शिवाजी हमारे देश के ऐसे महापुरुष थे, जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है। उनके व्यक्तित्व में मानवता तो कूट-कूट कर भरी ही हुई थी, उनका राजनीतिक चातुर्य, रण-कौशल और साहस भी देखने योग्य था। उन्होंने विधर्मी शासक के विरुद्ध अस्थायी और खोखला नहीं, बल्कि सशक्त सैन्य संगठन खड़ा किया। उस समय काशी विद्यापीठ के महान आचार्य वेदोनारायण विश्वेश्वर उपाख्य गंगाभट्ट ने, शिवाजी के गुणों को निकट से देखा। अपनी ‘शिव प्रशस्ति’ में उन्होंने शिवाजी को ‘य: क्षात्रधर्मस्य नवावतार:’ कहा है। शिवाजी के गुरु और मार्गदर्शक समर्थ गुरु रामदास की दृष्टि में भी वे ‘श्रीमत योगी’ अर्थात् राजयोगी थे।
सामयिक दृष्टि
शिवाजी की राजनीतिक सूझ-बूझ और सैन्य क्षमता ने उन्हें एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा तैयार करने का श्रेय प्रदान किया। उन्होंने अपने देश के समुद्र तटों तथा उनकी रक्षा के लिए नौसेना के महत्व को उन्होंने समझा। वे एकमात्र ऐसे सेनापति थे जिन्होंने अंग्रेज, डच, फ्रेंच आदि सत्ताओं से स्वराज्य के लिए खतरा अनुभव किया। परिणामस्वरूप, उन्होंने एक शक्तिशाली जहाजी बेड़े के निर्माण का संकल्प लिया और 20 वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद उनका यह संकल्प मूर्त हुआ। अपने कोंकण अभियान द्वारा उन्होंने यूरोपीय एवं सिद्दी समुद्री व्यापारियों पर अपनी धाक जमाई। म्लेच्छ शासक आदिलशाह के अधीनस्थ कारवार और मंगरूल जिले के ही शिवेश्वर, सदाशिवगढ़, कडवा (कारवार), अंकोले, गोकर्ण, कुमठे, होन्नावर तथा बसरूर तक उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई
‘नौसेना एक स्वतंत्र राज्यांग ही है। जिसके पास शक्तिशाली नौसेना, उसी का सागर।’ अंग्रेजों को, जिन्हें अपनी नाविक शक्ति पर बड़ा गर्व था, भारत के समुद्री युद्ध में सबसे पहले शिवाजी से ही पराजित होना पड़ा। यह शिवाजी की नौसेना की ही उपलब्धि थी कि सभी तरह के बाहरी समुद्री व्यापारियों पर नियंत्रण संभव हो सका। शायद अपनी नौसैन्य दृष्टि के कारण ही शिवाजी ने रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया, जहां से समुद्रतट मात्र 30 मील की दूरी पर था।
अंग्रेजों की लाचारी
मुंबई के पास स्थित खांदेरी-उंदेरी नामक द्वीपों के कारण उनका अंग्रेजों से सामना हुआ। अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की कि इन द्वीपों पर शिवाजी का अधिकार न हो, लेकिन उनकी सक्षम नौसेना के सामने उनकी एक न चल सकी। शिवाजी ने, विशेषकर मुंबई के निकट स्थित खांदेरी द्वीप के लिए अंग्रेजों से कड़ा मुकाबला किया, अंतत: जीत उन्हें ही मिली। इन द्वीपों की रक्षा के लिए उन्होंने जलदुर्गों का निर्माण करवाया।
ये जलदुर्ग महाराष्ट्र के समुद्र तट की रक्षा में बड़े उपयोगी सिद्ध हुए। उनके जलदुर्गों में सिंधु दुर्ग, विजय दुर्ग, अलीबाग और पद्म दुर्ग प्रमुख हैं। जलदुर्गों के निर्माण के स्थानों के चयन में भी उनकी सूक्ष्म और दूरदृष्टि प्रशंसा के योग्य है। जलदुर्गों के द्वारा उन्होंने विदेशियों के लिए खुले समुद्री मार्गों पर रोक लगायी। भारत के इतिहास में नौसेना संबंधी इतना प्रभावी कार्य कभी नहीं हुआ था। मालवण के कुरटे नामक द्वीप पर पानी में बनाये गये सिंधु दुर्ग का महत्व तो इतना अधिक है कि बखरकार (मराठी इतिहासकार) ने उसे ‘टोपी वालों के सीने पर प्रत्यक्ष शि लंका’ कहा है।
नौसेना की सार्थकता
शिवाजी के समय नौसेना को राज्य का एक स्वतंत्र अंग माना गया था। इस संबंध में रामचंद्र पंत अमात्य के अनुसार – ‘नौसेना एक स्वतंत्र राज्यांग ही है। जिसके पास शक्तिशाली नौसेना, उसी का सागर।’ अंग्रेजों को, जिन्हें अपनी नाविक शक्ति पर बड़ा गर्व था, भारत के समुद्री युद्ध में सबसे पहले शिवाजी से ही पराजित होना पड़ा। यह शिवाजी की नौसेना की ही उपलब्धि थी कि सभी तरह के बाहरी समुद्री व्यापारियों पर नियंत्रण संभव हो सका। शायद अपनी नौसैन्य दृष्टि के कारण ही शिवाजी ने रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया, जहां से समुद्रतट मात्र 30 मील की दूरी पर था।
सिद्धोजी गुर्जर
1693 में छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर योद्धा सिद्धोजी गुर्जर, सरखेल (नौसेना अध्यक्ष) ने सुवर्णदुर्ग और विजयदुर्ग के नौसैनिक किलों पर कब्जा किया। भारतीय नौसेना को सशक्त बनाने में सिद्धोजी गुर्जर का प्रमुख योगदान रहा है। सिद्धोजी गुर्जर ने पुणे के सिंहगढ़ किले की भी रक्षा की थी, जहां मुगलों से लड़ कर आ रहे संताजी घोरपड़े को उन्होंने आराम करने का स्थान दिया।
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