नए भवन के उद्घाटन ने भारतीय राष्ट्र-राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा है। नई इमारत को स्थापत्य की दृष्टि से देखना एक अनूठा दृष्टिकोण है।
गत 28 मई को संसद के नए भवन के उद्घाटन ने भारतीय राष्ट्र-राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा है। नई इमारत को स्थापत्य की दृष्टि से देखना एक अनूठा दृष्टिकोण है। इसे केवल ईंट-पत्थरों और गारे से निर्मित भवन नहीं मानना चाहिए बल्कि उसकी अवधारणा को समझने की जरूरत है। संसद, किसी भवन के बजाय किसी मैदान में बैठे, तब भी वह संसद ही होगी। इमारत उसका स्थूल रूप है, जो उन रूपकों को प्रदर्शित करता है, जो राष्ट्र के मंतव्य को बताते हैं। यह राष्ट्रीय-गरिमा, अस्मिता और एकता से जुड़ा ऐतिहासिक अवसर था, जिसे पीढ़ियां याद रखेंगी।
इस परिघटना ने तीन बातों को रेखांकित किया- पहली, भारतीय राष्ट्र-राज्य की दिशा; दूसरी, राष्ट्रीय-सर्वानुमति के प्रकाश-स्तंभ के रूप में संसद की भूमिका और तीसरी, राजनीति की विसंगतियां। इन तीनों बातों पर विचार करना चाहिए। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘हर देश की विकास यात्रा में कुछ पल ऐसे आते हैं, जो हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं। कुछ तारीखें, समय के ललाट पर इतिहास का अमिट हस्ताक्षर बन जाती हैं। यह 140 करोड़ भारतवासियों की आकांक्षाओं और सपनों का प्रतिबिंब है।’ नया भवन, आत्मनिर्भर भारत के सूर्योदय का साक्षी बनेगा। यह नया भवन, विकसित भारत के संकल्पों की सिद्धि होते हुए देखेगा।
यह नया भवन, नूतन और पुरातन के सह-अस्तित्व का भी आदर्श है।’’
1947 में भारत ने सत्ता का हस्तांतरण देखा था। वे महत्वपूर्ण क्षण थे। हम लंबी अंधेरी रात को पार करते हुए सूर्योदय को देख रहे थे। उसके बाद के 75 वर्षों में देश ने नए पड़ाव देखे, नए लक्ष्य बनाए और अब हम एक ऐसे नए भारत का स्वप्न देख रहे हैं, जिसकी वैश्विक भूमिका है। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘नए रास्तों पर चलकर ही नए प्रतिमान गढ़े जाते हैं। आज नया भारत, नए लक्ष्य तय कर रहा है, नए रास्ते गढ़ रहा है। नया जोश है, नई उमंग है। नया सफर है, नई सोच है। दिशा नई है, दृष्टि नई है। संकल्प नया है, विश्वास नया है। एक बार फिर पूरा विश्व भारत को, भारत के संकल्प की दृढ़ता, भारतवासियों की प्रखरता, भारतीय जनशक्ति की जिजीविषा को आदर और उम्मीद के भाव से देख रहा है।’’
भाषण का जो वाक्य हवा में गूंज रहा है, वह है, ‘‘जब भारत आगे बढ़ता है, तो विश्व आगे बढ़ता है।’’ 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। सन् 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 प्रतिशत थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3 प्रतिशत) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 प्रतिशत रह गई थी। अब हम इतिहास के पहिए को उलटा घुमा रहे हैं। उस भव्य भारतवर्ष की वापसी होगी। मैथिली शरण गुप्त की भारत-भारती के शुरुआती शब्द हैं, ‘‘चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी/ वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी।’’
भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है और लोकतंत्र की जननी यानी ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ भी। यह घड़ी प्राचीनता और नवीनता के मिलन की है। यह सगुण लोकतंत्र है, इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं। सिंधु सभ्यता के नगर नियोजन से लेकर मौर्यकालीन स्तंभों और स्तूपों तक, चोल शासकों के बनाए भव्य मंदिरों से लेकर जलाशयों और बड़े बांधों तक, भारत का कौशल, विश्व भर से आने वाले यात्रियों को हैरान कर देता था। सैकड़ों साल की गुलामी ने हमसे हमारा यह गौरव छीन लिया। ऐसा भी समय आया, जब हम दूसरे देशों में हुए निर्माण को देखकर मुग्ध होने लगे। 21वीं सदी का नया भारत, बुलंद हौसले से भरा हुआ भारत, गुलामी के उस सोच को पीछे छोड़ रहा है।
एक भारत, श्रेष्ठ भारत
प्रधानमंत्री ने आजादी के अमृत महोत्सव से शताब्दी वर्ष तक 25 साल की अवधि को ‘आजादी के अमृतकाल’ के रूप में मनाने का आह्वान किया है। लोगों के सामूहिक प्रयासों से भारत को अगले 25 वर्ष में दुनिया के शीर्ष पर पहुंचाने का समय। इस अवधि को ‘अमृतकाल’ कहा गया है। दुनिया के शिखर पर जाने के लिए भारत ने मानव-विकास के व्यापक कार्यक्रम तैयार किए हैं। इसके लिए शिक्षा, सार्वजनिक-स्वास्थ्य, परिवहन, संचार और संवाद से जुड़े विषयों पर हमें विचार करना होगा।
उन्होंने कहा, ‘‘आपको ध्यान होगा, 15 अगस्त को लाल किले से मैंने कहा था-यही समय है, सही समय है। हर देश के इतिहास में ऐसा समय आता है, जब देश की चेतना नए सिरे से जाग्रत होती है। इस अमृतकाल का आह्वान है-मुक्त मातृभूमि को नवीन मान चाहिए/नवीन पर्व के लिए, नवीन प्राण चाहिए।
भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाली इस कार्यस्थली को भी उतना ही नवीन होना चाहिए, आधुनिक होना चाहिए।’’
इस भवन में उस एकता के दर्शन होते हैं, जो राष्ट्र-राज्य का निर्माण करती है। लोकसभा का आंतरिक हिस्सा राष्ट्रीय पक्षी मोर पर आधारित है। राज्यसभा का आंतरिक हिस्सा राष्ट्रीय फूल कमल पर आधारित है। प्रांगण में राष्ट्रीय वृक्ष बरगद भी है। देश की विविधता को इसमें समाहित किया गया है। इसमें राजस्थान से लाए गए ग्रेनाइट और बलुआ पत्थर लगाए गए हैं। लकड़ी महाराष्ट्र से आई है। उत्तर प्रदेश में भदोही के कारीगरों ने इसके लिए अपने हाथ से कालीनों को बुना है। भवन के कण-कण में हमें ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना के दर्शन होते हैं।
नया भवन क्यों?
वर्तमान भवन के होते हुए नए संसद भवन की जरूरत क्यों पड़ी? वर्तमान संसद भवन का निर्माण वर्ष 1921 में शुरू हुआ और वर्ष 1927 में यह तैयार हुआ। लगभग 100 साल पुराने इस भवन में अब टूट-फूट होने लगी है। पुराने भवन की जालीदार खिड़कियों को ढकने से दोनों सदनों के कक्षों में प्राकृतिक रोशनी कम हो गई है। प्रधानमंत्री ने भी कहा, ‘‘आप देख रहे हैं कि इस समय भी इस हॉल में सूरज का प्रकाश सीधे आ रहा है। बिजली कम से कम खर्च हो, हर तरफ अत्याधुनिक तकनीक वाले गैजेट्स हों, इन सभी का इसमें पूरा ध्यान रखा गया है।’’
नए भवन में लोकसभा कक्ष में 888 सीटें हैं और दर्शक दीर्घा में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने का इंतजाम है। राज्यसभा में 384 सीटें हैं और आगंतुक दीर्घा में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने की क्षमता है। दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में 1272 से ज्यादा सांसद एक साथ बैठ सकेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शासन की उपलब्धियां भी गिनाईं। उन्होंने कहा, ‘‘हमें नई इमारत का गर्व है, तो मुझे पिछले नौ साल में गरीबों के चार करोड़ घर बनने का भी संतोष है।
