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रिवाबा जडेजा: हंगामा है क्यों बरपा ?

भारत में फेमिनिज्म का रास्ता एकतरफा है। इसमें केवल हिन्दू विरोधी अवधारणाओं के लिए ही माई बॉडी माई चॉइस वाली बात होती है।

by सोनाली मिश्रा
Jun 4, 2023, 06:07 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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भारत में फेमिनिज्म का रास्ता एकतरफा है। इसमें केवल हिन्दू विरोधी अवधारणाओं के लिए ही माई बॉडी माई चॉइस वाली बात होती है। यदि कोई सेलेब्रिटी हिन्दू संस्कारों का प्रदर्शन कर दे तो फेमिनिस्ट से लेकर कई सुधारवादियों की आत्मा आहत हो जाती है। ऐसा कैसे कोई सेलेब्रिटी कर सकती है और फिर वह लोग हिन्दू समाज को ही अपशब्द कहने लगते हैं।

ऐसा क्यों होता है ? क्या हिन्दू धर्म के प्रति आत्महीनता अब इस स्तर पर पहुंच गई है कि वह सेलेब्रिटीज द्वारा हिन्दू धर्म की परंपराओं का पालन करने को ही अपराध मान बैठे हैं। हाल ही में शोर मच रहा है रविंद्न जडेजा की पत्नी रिवाबा द्वारा आईपीएल के फाइनल मैच में चेन्नई सुपर किंग्स की जीत पर अपने पति के भरे मैदान में पैर छू लेना और सिर पर पल्लू होना।

इस फाइनल में अंतिम दो गेंदों पर दस रन चाहिए थे और जडेजा ने यह कारनामा कर दिया। जब सब जीत के जश्न में खोए हुए थे तो जैसा कि वीडियो में दिख रहा है कि रिवाबा आती हैं और अपने पति के पैर छू ले लेती हैं। उनके सिर पर पल्लू भी होता है।

यह तस्वीर बहुत ही प्यारी तस्वीर है, जिसमें पति और पत्नी के प्रति परस्पर प्रेम एवं आदर परिलक्षित हो रहा है। अब ऐसी प्यारी तस्वीर और वीडियो पर कथित फेमिनिस्ट एवं सुधारवादियों का रोना समझ से परे है। क्या हिन्दू समाज को ऐसी स्त्री का आदर करने के लिए अब विमर्श के ठेकेदारों से अनुमति लेनी होगी ? विमर्श के ठेकेदार क्यों कथित सुधारवादी लोग बनकर बैठ गए हैं ?

यह बात सत्य है कि हर समाज को ऐसे लोग पसंद आते हैं या कहें हर समाज ऐसे लोगों का आदर करता है, जो अपने समाज की परंपराओं का पालन करते हैं, जीवनसाथी के प्रति प्रेम एवं आदर का प्रदर्शन करते हैं एवं हर समाज हर उस व्यक्ति के आचरण की भर्त्सना करता है जो समाज की मान्यताओं के प्रतिकूल होता है। अब ऐसे में यदि हिन्दू समाज ने अपनी मान्यताओं का आदर करने वाली तस्वीर को साझा कर लिया तो इसमें किसी को तनिक भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

परन्तु आपत्ति होती है और आपत्ति हर उस व्यक्ति की ओर से आती है जो जाति, वर्ग, प्रांत आदि के आधार पर हिन्दुओं को विभाजित करने की मंशा रखता है। जिसका विमर्श और जिसकी पुस्तकें केवल खंडित हिन्दू समाज ही खरीद सकता है, वह पूरा वर्ग हिन्दू धर्म की उस एकता से भयभीत हो जाता है, जो एक साड़ी, पल्लू और संस्कार स्थापित कर सकते हैं।

रिवाबा ने क्या किया ? कुछ विशेष नहीं ! उन्होंने मात्र वही किया जो एक पत्नी तब करती है जब उसका पति किसी विशेष कार्य को पूर्ण करके आता है और पत्नी के हृदय में पति के कार्य के प्रति आदर इस सीमा तक बढ़ जाता है कि वह सहज ही उसके पैर छू लेती है। यह सहज है, यह आदर भाव है और यह आदरभाव बड़ों के प्रति भी होता है।

रिवा बा चूंकि भारतीय जनता पार्टी से भी जुड़ी हैं, अत: उनपर राजनीतिक घृणा की भी बरसात हुई !

