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हिन्दुस्थान का गौरव है हिन्दू पद पादशाही

उत्तर में मुगल, दक्षिण में आतताई निजाम, आदिलशाह और कुतुबशाही के शासन से त्रस्त जनता को मुक्ति दिलाने के लिए शिवाजी ने 15 वर्ष की अल्पायु से ही संघर्ष प्रारंभ कर दिया और 29 वर्ष के निरंतर संघर्ष के बाद अंतत: हिन्दू पद पादशाही की स्थापना की

by डॉ. महावीर प्रसाद जैन
Jun 2, 2023, 08:15 am IST
in भारत, विश्लेषण
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शैशव काल से ही जीजाबाई द्वारा रामायण, महाभारत आदि के उदाहरणों से शिवाजी के मन में आतताई मुस्लिम शासकों की नौकरी करने के बजाय देश को उनसे मुक्त करके स्वराज्य स्थापना के संस्कार उत्पन्न किये जाने लगे।

सावरकर द्वारा अपनी पुस्तक ‘हिन्दू पद पादशाही’ में शिवाजी के प्रयास को हिन्दवी स्वराज्य के लिए संघर्ष बताना अत्यंत उचित ही है। सत्रहवीं सदी में उत्तर भारत पर अत्याचारी मुगल साम्राज्य और दक्षिण में उतनी ही अत्याचारी निजामशाही, आदिलशाही और कुतुबशाही के शासन से समाज त्रस्त था और सुदूर दक्षिण में विजयनगर का हिन्दू राज्य अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। शैशव काल से ही जीजाबाई द्वारा रामायण, महाभारत आदि के उदाहरणों से शिवाजी के मन में आतताई मुस्लिम शासकों की नौकरी करने के बजाय देश को उनसे मुक्त करके स्वराज्य स्थापना के संस्कार उत्पन्न किये जाने लगे।

डॉ. महावीर प्रसाद जैन
सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं इतिहास संकलन योजना की केंद्रीय टीम के सदस्य

वर्ष 1629 में, जब शिवाजी गर्भ में थे, निजामशाह के आदेश से जीजाबाई के पिता लेखूजी और उनके भाइयों की हत्या कर दी गई थी। 1636 में, जब शिवाजी 6 वर्ष के थे, उनके पिता शाहजी को बीजापुर के आदिलशाह ने दक्षिण में राज्य विस्तार के लिए नियुक्त किया।

तोरणा की पहली जीत
शिवाजी ने 15 वर्ष की अल्पायु में पूना के समीप सह्याद्रि पर्वत माला के पर्वतीय क्षेत्र के मावल युवकों को स्वराज्य प्राप्ति के लिए संगठित करने का अभियान प्रारम्भ किया। एक वर्ष बाद ही 1646 में वह समुद्रतल से लगभग 4600 फुट की ऊंचाई पर स्थित तोरणा के दुर्गम दुर्ग को जीतने में सफल रहे। इसे उन्होंने प्रचंडगढ़ नाम दिया।

यहां से मिले खजाने से राजगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया। इस विजय के साथ शिवाजी के 370 दुर्गों पर अधिकार के अभियान का प्रारम्भ हुआ। अगले दो वर्षों में उन्होंने पूना के समीप पुरन्दर और कोंढाणा के पहाड़ी दुर्गों और चाकण के मैदानी दुर्ग सहित कई महत्वपूर्ण दुर्गों पर अधिकार किया।

शिवाजी की इन गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आदिलशाह ने शाहजी को बंदी बना लिया। 1649 में शिवाजी को पिता की रिहाई के लिए कोंढाणा का महत्वपूर्ण दुर्ग लौटाना पड़ा। 1649 से 1656 तक शिवाजी ने अपनी आक्रामक गतिविधियों रोक दीं। 1656 में उन्होंने 18 वर्षीय अली आदिलशाह के बीजापुर गद्दी पर बैठने के पश्चात मुगलों द्वारा बीजापुर के विरुद्ध अभियान प्रारम्भ किये जाने का लाभ उठा कर पुन: विजय अभियान प्रारम्भ किया। 1656 में उन्होंने आदिलशाह के जागीरदार चन्द्रराव मोरे को मारकर महाबलेश्वर के निचले इलाके में जावली पर अधिकार कर लिया।

