस पीढी को पता होना चाहिए कि किस तरह से कांग्रेस ने देश पर आपातकाल थोपा था। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया। नेताओं के साथ साथ बड़ी संख्या में पत्रकारों की गिरफ्तारियां हुई थी। अखबारों में सबएडिटर की बजाए सब इंस्पेक्टर बैठ गए थे। हर ख़बर को छापने से पहले प्रशासन को दिखाना पड़ता था। कितने ही लोगों के नाखून जेल की प्रताड़ना में गायब हो गए। न्यायपालिका को भी एक तरह कुंद कर दिया गया था। कांग्रेस किस तरह से सोचती है, वो आपातकाल के दौरान सामने आया जब कहा गया कि हमें कमिटिड ब्यूरोक्रेसी और ज्यूडिशरी चाहिए। यानि ऐसे अधिकारी और न्यायाधीश चाहिए जोकि परिवार के मुताबिक चलें। उन्होंने बताया कि इस आपातकाल ने आम जनता के सामने कांग्रेस और परिवार का असली चेहरा सामने ला दिया। इन्होंने तो पूरी व्यवस्था का ही मज़ाक बना दिया। कैसे स्व. इंदिरा गांधी ने बिना कैबिनेट की मंजूरी से आपातकाल लागू कर दिया। इसी तरह बना संसदीय दल के नेता चुने प्रधानमंत्री की घोषणा कर दी गई। आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों ने यह तय कर दिया था कि यह देश सत्ता की सनक से नहीं बल्कि संविधान से चलेगा।
आपातकाल में प्रेस पर पाबंदी के खिलाफ एनयूजे ने निभाई थी बड़ी भूमिका – रास बिहारी
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए एनयूजेआई के अध्यक्ष रास बिहारी ने बताया कि आपातकाल में एनयूजेआई के नेताओं ने प्रेस पर पाबंदी के खिलाफ बड़ी भूमिका निभाई थी। कई नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। बड़ी संख्या में सदस्यों की मान्यता रद्द कर दी गई। कई पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया।
रास बिहारी ने कहा कि आज देश में मीडिया पर अघोषित आपातकाल को भ्रम फैलाने की साजिश बताते हुए कहा कि मीडिया के सामने हर समय चुनौती रहेगी। मीडिया संस्थानों में मालिकों की मनमानी हावी है और आज सम्पादक मैनेजर हो गए हैं। जिस मीडिया प्रतिष्ठान को दिल्ली में भाजपा का समर्थक कहा जाता है, उसे पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भोंपू बताया जाता है। सत्ता के बारे में तथ्यों के आधार पर समाचार लिखने वालों को परेशानी उठानी पड़ सकती है पर उन्हें चुप नहीं कराया जा सकता है। उन्होंने कहा कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार हो बिहार की नीतीश कुमार सरकार, उनके बारे में आलोचना करने पर विज्ञापन बंद कर दिए जाते हैं। ऐसा हाल कई राज्यों में है। उन्होंने कहा कि मालिकों द्वारा समाचार छापने या न छापने के कारण ही अघोषित आपातकाल का भ्रम फैलाया जाता है।
एनयूजे स्कूल आफ जर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन के अध्यक्ष अनिल पांडे ने संगोष्ठी के वक्ताओं का परिचय कराते हुए मीडिया की स्वतंत्रता में उनके योगदान के बारे में बताया। एनयूजे स्कूल के सचिव के पी मलिक ने संगोष्ठी में पधारे अतिथियों का स्वागत किया। दिल्ली पत्रकार संघ के संयोजक राकेश थपलियाल ने संगोष्ठी का संचालन करते हुए मीडिया के तमाम मुद्दो को उठाया। एनयूजेआई के सचिव अमलेश राजू ने धन्यवाद ज्ञापन में कहा कि मीडिया के एकजुट होकर काम करने की आवश्यकता है। संगोष्ठी में संसद टीवी के वरिष्ठ एंकर मनोज वर्मा, अमेरंद्र गुप्ता, यूनीवार्ता के ब्यूरो प्रमुख मनोहर सिंह, वरिष्ठ पत्रकार उषा पाहवा, प्रतिभा शुक्ल, ज्ञानेंद्र सिंह, विवेक शुक्ल, दीपक उपाध्याय आदि ने भी विचार रखें। संगोष्ठी में बड़ी संख्या में पत्रकारों ने हिस्सा लिया।
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