भारतीय संस्कृति में पतिव्रत धर्म की अपार महिमा कही गयी है और पतिव्रत नारियों की उच्चतम आदर्श हैं महासती सावित्री। हमारी सनातन संस्कृति की एक ऐसी महानतम भारतीय नारी पात्र जिसने यम के कालपाश से अपने पति को मुक्त कराकर यह साबित कर दिखाया था कि आत्मबल सम्पन्न पतिपरायण स्त्री की सामर्थ्य के आगे विधाता को मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य का विधान भी बदलना पड़ जाता है। सती सावित्री के पतिव्रत धर्म के इसी उच्चतम आदर्श से से प्रेरणा लेकर पुण्यभूमि भारत की धर्मप्राण महिलाएं सदियों से ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को ‘वट सावित्री’ व्रत का अनुष्ठान करती आ रही हैं। उत्तर भारत के अधिकतर स्थानों पर सुहागिन स्त्रियां ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक यह व्रत करती हैं; वहीं कुछ अन्य क्षेत्रों में वैष्णव धर्मावलम्बी स्त्रियां इस व्रत को शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक करती हैं।
स्थानीय भाषा में ‘’बरगदाही’’ के नाम से पुकारे जाने वाले सनातन संस्कृति के उत्कृष्ट सनातन जीवन मूल्यों के परिचायक इस व्रत से जुड़ी सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा से प्रायः हर सनातनधर्मी भली भांति परिचित है। वैदिक युग का वह अद्भुत घटनाक्रम आज भी पढ़ने-सुनने वाले दोनों को अभिभूत कर देता है। ऐसा विलक्षण उदाहरण किसी अन्य धर्म-संस्कृति में मिलना दुर्लभ है। कहते हैं कि महासती सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे ही मृत्यु के देवता यमराज से अपने मृत पति का पुनर्जीवन हासिल किया था। तभी से वट वृक्ष हिन्दू धर्म में देववृक्ष के रूप में पूज्य हो गया। तात्विक दृष्टि से विचार करें तो वट पूजन के इस महाव्रत में स्त्री शक्ति की प्रबल जिजीविषा की विजय के महाभाव के साथ हमारे जीवन में वृक्षों की महत्ता व पर्यावरण संरक्षण का पुनीत संदेश भी छुपा है। हमारी अरण्य संस्कृति में वृक्षों को जीवंत देवताओं की संज्ञा दी गयी है। वैदिक मनीषा कहती है कि हवा के झोंकों से झूमते घने छायादार वृक्ष और उनसे गले मिलती लताएं प्रकृति का श्रंगार ही नहीं, जीवन का अज्रस स्रोत भी हैं। हमारे देश की समग्र सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं अध्यात्म-दर्शन का विकास वनों में ही हुआ था। वैदिक भारत में लोग वनदेवी की नियमित उपासना किया करते थे। स्मृति ग्रथों में वन संपदा को नष्ट करने वालों के लिए कठोर दंड का विधान किया गया है। ज्ञात हो कि वृक्ष-वनस्पति हमें हरियाली और फल-फूल देने के साथ ही अपनी प्राणवायु से हमें जीवन और अच्छे स्वास्थ्य का वरदान भी देते हैं। इनका न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण में अमूल्य योगदान है, वरन ये ग्रह व वास्तुदोष भी दूर करते हैं। हमारे समूचे पर्यावरण की सेहत इन्हीं मूक देववाओं की कृपा पर टिकी है। इसीलिए तो वृक्ष-वनस्पति के प्रति गहरी श्रद्धा व लगाव भारतीय संस्कृति की अति पुरातन व संवेदनशील परंपरा रही है।
जानना दिलचस्प हो कि वट सावित्री व्रत वस्तुतः भारतीय नारी की गहन तप साधना वट और अदम्य जिजीविषा का प्रतीक होने के साथ सनातन हिंदू संस्कृति में वट वृक्ष की अप्रतिम आध्यात्मिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय उपयोगिता का भी द्योतक है। विराटता, सघनता, दीर्घजीविता व आरोग्य प्रदायक गुणों के कारण बरगद को अमरत्व, दीर्घायु और अनंत जीवन के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएं की थीं। अब तो विभिन्न शोधों से भी साबित हो चुका है कि प्रचुर मात्रा में प्राणवायु (आक्सीजन) देने वाला यह वृक्ष मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने व ध्यान में स्थिरता लाने में सहायक होता है। भारत के महान वनस्पति विज्ञान डा. जगदीशचन्द्र बसु ने अपने यांत्रिक प्रयोगों से यह साबित कर दिखाया था कि हम मनुष्यों की तरह वृक्षों में भी चैतन्य सत्ता का वास होता है। उनकी यह शोध भारतीय संस्कृति की वृक्षोपासना की महत्ता को साबित करती है तथा हमें उस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाती है जो यह संदेश देती है कि हमें किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल से नहीं कटना चाहिए और अपना संकल्प बल व आत्म सामर्थ्य सतत विकसित करते रहना चाहिए।
