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सावरकर : एक समग्र मूल्यांकन

वीर सावरकर जी एक ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी थे। अंग्रेज उनसे सर्वाधिक भयभीत एवं आशंकित रहते थे। इसका प्रमाण उन्हें मिली दो-दो आजीवन कारावास की सजा थी।

by प्रणय कुमार
May 28, 2023, 05:50 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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महापुरुष कभी मरते नहीं। वे समाज और राष्ट्र की स्मृतियों, प्रेरणाओं, आचरणों और आदर्शों में सदैव जिंदा रहते हैं। वे देशवासियों की धमनियों में लहू की तरह प्रवाहित रहते हुए उन्हें गति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं। वीर सावरकर भी एक ऐसे ही महान स्वतंत्रता सेनानी थे। संपूर्ण स्वतंत्रता-आंदोलन में सावरकर जैसी प्रखरता, तार्किकता एवं तेजस्विता अन्यत्र कम ही दिखाई पड़ती है। अंग्रेज उनसे सर्वाधिक भयभीत एवं आशंकित रहते थे। इसका प्रमाण उन्हें मिली दो-दो आजीवन कारावास की सजा थी। वे उन विरले देशभक्तों में थे, जिनके अन्य दोनों सहोदर भाइयों ने भी स्वतंत्रता-आंदोलन में बढ़-चढ़कर योगदान दिया था। बल्कि तीन में से दो को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। बाल्य-काल से ही राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता उनके संस्कारों में रची-बसी थी। बहुत छोटी आयु से ही उन्होंने अपने गृह जनपद के किशोरों एवं तरुणों में देशभक्ति की भावना जागृत करने के उद्देश्य से ‘मित्र-मेला’ का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते-करते उनमें इतनी वैचारिक तीक्ष्णता, सांगठनिक कुशलता उत्पन्न हो गई थी कि उन्होंने 1901 में महारानी विक्टोरिया की शोकसभा का संपूर्ण नासिक में बहिष्कार किया और इसमें उन्हें किशोरों एवं तरुणों को साथ लाने में अभूतपूर्व सफलता मिली।

1902 में जब ब्रिटिश उपनिवेशों में एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी का उत्सव मनाया जा रहा था तो तरुण सावरकर ने अपने जनपद में उसका विरोध किया। उनका मानना था कि अपने देश को गुलाम बनाने वालों के उत्सव में हम क्यों सम्मिलित हों ! 1904 में उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ही ब्रिटिश राज्य का विरोध करना था। 1905 में युवाओं का नेतृत्व करते हुए उन्होंने लॉर्ड कर्जन द्वारा पंथ के आधार पर बंग-भंग किए जाने का संपूर्ण महाराष्ट्र में विरोध किया। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई तथा पूर्ण स्वराज का मांग की। वे स्वदेशी के अगुवा थे। 1906 आते-आते जहां एक ओर राष्ट्रीय फलक पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक तेजस्वी व्यक्तित्व के रूप में छाए हुए थे, ठीक उसी कालखंड में महाराष्ट्र के सभी युवाओं के बीच वीर सावरकर का नाम प्रखर देशभक्त के रूप में तेजी से उभरने लगा था। 1906 में ही लोकमान्य तिलक के प्रयासों से उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली और वे वक़ालत की पढ़ाई के लिए भारत से लंदन गए। लंदन में भी उन्होंने ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ का गठन कर संपूर्ण भारतवर्ष से अध्ययन के लिए वहां पहुंचने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के बीच भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयास ज़ारी रखा। वहीं से उन्होंने अपने लेखों, पत्रों कविताओं आदि के माध्यम से भारत वर्ष में अभिनव भारत की गतिविधियों को भी सक्रिय रखा। उन्होंने वहां लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण वर्मा, मैडम भीखाजी कामा, मदनलाल धींगड़ा, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भाई परमानंद, सरदार सिंह राणा, वीवीएस अय्यर, निरंजन पाल, एमपीटी आचार्य आदि क्रांतिकारियों के साथ ‘भारत-भवन’ में देश की स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों का लगभग नेतृत्व-सा किया। 1906-07 में उन्होंने इटली के महान क्रांतिकारी ज्युसेपे मेत्सिनी की पुस्तक का अनुवाद किया।