अपने से बड़ों के चरण छूना लोक की परंपरा है, और भारत में इस परंपरा का निर्वहन किया जाना लोक में बहुत ही आम है, जो भी दूसरे को आदर या सम्मान देना चाहता है, वह चरण स्पर्श करता ही है ! बड़ों के प्रति यही आदर भाव ऋतुराज गायकवाड़ की मंगेतर उत्कर्षा के हृदय में चेन्नई सुपरकिंग्स के कप्तान धोनी के प्रति उपजा और उसने भी भरे मैदान में सभी के सामने धोनी के पैर छू लिए ! यह आदर भाव है, यह सम्मान का भाव है। यह परंपराओं से जुड़े होने का भाव है।

परन्तु कथित फेमिनिस्टों को एवं कथित सुधारवादियों को हिन्दू धर्म के इस परंपरा निर्वहन से समस्या है। यह समस्या दरअसल उस आत्महीनता के कारण उत्पन्न हुई है, जो उनके भीतर औपनिवेशिक शिक्षा से उपजा है। यह आत्महीनता का विमर्श उन्हें फीफा विश्व कप में मोरक्को के मुस्लिम खिलाड़ियों की हिजाब पहने हुए माओं को ममता की मूर्ति बताते हैं।

यह विमर्शकार कभी भी हिजाब में आई उन औरतों की बात नहीं करते, बल्कि वह करना भी नहीं चाहते। यह कहा जा सकता है कि वह मोरक्को के खिलाड़ियों से भारत की जनता को क्या लेना ? वह मोरक्को के हैं और यह भारत के ! परन्तु यह विमर्श की बात है।

जब मोरक्को की टीम जीती थी तो उसे उम्माह की जीत बताते हुए भारत और पाकिस्तान के भी मुस्लिम प्रसन्नता से भर गए थे। हालांकि भारत में उम्माह की जीत नहीं बोला गया था, मगर मोरक्को की जीत पर जश्न भारत के भी फुटबाल प्रेमियों ने भी मनाया था।

उससे भी कहीं बढ़कर खिलाड़ियों की तस्वीरें उनकी अम्माओं के साथ साझा हुई थीं, जो मैदान में अपनी मजहबी पोशाक में थीं और जीत के बाद उसी पोशाक में मैदान में जाकर अपने बेटों के गले लग गईं थीं। वह मोरक्को की इस्लामी तहजीब का हिस्सा था, अत: यह उचित था और विवाद होना भी नहीं चाहिए।

भारत में भी खिलाडियों की पत्नियों द्वारा समय-समय पर जीत पर प्रसन्नता व्यक्त करने की परंपरा रही है और जब भी ऐसा होता है कि खिलाडियों की पत्नियां स्टेडियम में मौजूद होते हैं तो लगभग हर महत्वपूर्ण क्षण पर कैमरा उन पर जाता है, और यह लोग अधिकांशत: पाश्चात्य परिधानों में ही दिखाई देती थीं। यदि वह उनकी मर्जी थी, तो क्या रिवाबा का साड़ी और पल्लू उनकी मर्जी में नहीं आता ?

जब मोरक्को के खिलाड़ियों की अम्मियां हिजाब में मैचों में मौजूद रहीं तो उनके देश में उनके मजहबी परिधानों पर कोई विवाद नहीं हुआ और न ही विमर्श चले कि आखिर हिजाब में क्यों महिलाएं वहां पहुंचीं ?

रिवाबा के साड़ी और पल्लू पर विवाद वही लोग कर रहे हैं, जो हिन्दू लड़कियों को विवाह से पहले यौन संबंधों के लिए प्रेरित करने वाले विमर्श के लिए तैयार कर रहे हैं, जिनके लिए लड़कियों का परंपराओ का पालन करना पिछड़ापन है और जिनका अपना जीवन एक अजीब कुंठा से भरा हुआ है।

यह वही लॉबी है जो माई बॉडी माई चॉइस का नारा लेकर यौन संबंधों को विवाह से पृथक करती है, जिसके लिए लड़की का शारीरिक विकास महत्वपूर्ण नहीं है, जिसके लिए लड़की का मानसिक विकास भी महत्वपूर्ण नहीं है, जिनके लिए मात्र अपना एजेंडा ही महत्वपूर्ण है।

मजे की बात यह है कि इस लॉबी के लिए सना खान का मौलवी से निकाह करना आदर्श या मैटर ऑफ चॉइस है, दीपिका कक्कड़ का निकाह के बाद शोएब का इंतजार करना मैटर ऑफ चॉइस है, मगर रिवाबा का साड़ी पहनकर, पल्लू रखकर अपने पति का आदर करते हुए पैर छूना पिछड़ापन है !

दुर्भाग्य की बात यही है कि जाइरा वसीम का अभिनय छोड़ना और नकाब के माध्यम से डिनर करना, मैटर ऑफ चॉइस इस लॉबी के लिए होता है, परन्तु रिवा बा जडेजा का साड़ी और पल्लू में होना पिछड़ापन !

ये मैटर ऑफ चॉइस का रास्ता एकतरफा क्यों है और हिन्दू लोक परंपराओं का निरादर करना क्यों है ?

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