पिछले वर्ष फरवरी में डीडब्ल्यू एशिया का एक ट्वीट वायरल हुआ था। वह रिपोर्ट दरअसल पाकिस्तान के ऐसे रिवाज के बारे में थी, जिसका शिकार असंख्य लड़कियां हो रही हैं, परन्तु वह भारत के प्रगतिशील विमर्श से गायब है। यहाँ तक कि उस पर बात तक नहीं की जाती है। वह रिवाज है, कुरआन से लड़कियों की शादी! इस रिवाज का नाम है हक़ बख्शीश!
यह हक़ बख्शीश क्या है और क्या है ऐसा रिवाज, जिसके विषय में अंतर्राष्ट्रीय और पाकिस्तानी मीडिया तो खुलकर इसलिए बात करता है कि वह खत्म हो और लड़कियां अपना जीवन जिएं, मगर भारत में यह विमर्श सिरे से गायब रहता है।
इसमें एक लड़की की कहानी है, जो यह कहती है कि पाकिस्तान के दक्षिण प्रांत सिंध में कुरआन से शादी करने का एक रिवाज है। इसमें लड़की का निकाह कुरआन के साथ पढ़वा दिया जाता है। कई रईस लोग अपनी बहनों और बेटियों का निकाह उनके विरासत के अधिकार को मारने के लिए उनकी शादी कुरआन से कर देते हैं। इस ट्वीट में एक महिला जिसका निकाह कुरआन के साथ हो गया था, वह अपनी कहानी बता रही है।
उस महिला के अनुसार उसे कुछ नहीं पता था, केवल एक ही बात पता थी कि मुझे पहनने के लिए नया जोड़ा मिलेगा! फिर वह कहती हैं कि उनके अब्बू ने उनके हाथों में कुरआन थमा कर कहा कि वह उनकी शादी कुरआन से करा रहे हैं और उनसे कहा कि वह कसम खाएं कि वह किसी और शख्स से शादी की बात नहीं सोचेंगी।
वह कहती हैं कि वह कभी बाहर नहीं निकलीं और सारा दिन घर पर ही रहती हैं। चाहे कुछ हो जाए, वह बाहर नहीं जाती हैं।
पाकिस्तान में मानवाधिकारों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि जागीरदार लोग अपनी बहनों और बेटियों को विरासत से दूर रखने के लिए यह करते हैं, कि कुरआन से लड़की की शादी करा देते हैं और फिर उनके हिस्से की दौलत की खुद देखभाल करते हैं। उन्हें यह डर होता है कि अगर उनकी बेटियों या बहनों की शादी हो जाएगी तो कुछ हिस्सा ही सही, वह हिस्सा बाहर चला जाएगा।
हालांकि इस रिवाज पर पाकिस्तान ने रोक लगाई हुई है और इसके लिए 7 साल तक की सजा है, मगर फिर भी कहा जाता है कि इसकी रिपोर्ट कराने का साहस किसी के पास नहीं है। मीडिया के अनुसार चूंकि यह अधिकतर सैय्यदों में प्रचलित हैं, तो यह माना जाता है कि इस मामले को गोपनीय रखा जाता है।
वर्ष 2014 में Holy brides or Slaves? Haq bakshish tradition नाम से एक रिपोर्ट bitlanders.com पर प्रकाशित हुई थी। जिसमें यह कहा गया था कि ऐसी महिलाओं को गुलाम, नौकर, बच्चों की देखभाल करने वाली मान लिया जाता है या फिर परिवार की पैदायशी गुलाम मान लिया जाता है।
इस वेबसाईट के अनुसार हक़बख्शीश नामक यह रिवाज सिंध और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में फ़ैली हुई है और यह भी कहा जाता है कि हालांकि पाकिस्तानी यह मानते हैं कि यह रिवाज अभी पाकिस्तान में नहीं है, मगर सूत्रों के अनुसार वर्ष 2014 तक ऐसी दस हजार लड़कियां केवल सिंध में थीं जिनकी शादी कुरआन से हुई थी और वर्ष 2014 तक हर वर्ष लगभग हजार लड़कियों को इसी पीड़ा की आग में झोंका जा रहा था।
वर्ष 2007 में ‘द न्यू ह्यूमैनिटेरियन’ ने 25 वर्षीय फरीबा की कहानी बताते हुए कहा था कि उसकी शादी कुरआन से हुई थी। इसमें उसकी कजिन जुबैदा अली ने फरीबा की उस शादी के बारे में बात करते हुए कहा था कि “यह बहुत अजीब था। फरीबा जो बहुत प्यारी लड़की थी और उसकी उम्र 25 वर्ष की थी उसे दुल्हन की तरह सजाया गया था, और हाथों एवं पैरों पर मेहंदी भी लगाई गयी। उस दिन खूब मेहमान थे, मगर दूल्हा नहीं था।”
फरीबा की शादी कुरआन से करा दी गयी और फरीबा अब किसी और से शादी नहीं कर सकती है। वह अपना अधिकतर समय या तो कुरआन को पढने में या फिर सिलाई करने में बिताती है। वह हाफिजा है!
इस रिपोर्ट में भी यही लिखा था कि सैय्यद परिवार अधिकतर अपने परिवार की बेटियों की गैर सैय्यदों में शादी नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि वह दूसरों से खुद को बेहतर नस्ल का मानते हैं। और जब उन्हें परिवार में अपनी बहनों या बेटियों के लिए कोई ठीक रिश्ता नहीं मिलता है और ऐसा लगता है कि परिवार से बाहर शादी करने पर उनकी दौलत परिवार से बाहर चली जाएगी तो वह लड़कियों की शादी कुरआन से करा दते हैं।
मगर चूंकि इसकी आलोचना इस्लामिक विद्वान करते हैं, तो यह रिवाज अधिकतर गुपचुप ही किया जाता है।
इस रिपोर्ट में तो यह तक दावा किया गया था कि सिंध के कुछ प्रमुख राजनीतिक खानदान भी इस रिवाज का पालन कर रहे हैं, हालांकि जब इन लोगों से पूछा गया तो उन्होंने इंकार कर दिया था।
इस रिवाज को गैर-इस्लामिक कहा जाता है और पाकिस्तान में इस पर बात, बहस होती है एवं इसपर पाबन्दी भी लगाई हुई है। मगर यह देखकर हैरानी होती है कि महिलाओं के प्रति इस गैर-इस्लामिक रिवाज पर भी भारत में उस प्रगतिशील लेखक वर्ग पूरी तरह से मौन साधे रहता है, जो पाकिस्तान की छोटी छोटी बातों पर तारीफों के पुल बांधता है।
इस सम्बन्ध में पाकिस्तान की लेखिकाएं लिखती हैं, क्योंकि यह रिवाज एक उपन्यास “द होली वुमन” के बाद से ही विमर्श में आया था, जिसे कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान मूल की ब्रिटिश लेखिका कसीरा शाहराज ने लिखा था। इसमें ऐसी महिला की कहानी बताई गयी थी, जिसकी शादी इस तरह से करा दी जाती है।
मगर एक ही इतिहास को साझा करने वाले दो देश और पाकिस्तान के प्रति रूमानियत से भरे प्रगतिशील लेखक कभी इस विमर्श और पीड़ा को साझा क्यों नहीं करते हैं? यह शोध का विषय है।
Leave a Comment