1907-08 में लंदन के एक पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण कर, ब्रिटिश दस्तावेजों को खंगाल उन्होंने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक महत्त्वपूर्ण एवं शोधपरक पुस्तक लिखी, जो दुनिया की पहली ऐसी पुस्तक थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया। ब्रिटिश पुलिस की कड़ी निगरानी एवं गहन छानबीन के कारण ब्रिटेन तथा भारत में न छप पाने पर उसे फ्रांस, जर्मनी से प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया और वहां भी विफलता हाथ लगने पर अंततः वह पुस्तक हॉलैंड से छपकर आई और छपते ही ‘1857 के विद्रोह’ को प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की संज्ञा मिली। उससे पूर्व अंग्रेज उसे गदर या सिपाही विद्रोह कहकर खारिज करते थे। 1909 में महान देशभक्त एवं क्रांतिकारी मदनलाल धींगड़ा ने जब भारतीय विद्यार्थियों को सर्विलांस पर रखने वाले ब्रिटिश सैन्य अधिकारी सर विलियम हट कर्जन वायली की हत्या की तो सावरकर ने उनका मुकदमा लड़ना स्वीकार किया। लंदन टाइम्स में लेख लिखकर उन्होंने वायली की हत्या को न्यायोचित तथा धींगरा की फांसी को अन्यायपूर्ण ठहराया और जब ब्रिटिशर्स ने एक बंद कमरे में बहस कर मदनलाल धींगड़ा को फांसी की सजा सुना दी तो वीर सावरकर ने वहां रह रहे सभी भारतीय विद्यार्थियों को एकजुट कर ब्रिटिश सरकार के इस अन्यायपूर्ण फैसले का विरोध किया। अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा के उस अंतिम-ओजस्वी कथन को भी उन्होंने इंग्लैंड के विभिन्न कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में प्रचारित-प्रसारित किया, जो युवाओं में त्याग, बलिदान एवं स्वतंत्रता की प्रेरणा जगाते थे।

अंग्रेज उसे किसी कीमत पर सार्वजनिक नहीं होने देना चाहते थे। इतना सब होने के बाद स्वाभाविक था कि ब्रिटिश शासन की आंखों में वे खटकने लगे, उन्हें गिरफ्तार कर भारत लाया जाने लगा, पर सावरकर का पौरुष एवं साहस इतना अदम्य था कि वे फ्रांस स्थित एक बंदरगाह मार्सिले के समीप जहाज़ से छलाँग लगाकर समुद्र में कूद पड़े और तैरकर तट पर पहुँच गए। अंग्रेजी भाषा में कहे गए आग्रह को न समझ पाने के कारण फ्रांसीसी तटरक्षकों ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर अंग्रेजों को सौंप दिया। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच मकदमा चला, जिसमें फैसला ब्रिटेन के पक्ष में सुनाया गया। वहां से उन्हें भारत लाया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया और नासिक के जिला-कलेक्टर जैक्सन की हत्या का भी उन पर आरोप मढ़ा गया। उन्हें और उनके बड़े भाई को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 1911 से 1921 तक वे कालापानी की असह्य यातना भुगतते हुए अंडमान के सेलुलर जेल में बंद रहे। जहां अन्य राजनीतिक कैदियों को जेल में न्यूनाधिक सुविधाएं उपलब्ध होती थीं, वहीं कालेपानी की सजा प्राप्त कैदी हवा-पानी-रोशनी तथा रूखा-सूखा भोजन के लिए भी तरसाए और तड़पाए जाते थे। उन्हें दिन-दिन भर या तो कोल्हू चलाना पड़ता था या नारियल जूट की रस्सी बनानी पड़ती थी। रस्सी बुनते-बुनते उनके हाथ व कोल्हू खींचते-खींचते पीठ लहूलुहान हो उठते थे और यदि कोई क्षण भर विश्राम के लिए रुकता तो उस पर कोड़ों की बौछार की जाती थी।