हिंदू दर्शन में वट यानी बरगद को “कल्प वृक्ष” की संज्ञा दी गयी है। वट वृक्ष की महत्ता प्रतिपादित करते हुए विष्णु पुराणमें कहा गया है-“जगत वटे तं पृथुमं शयानं बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि।” अर्थात प्रलयकाल में जब सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो गयी तब जगत पालक श्रीहरि अपने बालमुकुंद रूप में उस अथाह जलराशि में वटवृक्ष के एक पत्ते पर निश्चिंत शयन कर रहे थे। सनातन धर्म की मान्यता है कि वट वृक्ष प्रकृति के सृजन का प्रतीक है। अकाल में भी नष्ट न होने के कारण इसे “अक्षय वट” कहा जाता है। स्वयं त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) इसकी रक्षा करते हैं। वट वृक्ष की अभ्यर्थना करते हुए वैदिक ऋषि कहते हैं- ‘’मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखा शंकरमेव च। पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम् वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते ।।‘’ अर्थात हम उस वट देवता को नमन करते हैं जिसके मूल में चौमुखी ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में महादेव शिव का वास है। वट वृक्ष की उत्पत्ति यक्षों के राजा मणिभद्र से मानी जाती है। इसीलिए इसे “यक्षवास”, “यक्षतरु” व “यक्षवारूक” आदि नामों से भी पुकारा जाता है। यों तो समूचे देश में अनेक प्रसिद्ध वटवृक्ष हैं किंतु इनमें प्रयाग के अक्षयवट, गया का बोधिवट, वृंदावन का वंशीवट तथा उज्जैन के सिद्धवट के प्रति हिंदू धर्मावलंबी विशेष आस्था रखते हैं। प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर वेणीमाधव के निकट अवस्थित अक्षय वट हिंदुओं ही नहीं; जैन व बौद्ध की भी आस्था का केंद्र है। इस अक्षय वट वृक्ष के पत्ते पर ही भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कंडेय ऋषि को दर्शन दिए थे। कहा जाता है कि बालमुकुन्द माधव इसी अक्षयवट में विराजमान हैं। यह वही स्थान है जहां माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना पूरी हुई थी। पौराणिक मान्यता है कि पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे। इसी अक्षयवट की छाया में महर्षि भारद्वाज ने पावन रामकथा का गान किया था। गोस्वामी तुलसीदास भी इस वटवृक्ष का गुणानुवाद करना नहीं भूले थे। इसी तरह महात्मा बुद्ध ने प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज कैलाश पर्वत पर बोया था। इसी तरह जैनियों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रयाग के अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। इस स्थान को ऋषभदेव की तपस्थली के नाम से जाना जाता है। कुरुक्षेत्र के निकट ज्योतिसर नामक स्थान पर भी एक वटवृक्ष है जिसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश का साक्षी है। इसी तरह श्राद्ध तीर्थ गया में भी एक सर्व सिद्धिदायक वटवृक्ष है। कथानक है कि इस पौधे को स्वयं ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर यहां रोपा था। बाद में जगद्जननी माँ सीता के आशीर्वाद से इस अक्षयवट की महिमा जग विख्यात हुई।
काबिलेगौर हो कि सनातन हिंदू दर्शन में वटवृक्ष को तपोवन की मान्यता दी गयी है। यह वृक्ष अपने असीमित विस्तार में अपने चारो ओर इतना व्यापक घेरा बना लेता है कि अपने शरणागत को किसी जंगल-सा आभास देता है। कहा जाता है कि भारत पर आक्रमण करने आए सिकंदर की सात हजार सैनिकों वाली सेना ने एक बार मूसलाधार बारिश से बचने के लिए एक घने जंगल में शरण ली थी। बाद में यह देख कर उन विदेशी सैनिकों के आश्चर्य की सीमा न रही कि जिसे वे जंगल समझ रहे थे वह वस्तुतः एक विशाल वट वृक्ष की सघन शाखाओं का एक बड़ा सा का घेरा था।
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