जगन्नाथ पुरी को भूलोक के ‘बैकुंठ’ की संज्ञा दी गई है। सनातन धर्मियों की अटूट आस्था है कि इस दिव्य तीर्थ नगरी के स्वामी जगन्नाथ पूर्ण परात्पर परम ब्रह्म हैं। सम्पूर्ण सृष्टि के पालक व संचालक की इस पावन नगरी के रथयात्रा उत्सव के दौरान आस्था के जिस विराट वैभव के दिग्दर्शन होते हैं, वह सचमुच अतुलनीय है। पुरी का यह रथयात्रा उत्सव देश-दुनिया के सनातनी श्रद्धालुओं का ऐसा अनूठा त्योहार है, जिसमें जगत पालक महाप्रभु अपने भाई, बहन के साथ स्वयं मंदिर से बाहर निकलकर भक्तों से मिलने उनके बीच आते हैं और अपने आशीर्वाद से सबको कृतार्थ कर यह संदेश देते हैं कि ईश्वर की नजर में न छोटा है न कोई बड़ा, न कोई अमीर है और न गरीब। यही वजह है कि यह रथयात्रा उत्सव सदियों से न केवल भारत अपितु विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।
श्रीमद्भागवत महापुराण में इस महायात्रा का अत्यंत सारगर्भित तत्वदर्शन वर्णित है। इस तत्वदर्शन को इस लोकोत्सव के प्रति आस्था रखने वाले हर भावनाशील श्रद्धालु को हृदयंगम करना चाहिए। इस शास्त्रीय विवेचन के मुताबिक लोकपालक का यह अनूठा रथ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, इन चार पायों के संतुलित समन्वय पर टिका है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। वस्तुतः यह रथयात्रा उत्सव शरीर और आत्मा के मिलन की द्योतक है। यद्यपि प्रत्येक जीवधारी के शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। सनातन हिंदू धर्म के इस विलक्षण तत्वदर्शन का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है जगत पालक का यह अद्भुत रथयात्रा उत्सव। देह और आत्मा के मिलन की द्योतक जगन्नाथ महाप्रभु की यह अद्भुत लोकयात्रा मनुष्य को सदैव आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है।
जानना दिलचस्प होगा कि इस दिव्य तत्वदर्शन के साथ ही इस महायात्रा का लौकिक पक्ष भी उतना ही भव्य और विशाल है। ब्रह्म पुराण में वर्णित कथानक के अनुसार सतयुग में दक्षिण भारत की अवंती नगरी के राजा इन्द्रद्युम्न भगवान श्रीहरि के परम भक्त थे। उनकी इच्छा पर स्वयं देवशिल्पी विश्वकर्मा ने छद्मवेश में श्री हरि विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण तथा उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के काष्ठ विग्रहों का निर्माण शुरू किया था किन्तु प्रतिमा निर्माण के नियम भंग हो जाने के कारण देवशिल्पी इन देव प्रतिमाओं को अधूरा छोड़कर चले गए। तब देव आज्ञा से वे अधोभागहीन काष्ठ विग्रह ही पुरी के श्रीमंदिर में प्रतिष्ठापित कर दिए गए। सदियों से यही अधूरे काष्ठ विग्रह देव मंदिर में पूजित होते आ रहे हैं।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आयोजित होने वाले दस दिवसीय महा महोत्सव के दौरान विशाल रथों से इन्हीं अधूरे देव विग्रहों की ही शोभायात्रा निकाली जाती है। मंदिर सूत्रों के अनुसार इस वर्ष आस्था का यह महामहोत्सव 19 जून से आयोजित होगा। बताते चलें कि अक्षय तृतीया से विशेष धार्मिक अनुष्ठान के साथ रथों का निर्माण शुरू होता है। खास बात है कि रथयात्रा के लिए श्री जगन्नाथ जी, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के क्रमश: 45, 44 व 43 फीट ऊंचे तीन रथ तैयार किए जाते हैं। जगन्नाथ का 16 पहियों का रथ “नंदीघोष”, बलभद्र जी का 14 पहियों का रथ “तालध्वज” और सुभद्रा का 12 पहियों का रथ “देवदलन” कहलाता है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि दारू वृक्ष (नीम) की लकड़ियों से निर्मित होने वाले इन रथों के निर्माण में किसी भी धातु के कील-कांटे का प्रयोग नहीं होता। इन रथों को सजाने के लिए लगभग 1090 मीटर कपड़ा लगता है। वस्त्रों के अलावा जगन्नाथ के रथ को लाल तथा पीले वस्त्रों से, बलभद्र जी के रथ को लाल तथा नीले वस्त्रों से और सुभद्रा के रथ को लाल काले वस्त्रों से मढ़ कर सुसज्जित किया जाता है। इन रथों को खींचने वाली रस्सी को “स्वर्णचूड़ा” कहा जाता है।
जगन्नाथ मंदिर समिति की जानकारी के मुताबिक आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन पूजा-अर्चना के बाद तीनों भाई-बहन मंदिर से निकलकर विराट रथों पर सवार होकर भक्तों के बीच जाते हैं। यात्रा शुरू होने से पूर्व नगरपति (उड़ीसा के राजा) स्वयं अपने हाथों से स्वर्ण जड़ित झाड़ू से यात्रापथ को बुहारते हैं। जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर और फिर जगन्नाथ मंदिर की यह यात्रा एकादशी तिथि को सम्पन्न होती है। इस रथयात्रा उत्सव के दौरान मंदिर प्रांगण में लाखों श्रद्धालुओं को महाभोज दिया जाता है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि जगन्नाथ स्वामी को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्ध नहीं होता, इसी कारण इसे “महाप्रसाद” की संज्ञा दी जाती है। जानकारों की मानें तो इस अवसर पर जगन्नाथपुरी के घरों में कोई भी रसोई नहीं बनती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। सभी श्रद्धालु जाति धर्म के किसी भेद के बिना इस महाप्रसाद को पूर्ण श्रद्धा से ग्रहण करते हैं। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि जो श्रद्धालु इस रथयात्रा में शामिल होता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष पा जाता है।
दांतों तले उंगलियां दबाने को विवश कर देते हैं श्री जगन्नाथ मंदिर के चमत्कार
जगन्नाथ पुरी की गणना भारत की प्राचीनतम सात नगरियों में होती है। गौरतलब हो कि चार लाख वर्गफुट के क्षेत्र में फैले और लगभग 214 फुट ऊंचे दुनिया के भव्यतम मंदिरों में शुमार इस मंदिर के मुख्य गुंबद की छाया कभी भी धरती पर नहीं पड़ती। श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित भव्य लाल ध्वज सदैव हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। मंदिर के ऊपर गुंबद के आस पास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया है। इसके ऊपर से विमान भी नहीं उड़ पाता। इस दिव्य तीर्थ की आकृति एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है जिसे सागर का पवित्र जल सतत धोता रहता है। आश्चर्य की बात है कि समुद्र की घोर गर्जना मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम रखते ही सुनाई पड़ना बिल्कुल बंद हो जाती है। जगन्नाथ स्वामी की रसोई दुनिया की सबसे निराली रसोई है जिसमें पूरा भोजन प्रसाद मिट्टी के पात्रों में चूल्हों पर बनाया जाता है। चाहे कितने ही लोग आ जाएं, इस रसोई का भोजन कभी नहीं घटता। मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए सात बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। हैरानी की बात है कि इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। मायापति के इस जागृत तीर्थ से जुड़े यह चमत्कारी तथ्य वर्तमान के धुर वैज्ञानिक युग में भी लोगों को दांतों तले उंगलियां दबाने को विवश कर देते हैं।
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