ऐसी अमानुषिक यातनाओं से उन स्वतंत्रता-सेनानियों को गुजारा जाता था कि कई बार उनके मन में आत्महत्या तक के विचार कौंधते थे। सावरकर ने स्वयं स्वीकार किया कि उनके मन में भी आत्महत्या के विचार आए, पर उन्होंने तय किया कि कारावास की काल-कोठरियों में कैद रहते हुए घुट-घुटकर मर जाने से बेहतर है देश के लिए जीना, बाहर निकल देश की स्वतंत्रता के लिए यथासंभव प्रयास करना। एक ओर बाल गंगाधर तिलक एवं कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ राजनेताओं ने वीर सावरकर की मुक्ति के लिए प्रयास किए तो दूसरी ओर देश भर से सत्तर हजार लोगों ने उनकी मुक्ति के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों को अर्जियां भेजीं। उन जैसे प्रखर देशभक्त पर सेलुलर जेल में होने वाले अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध देश भर में आक्रोश एवं अंसतोष पनपने लगे। अंततः ब्रिटिश सरकार उन्हें रिहा करने को तैयार हुई, मगर कुछ शर्त्तों एवं शपथ-पत्र के साथ। उसे ही कुछ राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं ने निहित स्वार्थों की पूर्त्ति के लिए उनके माफीनामे के रूप में प्रचारित कर उनकी छवि को चोट पहुंचाने की चेष्टा की। सत्य कुछ भिन्न एवं इतर होने के बावजूद उन पर यह कथित आरोप लगाया जाता रहा है कि उन्होंने तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से माफी मांगी थी, उनकी शान में कसीदे पढ़े थे और उनके प्रति राजभक्ति की कसमें खाईं थीं। यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र में आरोप लगाओ और भाग जाओ की प्रवृत्ति प्रचलित रही है।

उसके लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने का आदर्श कोई सामने नहीं रखता। क्या उन आरोपों को तर्कों एवं तथ्यों की कसौटी पर नहीं कसा जाना चाहिए ? सबसे पहले माफीनामे, सामान्य याचिका या शपथ-पत्र में अंतर को हमें समझना होगा। उस समय राजनीतिक कैदियों को कारावास से मुक्त होते समय भविष्य में शिष्ट-शालीन-अनुशासित बने रहने का शपथ-पत्र या बंध-पत्र (बांड) भरकर देना होता था। याचिकाएं दायर करनी होती थीं। ऐसी याचिका एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया होती थी, उसे दया-याचिका कहकर प्रचारित-प्रसारित करना सावरकर जैसे प्रखर देशभक्त एवं त्यागी-तपस्वी-बलिदानी व्यक्तित्व का घोर अपमान है। प्रथम विश्व युद्ध में जीत के पश्चात ब्रिटेन के महाराजा जॉर्ज पंचम द्वारा दुनिया के अन्य ब्रिटिश उपनिवेश समेत भारत में भी राजबंदियों को रिहा करने की शाही घोषणा की गई, उन्हें याचिका दायर करने का अवसर दिया गया। वे समय-समय पर ऐसी अतिरिक्त उदारता का प्रदर्शन करते रहते थे ताकि अंग्रेजों की तथाकथित आभिजात्यता या श्रेष्ठता का पूरी दुनिया में प्रचार-प्रसार कर सकें और स्वयं को साम्राज्यवादी सत्ता का अधिष्ठाता नहीं, लोकतंत्र का पोषक बताएं।