हिंदू जागीदारों का संगठन
भोंसले और मोरे परिवारों के अतिरिक्त कई अन्य, जैसे सावंतवाड़ी के सावंत, मुधोल के घोरपड़े, फलटण के निम्बालकर तथा शिर्के, माने, मोहिते आदि देशमुख परिवार आदिलशाह की सेवा में थे। शिवाजी ने इन्हें वश में करने के लिए कुछ के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, कुछ के विरुद्ध बल प्रयोग किया और कुछ के अधीन पाटिलों के साथ सीधे संपर्क कर आदिलशाह के विरुद्ध संगठित होने को तैयार किया।

शिवाजी की सफलताओं से घबराकर आदिलशाह ने उनके विरुद्ध अफजलखां को विशाल सेना देकर भेजा। उसने शिवाजी को प्रतापगढ़ किले में घेर लिया और उन्हें किले से बाहर निकलने को उकसाने के लिए अनेक मंदिरों को भ्रष्ट किया (जिनमें तुलजापुर के तुलजा भवानी और पंढरपुर के विठोबा जैसे मंदिर भी थे) और लोगों पर अकथनीय अत्याचार किये। किन्तु शिवाजी ने अपना संयम बनाये रखा और 10 नवम्बर 1659 को किले के नीचे संधि वार्ता के लिए मिलने जाने का खतरा उठा कर अफजलखां का वध किया। इसके पश्चात हुए युद्ध में आदिलशाह की अधिकांश सेना नष्ट हुई और उसके राज्य के अनेक दुर्ग शिवाजी ने जीत लिये। जुलाई 1660 में आदिलशाह की विशाल सेना द्वारा शिवाजी को पन्हाला दुर्ग में घेर लेने पर बाजी प्रभु और उनके सैनिकों ने बलिदान देकर शिवाजी की रक्षा की।

मुगलों से संघर्ष
शिवाजी की शक्ति का दमन करने के लिए जनवरी 1660 में औरंगजेब ने अपने मामा शाइस्ता खां को दक्कन का सूबेदार बनाकर भेजा। उसने लगभग तीन वर्ष तक महाराष्ट्र में आतंक का राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात शिवाजी द्वारा 5 अप्रैल 1663 को खतरा उठाकर उस पर सफल रात्रि आक्रमण कर उसके पुत्र का वध किया और शाइस्ता खां के भागते समय उसका अंग भंग कर दिया। इस दौरान कृषकों और व्यापारियों को हुई हानि की भरपाई के लिए शिवाजी ने मुगल साम्राज्य के सबसे समृद्ध नगर सूरत के व्यापारियों से धन वसूलने के लिए जनवरी 1664 में सफल अभियान किया।

शिवाजी द्वारा भव्य समारोह के साथ राज्यारोहण और छत्रपति की उपाधि धारण करना भारतीय इतिहास की महान घटना है। इससे देश भर के हिन्दुओं में नई आशा का संचार हुआ। इसके पश्चात उन्होंने 6 वर्ष और शासन किया। उन्होंने 1677 में दक्षिण का अभियान किया और बैंगलोर, होस्कोट, जिंजी, वेल्लोर आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों को जीता। हिन्दू पद पादशाही के लिए शिवाजी का यह संघर्ष हमारे इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।