पुराना भवन अंग्रेजी राज की निशानी है। नया भवन स्वदेशी प्रतिभा और कौशल का प्रतीक है। पिछले सौ वर्षों में संचार तकनीक का काफी विकास और विस्तार हुआ है। भविष्य में और ज्यादा होगा। भविष्य की जरूरतों को देखते हुए नई तकनीक से लैस नए भवन की जरूरत थी। संसदीय कार्य से जुड़े लोगों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है। 2002 में संविधान के 84वें संशोधन के बाद परिसीमन को 2026 तक के लिए रोक दिया गया है, अब इसमें काफी सीटें बढ़ने की संभावना है। पुराने भवन में पहले से ही बैठने की पर्याप्त जगह नहीं है। सेंट्रल हॉल में केवल 440 व्यक्तियों के बैठने की क्षमता है। जब संयुक्त सत्र होते हैं तो समस्या बढ़ जाती है। पुराने भवन को आधुनिक दमकल मानदंडों के अनुसार डिजाइन नहीं किया गया था।
नए भवन में लोकसभा कक्ष में 888 सीटें हैं और दर्शक दीर्घा में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने का इंतजाम है। राज्यसभा में 384 सीटें हैं और आगंतुक दीर्घा में 336 से ज्यादा लोगों के बैठने की क्षमता है। दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में 1272 से ज्यादा सांसद एक साथ बैठ सकेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शासन की उपलब्धियां भी गिनाहै। उन्होंने कहा, ‘‘हमें नई इमारत का गर्व है, तो मुझे पिछले नौ साल में गरीबों के चार करोड़ घर बनने का भी संतोष है।
आज जब हम इस भव्य इमारत को देखकर अपना सिर ऊंचा कर रहे हैं, तो मुझे पिछले नौ साल में बने 11 करोड़ शौचालयों का भी संतोष है, जिन्होंने महिलाओं की गरिमा की रक्षा की। पिछले नौ साल में हमने गांवों को जोड़ने के लिए चार लाख किलोमीटर से भी ज्यादा सड़कों का निर्माण किया। पानी की एक-एक बूंद बचाने के लिए 50 हजार से ज्यादा अमृत सरोवरों का निर्माण किया। 30 हजार से ज्यादा नए पंचायत भवन भी बनाए हैं। यानी, पंचायत भवन से लेकर संसद भवन तक, हमारी निष्ठा एक है, हमारी प्रेरणा एक है।’’
कदम-कदम पर अड़ंगा
दूसरी तरफ, इस परिघटना ने कुछ विसंगतियों पर भी रोशनी डाली है। यह राजनीतिक-सर्वानुमति का अवसर नहीं बन सका। राष्ट्र की महान-यात्रा में एक कटु-प्रसंग भी जुड़ा। इसे क्या टाला नहीं जा सकता था? भविष्य के इतिहासकार इस बात का विश्लेषण करेंगे कि उद्घाटन राजनीति का शिकार क्यों हुआ? संसद केवल राजनीति नहीं है। यह देश का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अभिलेखागार है। 2047 में हमारे प्रतिनिधि इसी भवन में बैठकर पिछले सौ वर्षों पर विचार करेंगे। तमाम अवसर आएंगे, जब यह प्रकाश-स्तंभ की भूमिका निभाएगा।
कुछ विरोधी दलों ने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया। उनका कहना था कि इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी के बजाय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों होना चाहिए। इस विषय पर पूरा विपक्ष एकमत नहीं था। 20 दलों ने बहिष्कार किया, तो 25 दलों ने उनका साथ नहीं दिया। जब से नए संसद भवन की नींव पड़ी, तभी से इसका विरोध हो रहा है। सेंट्रल विस्टा परियोजना और संसद भवन के निर्माण को रुकवाने के लिए कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय तक गए। लेकिन वहां से भी मुंह की खाईं। नि:संदेह संसद का नया भवन नए भारत की छवि है।
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