इस शाही घोषणा के बाद भारत में ऐसी याचिका या शपथ-पत्र केवल सावरकर ने ही नहीं, अपितु तमाम राजनीतिक कैदियों ने भरकर दिए थे। बल्कि सेलुलर जेल में बंद अन्य अनेक राजनीतिक कैदियों को रिहा करने के लिए सावरकर ने ही उनकी ओर से ब्रिटिश शासन को पत्र लिखा था। उन्होंने वर्ष 1917 में लिखे अपने एक पत्र में यहां तक कहा था कि ”यदि उनकी रिहाई अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई के मार्ग में बाधा हो तो ब्रिटिश सरकार उन्हें छोड़कर अन्य राजबंदियों को जेल से छोड़ने पर गंभीरता एवं सकारात्मकता से विचार करे।” एक सत्य यह भी है कि यह पिटीशन, जिसे उनके विरोधी ‘मर्सी पिटीशन’ कहकर प्रचारित करते हैं तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की सहमति से दायर की गई थी। बिपिनचंद्र पाल की अध्यक्षता में तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व एवं संगठन द्वारा भी प्रस्ताव पारित कर सावरकर को रिहा करने की याचिका ब्रिटिश सरकार को भेजी गई थी। कलांतर में भाकपा के संस्थापक श्रीपाद डांगे, महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल व बारीन्द्र घोष भी ऐसी ही ‘पिटीशन’ के आधार पर सेलुलर जेल से रिहा हुए थे। मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को नाभा जेल से रिहा कराने के लिए ऐसा ही बंध-पत्र (बांड) तत्कालीन वायसराय को भरकर दिया था।

25 जनवरी 1920 को स्वयं गांधी जी ने वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण राव को पुनः याचिका दायर करने की नसीहत दी थी। 26 मई 1920 को उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लंबा लेख लिखकर सावरकर बंधुओं की रिहाई की मांग उठाई थी। और फिर हमें यह याद रखना चाहिए कि किसी एक पत्र, याचिका से किसी राष्ट्रनायक का महत्त्व या योगदान कम नहीं होता ? उनकी यह याचिका उनकी रणनीति का हिस्सा भी तो हो सकती है ! बल्कि रणनीतिक योजना ही थी। क्या शिवाजी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए चार-चार माफीनामे के पत्र से उनका महत्त्व कम हो जाता है ? कालेपानी की सजा भोगते हुए गुमनाम अंधेरी कोठरी में घुट-घुटकर मरने की प्रतीक्षा करने और निष्क्रिय जीवन जीने से बेहतर तो यही था कि बाहर निकल सक्रिय-सार्थक-सोद्देश्य और राष्ट्र, समाज एवं संस्कृति को समर्पित जीवन जिया जाय ! जहां तक ब्रितानी हुकूमत की कथित तारीफ या उनके प्रति राजभक्ति की बात है तो अव्वल तो यह आरोप ही निराधार एवं अनर्गल है, क्योंकि ऐसा कुछ होता तो ब्रिटिश शासन उन्हें सशर्त्त क्यों रिहा करती, उन्हें 5 वर्ष के स्थान पर बढ़ा-बढ़ाकर 13 वर्ष तक रत्नागिरी जिले में तमाम शर्त्तों एवं कठोर पाबंदियों के साथ नजरबंद क्यों रखती, उनके प्रति कोई विशेष छूट या उदारता क्यों नहीं बरतती ? ब्रिटिशर्स अपने निकटस्थों को जेल में भी कैसी-कैसी सुविधाएं उपलब्ध कराते थे, उनके साथ कितनी उदारता बरतते थे, उन्हें किसी-न-किसी पद पर बिठाकर या प्रतिनिधित्व प्रदान कर कितना-कितना उपकृत करते थे, अपने लोगों को किन-किन सम्मानों एवं पुरस्कारों से नवाजते थे, इतिहास ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है।