अब औरंगजेब ने शिवाजी की बढ़ती शक्ति के दमन के लिए 1665 में जयपुर के राजा जयसिंह को विशाल सेना दे कर भेजा। शिवाजी पुरंदर के दुर्ग में घेर लिये गए। इस समय शिवाजी ने जयसिंह को मुगलों का साथ छोड़ने और हिन्दू शक्तियों को संगठित करने का प्रयास करने हेतु परामर्श देते हुए एक विस्तृत पत्र लिखा जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। किंतु जयसिंह ने इस पर ध्यान नहीं दिया। संकट की स्थिति में उन्होंने अपने 23 किले देकर समझौता किया।

अब उनके पास केवल 12 दुर्ग ही बचे। इसके पश्चात औरंगजेब द्वारा आमंत्रित किये जाने पर शिवाजी आगरा गये। उनके बंदी बनाये जाने और घोर संकट में धैर्य रखते हुए 17 अगस्त 1666 को पुत्र सहित आगरा से निकल कर 40 दिन में मुगल साम्राज्य से गुजरते हुए राजगढ़ पहुंचने की घटना सुप्रसिद्ध है।

इसके दो वर्ष के भीतर ही शिवाजी ने खोया क्षेत्र वापस जीत लिया, सेना को पुनर्गठित किया और नवाचार के रूप में सामरिक और व्यापारिक उद्देश्यों के लिए नौसेना का गठन किया। 1665 में समझौते के तहत मुगलों को दिए गए कोंढाणा (सिंहगढ़) दुर्ग को 1670 में तानाजी मालुसरे ने अपने प्राण देकर जीता।

6 जून 1674 को नयी परम्पराओं का निर्माण कर राजगढ़ में शिवाजी द्वारा भव्य समारोह के साथ राज्यारोहण और छत्रपति की उपाधि धारण करना भारतीय इतिहास की महान घटना है। इससे देश भर के हिन्दुओं में नई आशा का संचार हुआ। इसके पश्चात उन्होंने 6 वर्ष और शासन किया। उन्होंने 1677 में दक्षिण का अभियान किया और बैंगलोर, होस्कोट, जिंजी, वेल्लोर आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों को जीता। हिन्दू पद पादशाही के लिए शिवाजी का यह संघर्ष हमारे इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।

तानाजी मालुसरे

शिवाजी के बालसखा तानाजी मालुसरे मराठा सेना में कोली सूबेदार थे। फरवरी 1670 में वे अपने पुत्र रायबा के विवाह की तैयारी में जुटे थे। निमंत्रण देने जाने पर पता चला कि कोन्ढाणा पर चढ़ाई की योजना बन रही है। तानाजी ने पुत्र के विवाह को छोड़ धावा बोलने का निश्चय किया। 342 सैनिकों के साथ घनी अंधेरी रात में घोरपड़ नामक सरीसृप की मदद से किले पर चढ़ गये। किलेदार उदयभान राठौड़ की 5000 की मुगल सेना से जमकर युद्ध हुआ और मराठा सेना ने कोन्ढाणा किला जीत लिया। परंतु तानाजी बलिदान हो गये। इस पर शिवाजी ने कहा कि ‘गढ़ आला, पण सिंह गेला’।

बाजी प्रभु देशपाण्डे

बाजी प्रभु देशापण्डे के पिता, हिरडस मावल देश के कुलकर्णी थे। बाजी के पराक्रम को देख शिवाजी ने उन्हें अपनी सेना में उच्चपद पर रखा। वर्ष 1648 से 1656 तक उन्होंने शिवाजी के साथ रहकर पुरंदर, कोंढाणा, राजापुर, रोहिडा, जवाली और मावला के किले जीतने में पूरी मदद की। 1660 में मुगल, आदिलशाह और सिद्दीकी इत्यादि ने शिवाजी को चारों तरफ से घेर लिया। तब बाजी शिवाजी को पन्हाला किले से निकाल स्वयं घोड की घाटी के द्वार पर डटे रहे। तीन-चार घंटे तक घनघोर युद्ध हुआ। स्वयं बाजी प्रभु मरणासन्न हो गये। जब शिवाजी ने रोगणा पहुंचने का संकेत दिया, तब बाजी ने प्राण त्यागे।

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