यहां तक कि भारत छोड़कर जाते हुए भी उन्होंने अपने लोगों के हित-संरक्षण का पूरा ध्यान रखा। ऐसे तमाम प्रसंग व प्रमाण हैं कि सत्ता-हस्तांतरण से पूर्व वे यह सुनिश्चित कर गए कि उनके लिए जासूसी या मुखबिरी करने वाले लोगों के हितों का स्वतंत्र भारत की सरकार में भी समुचित ध्यान रखा जाय। वहीं लाभ तो दूर, उलटे रिहाई के बाद भी सावरकर की स्नातक और वकालत की डिग्री निरस्त कर दी गई, उन पर कड़ी निगरानी रखी गई, बल्कि वे अकेले ऐसे स्वतंत्रता-सेनानी रहे जो आजादी से पूर्व और बाद की सरकारों द्वारा समान रूप से सर्विलांस पर रखे गए, जो शासन के कोपभाजन के जबरदस्त शिकार रहे। उल्लेखनीय है कि उनकी तुलना में स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने वाले अन्य कई राजनेताओं ने बिना किसी परिस्थितिजन्य विवशता या दबाव के अलग-अलग समयों पर किसी-न-किसी मुद्दे पर बढ़-चढ़कर ब्रिटिश शासन की तारीफ की थी। इन तारीफों को या तो स्वाभाविक या तत्कालीन परिस्थितियों एवं सूझ-बूझ का परिणाम माना गया। फिर सावरकर जी पर एकपक्षीय-अनर्गल आरोप क्यों ? गांधी जी ने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर भिन्न-भिन्न संदर्भों में उनके प्रति आभार प्रदर्शित किया है, उनके प्रति निष्ठा जताई है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से ऐसे पत्र लिखे हैं, जिसमें भारतीयों को अंग्रेजों का वफादार बनने की नसीहत दी गई है, ब्रिटिशर्स द्वारा शासित होने को भारतीयों का सौभाग्य बताया गया है।

उनके तमाम पत्रों व लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे अंग्रेजों के अनेक उपकारों का उल्लेख करते हुए कई बार भाव-विभोर हए हैं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गांधी द्वारा तत्कालीन वायसराय को लिखे गए पत्रों में वे अंग्रेजों की ओर से भारतीय सैनिकों की भागीदारी को उनका फर्ज बताते नहीं थकते ! तो क्या इन सबसे स्वतंत्रता-संग्राम में उनका महत्त्व कम हो जाता है? बल्कि उनके इन सब वक्तव्यों को हम उनकी राजनीतिक कुशलता, स्पष्टवादिता, बड़े ध्येय के लिए अपनाई जाने वाली नीति-युक्ति मानकर बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में स्वीकार करते हैं। यह उचित एवं तर्कसंगत भी है। मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे कांग्रेसी नेताओं या राजा राममोहन राय जैसे अनेकानेक समाज सुधारकों ने तो ब्रिटिश शासन और उनकी जीवन-शैली की खुली पैरवी की, यदि इस आधार पर उनके योगदान को कम करके नहीं आंका जाता तो फिर राष्ट्र के लिए आयु का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण होम कर देने वाले सावरकर पर सवाल और आरोप क्यों ? आंबेडकर भी अनेक अवसरों पर ब्रिटिशर्स की पैरवी कर चुके थे, यहां तक कि स्वतंत्रता-पश्चात दलित समाज को वांछित अधिकार दिलाने को लेकर वे स्वतंत्रता का तात्कालिक विरोध तक कर चुके थे। तो क्या इससे उनका महत्त्व और योगदान कम हो जाता है ? बल्कि इसे भी उन दिनों सामाजिक स्तर पर बरते जाने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार का परिणाम बताकर न्यायसंगत ठहराया जाता है।

कुछ विद्वान और इतिहास के संदर्भों की उथली जानकारी रखने वाले लोग सावरकर की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि उन्होंने 1942 में गांधी जी द्वारा प्रारंभ किए गए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का विरोध किया था। क्या यह सत्य नहीं कि उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद, सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने वाले सी.राजगोपालाचारी, बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर जैसे अनेकानेक नेताओं ने ”भारत छोड़ो आंदोलन” के समय और तरीकों पर तमाम सवाल खड़े किए थे। बल्कि कुछ इतिहासकार तो यहां तक मानते हैं कि 1941-42 के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़े जाने वाले सशस्त्र सैन्य संघर्ष की योजनाओं और प्रयासों के दबाव में बिना किसी सुनियोजित योजना, ठोस रणनीति एवं निर्धारित-सुचिंतित लक्ष्य के ही गांधी जी द्वारा आनन-फानन में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ प्रारंभ कर दिया गया, जिसे कुचलने में अंग्रेजों को चंद सप्ताह भी नहीं लगे। कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और जैसी आशंका थी, पूरा-का-पूरा आंदोलन ही नेतृत्वविहीन हो गया। यदि युवाओं-विद्यार्थियों के हिंसात्मक प्रतिरोध को छोड़ दें तो इस आंदोलन का कोई व्यापक एवं प्रतिकूल प्रभाव ब्रिटिश सरकार पर नहीं पड़ा था। सावरकर चाहते थे कि कांग्रेस भारत-विभाजन की मुस्लिम लीग की मांगों पर अपना पक्ष स्पष्ट करे, इस देश को परंपरा से अपनी मातृभूमि-पुण्यभूमि मानने वाले समाज को न्यायोचित अधिकार मिले, अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम लीग की मांगे माने जाने की स्थिति में हिंदुओं के जान-माल का कम-से-कम नुकसान हो, और ऐसा चाहना अनुचित भी नहीं था। बल्कि उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण लेने के लिए प्रोत्साहित किया। जिन्ना के ‘डाइरेक्ट एक्शन’ और विभाजन के बाद पाकिस्तान में हुए ‘हिंदुओं के नरसंहार’ के संदर्भ में यदि विचार करें तो सावरकर का यह प्रयास और प्रोत्साहन कितना स्तुत्य, उपयोगी और दूरदर्शी प्रतीत होता है!

सावरकर जी की हिंदुत्व एवं मातृभूमि-पुण्यभूमि वाली अवधारणा पर प्रश्न उछालने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी क्या आंबेडकर को भी कटघरे में खड़े करेंगें? क्योंकि उन्होंने भी इस्लाम के आक्रामक, असहिष्णु, विघटनकारी, विस्तारवादी प्रवृत्तियों से तत्कालीन नेताओं व समाज को सावधान और सचेत किया था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस्लाम का भाईचारा केवल उसके मतानुयायियों तक सीमित है। मुसलमान कभी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानेगा, क्योंकि वह स्वयं को आक्रांताओं के साथ अधिक जोड़कर देखता है। उनका मानना था कि मुसलमान कभी देशज शासन को आत्मसात नहीं करता, क्योंकि वह कुरान, हदीस और सुन्नाह यानी शरीयत से निर्देशित होता है और उसकी सर्वोच्च आस्था इस्लामिक मान्यताओं, इस्लामिक प्रतीकों, और इस्लाम की दृष्टि से पवित्र माने जाने वाले स्थलों के प्रति रहती है, जो उसे शेष सबसे पृथक करती है। सच यह है कि ये दोनों राजनेता यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़े होकर वस्तुपरक दृष्टि से अतीत, वर्तमान और भविष्य का आकलन कर पा रहे थे। यह उनकी दूरदृष्टि थी, न कि संकीर्णता। ये दोनों विभाजन के पश्चात ऐसी किसी भी कृत्रिम-काल्पनिक-लिजलिजी-पिलपिली एकता के मुखर आलोचक थे, जो थोड़े से दबाव या चोट से बिखर जाय या रक्तरंजित हो उठे!

सावरकर जी मानते थे कि जब तक भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तभी तक राज्य(स्टेट) का मूल चरित्र पंथनिरपेक्ष रहने वाला है। कोरी व भावुक पंथनिरपेक्षता की पैरवी करने वाले कृपया बताएं कि भारत से पृथक हुआ पाकिस्तान या बांग्लादेश क्या गैर इस्लामी या लोकतांत्रिक तंत्र दे पाया ? वहां की मिट्टी, आबो-हवा, लबो-लहाजा, रिवाज-तहजीब-कुछ भी तो हमसे बहुत जुदा नहीं ? बांग्लादेश का तो निर्माण और भाग्योदय भी भारत के सहयोग से संभव हुआ, पर वहां हिंदुओं को आज किन नारकीय स्थितियों एवं हिंसा से गुजरना पड़ रहा है, उसे कोई भी संवेदनशील एवं जागरूक व्यक्ति स्वयं अनुभव कर सकता है ! छोड़िए इन दोनों मुल्कों को, क्या कोई ऐसा इस्लामिक मुल्क है, जो सेकुलर शासन दे पाने में सफल रहा हो? तुर्की का उदाहरण हमारे सामने है, जिसकी बुनियाद में पंथनिरपेक्षता थी, पर आज मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन या वहाबी विचारधारा वहां की केंद्रीय धुरी हैं। क्या इसमें भी कोई संदेह होगा कि लाख प्रयासों के पश्चात भी गांधी जी स्वयं विभाजन की त्रासदी को रोक नहीं पाए और स्वतंत्रता-पश्चात की धार्मिक-सामुदायिक स्थिति का यथार्थ अनुमान एवं आकलन कर पाने में पूर्णतः विफल रहे ? जो लोग अपनी मूढ़ता या पूर्वाग्रह में वीर सावरकर को जिन्ना के साथ खड़ा करते हुए उन्हें द्विराष्ट्रवाद का पोषक बताते हैं, उन्हें 1939 में लाहौर के एक कार्यक्रम में दिया गया उनका भाषण सुनना चाहिए। उन्होंने हिंदू महासभा के उस कार्यक्रम में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए स्पष्ट कहा था कि राष्ट्र की उनकी संकल्पना मुस्लिम लीग और जिन्ना से पूर्णतया भिन्न है। मजहब के आधार पर राष्ट्र का विभाजन करने वालों के वे सख्त खिलाफ थे। उनके अनुसार कानून की दृष्टि में सभी नागरिकों को समान होना चाहिए। न कोई अल्पसंख्यक, न बहुसंख्यक। न किसी की उपेक्षा, न किसी को विशेषाधिकार। जो भी भारतवर्ष को अपनी पुण्यभूमि-पितृभूमि मानता हो, वह भारतवासी है। राष्ट्रीयता की ऐसी व्यापक संकल्पना, ऐसी परिभाषा उन्होंने अपने समय और समाज को सौंपी।

सच तो यह है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी समय के पार देखने वाले यथार्थवादी चिंतक एवं दूरदर्शी राजनेता थे। उनका महत्त्व न तो उन पर लगाए गए मनगढ़ंत आरोपों से कम होता है, न उनके हिंदू-हितों की पैरोकारी से। उनका रोम-रोम राष्ट्र को समर्पित था। वे अखंड भारत के पैरोकार व पक्षधर थे। उन्होंने अपनी प्रखर मेधा शक्ति, तार्किक-तथ्यात्मक विवेचना के बल पर 1857 के विद्रोह को ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” की संज्ञा दिलवाई। उन्होंने पतित पावन मंदिर की स्थापना कर अस्पृश्यता-निवारण की दिशा में ठोस एवं निर्णायक पहल की। उन्होंने रोटीबंदी, बेटीबंदी, स्पर्शबंदी, व्यवसायबंदी, सागरबंदी, वेदोक्तबंदी तथा शुद्धिबंदी जैसी सात बेड़ियों से समाज को मुक्त कराने का अभिनव प्रयोग एवं प्रयास किया। उन्होंने धर्मांतरित जनों के लिए उनके मूल धर्म में लौटने का पुरजोर अभियान चलाया। समाज-सुधार के लिए वे आजीवन प्रयत्नशील रहे। तत्कालीन सभी बड़े राजनेताओं में उनका बड़ा सम्मान था। गांधी भीमराव आंबेडकर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे प्रखर एवं प्रभावशाली राजनेताओं ने समय-समय पर वीर सावरकर की प्रशंसा की है ?

गांधी और आंबेडकर उनके अस्पृश्यता उन्मूलन एवं अछूतोद्धार कार्यक्रम से बहुत प्रभावित थे। सुभाषचंद्र बोस, शचींद्र नाथ सान्याल, रौशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, सरदार भगत सिंह, दुर्गा भाभी, सुखदेव, राजगुरु जैसे देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों ने उनके कार्यों एवं विचारों से किसी-न-किसी स्तर पर प्रेरणा ग्रहण की थी। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने उनके निधन को राष्ट्र की अपूर्णीय क्षति बताया था। राष्ट्रीय-जीवन में उनके योगदान की मुक्त कंठ से सराहना की थी। उन्होंने वर्ष 1970 में वीर सावरकर के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। इसके साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सावरकर ट्रस्ट में अपने निजी खाते से 11,000 रुपए दान किए थे। इतना ही नहीं इंदिरा गांधी ने साल 1983 में फिल्म डिवीजन को आदेश दिया था कि वह ‘महान क्रांतिकारी’ के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाएं। सावरकर का विरोध करने वाले वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व एवं तमाम नेताओं को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या उनकी विरासत व विचारधारा इंदिरा के कांग्रेस से भिन्न एवं पृथक है ? स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने एक समिति का गठन किया था, जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या, डॉ. एस. राधाकृष्णन, जय प्रकाश नारायण और विजयलक्ष्मी पंडित शामिल थीं। इस समिति के नेतृत्व में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन पर एक पुस्तक ‘To The Gates of Liberty’ का प्रकाशन किया गया।

प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू ने लिखी और सावरकर जी के भी दो लेखों ‘Ideology of the War Independence – Swadharma and Swaraj and ‘The Rani of Jhansi’ को इसमें समाहित किया गया था। इस पुस्तक की एक विशेष बात यह भी थी कि इस समिति ने सावरकर के नाम के आगे ‘वीर’ विशेषण लगाया था। गांधी-हत्या के मिथ्या आरोपों से न्यायालय ने उन्हें ससम्मान बरी किया था। बल्कि तथ्य यह भी है कि गांधी जी के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की चिंता को लेकर सावरकर स्वयं अत्यंत चिंतित एवं संवेदनशील थे। वे उनकी सुरक्षा के लिए तत्कालीन भारत सरकार को समय-समय पर आगाह करते रहे थे। स्वतंत्र भारत के निर्माण में वे गांधी की भूमिका एवं महत्ता को भी अपने समकालीन अन्य अनेक नेताओं से कहीं बेहतर समझते थे। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी उन्होंने ‘इदम न मम, इदम राष्ट्राय’ का जीवन जिया। कोई भी कृतज्ञ समाज एवं राष्ट्र मातृभूमि के ऐसे सच्चे एवं वीर सपूतों पर सदैव मान और गौरव रखता है। राष्ट्र उन्हें सदैव एक सच्चे देशभक्त, भावप्रवण कवि, यथार्थवादी चिंतक, दृष्टिसंपन्न इतिहासकार, कुशल रणनीतिकर एवं दूरदर्शी राजनेता के रूप में याद रखेगा। भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं यशस्वी प्रधानमंत्री में से एक स्वर्गीय श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी के शब्दों में ”सावरकर मने तेज, सावरकर मने तप, सावरकर मने त्याग, सावरकर मने तर्क, सावरकर मने तारुण्य!” उनके अनुसार ”सावरकर केवल एक व्यक्ति नहीं, विचार हैं; एक चिंगारी नहीं, अंगार हैं, वे सीमित नहीं, विस्तार हैं।”

Topics: veer savarkarवीर सावरकरदो बार आजीवन कारावास की सजा मिलीराष्ट्र एवं राष्ट्रीयता सावरकर जी के संस्कारों में रची-बसी थीwas sentenced to life imprisonment twicenation and nationalism were created in the values of Savarkar ji
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