एक दुकान में एक महिला बैठी थी, उसे अपनी दुविधा बताई कि आगंतुकों के लिए पीने का पानी चाहिए, कुछ हो और दे सकती हैं? उसके बिना समय गवांये, जितना पानी दुकान में रखा था, सारा उठा कर दे दिया। उनसे कहा भी कि-‘सारा दे देंगी, तो आपके लिए क्या रहेगा?’
कर्णावती के एक आयोजन में ‘जल-आंदोलन’ की बात करने के बाद, कुछ सुधी श्रोताओं का मन बहुत उमड़ा। वहीं मौजूद जीतू भाई ने अपनी भावना जताते हुए एक किस्सा सुनाया। एक आयोजन में लोग पीने के पानी से हाथ धोने लगे तो हाथ धोने वाला पानी तो बचा रहा, पीने का पानी खत्म हो गया। व्यवस्था में लगे थे, तो इंतजाम तो करना ही था। गर्मी के दिन थे, तो अगल-बगल की दुकानों में पानी ढूंढने निकले।
एक दुकान में एक महिला बैठी थी, उसे अपनी दुविधा बताई कि आगंतुकों के लिए पीने का पानी चाहिए, कुछ हो और दे सकती हैं? उसके बिना समय गवांये, जितना पानी दुकान में रखा था, सारा उठा कर दे दिया। उनसे कहा भी कि-‘सारा दे देंगी, तो आपके लिए क्या रहेगा?’ प्रत्युत्तर मिला- ‘है हमारे लिए, आप ले जाइए।’ जीतू भाई कहते हैं, उनके पास जितना पानी था, सब हमें सहजता से दे देना और ये बात भी तरीके से छिपा लेना कि-और भले नहीं है अपने लिए, पूरा दिन भी गुजारना है, लेकिन जताना नहीं है। महिला का ये मन सहृदय भारतीय समाज की झलक है। इसलिए महिलाएं, जल अभियानों की स्वाभाविक नेत्री हैं। पानी की कमान उनके हाथ देना यानी पूरे समुदाय की सहभागिता के प्रति आश्वस्त हो जाना।
संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी पानी के कामों की पैरवी कर रहा है। इन चर्चाओं में भी पानी को लेकर महिलाओं की भागीदारी का बार-बार जिक्र आने तो लगा है, मगर दूर-दराज के गांवों में काम में अब भी और तेजी की गुंजाइश है। दिल्ली तो यमुना तक की सफाई करने में नाकाम रही है। नदियों को पूजकर, उनके घाटों पर फूल चढ़ाकर भी अगर सच्चाई ये है कि दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियां हमारे देश में हैं, तो फिर बात सामाजिक आंदोलन तेज करने की भी है।
दिल्ली की नजर से दूर
दिल्ली सच में देश का दिल है, राज-काज के चकाचौंध वाली राजधानी या फिर देश का प्रतिनिधित्व करने वाला शहर? ये सारे सवाल उनके मन में उभरते हैं जो यहां आते तो हैं अपने दिल की, अपने इलाके की बातें कहने मगर आयोजनों के शोर में उन्हें सुनने का धीरज किसी में नहीं। ‘जल-दिवस’ पर खूब आयोजन हुए देश भर में और दिल्ली में भी। सरकार के ‘जल जीवन-मिशन’ की सफलता की बात नौकरशाह जोर-शोर से सुना रहे हैं तो यह सफलता गांवों की, वहां की आबादी की है, उनकी लगन की है। हवा के पानी को सोख कर पानी घनीभूत कर देने वाली मशीन और पानी बचाने-शुद्ध करने की तकनीक के जादुई दावों के बीच पंचायतों और ग्रामीण समुदायों के प्रयासों और प्रबंधन से बचे और जिदा हो रहे जल-स्रोतों की कहानियां सरलता से समझ आती हैं।
महिलाओं का पानी से जो खास नाता है, वह सच में किसी का नहीं रहा। अब जी-20 की अगुआई के दौरान भारत पानी और सतत विकास की बात पुरजोर कर रहा है और संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी पानी के कामों की पैरवी कर रहा है। इन चर्चाओं में भी पानी को लेकर महिलाओं की भागीदारी का बार-बार जिक्र आने तो लगा है, मगर दूर-दराज के गांवों में काम में अब भी और तेजी की गुंजाइश है। दिल्ली तो यमुना तक की सफाई करने में नाकाम रही है। नदियों को पूजकर, उनके घाटों पर फूल चढ़ाकर भी अगर सच्चाई ये है कि दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियां हमारे देश में हैं, तो फिर बात सामाजिक आंदोलन तेज करने की भी है।
सिर पर घड़ा रखो, चलो
गांव की महिलाएं अपनी बात सबके सामने स्वयं कहना कहां जानती हैं अभी, मगर जब कोशिश कर रही हैं तो उन्हें जितना सुना जाए, उतना कम है। दिल्ली के एक आयोजन में मौका मिलते ही पानी बचाने में लिए जुटी एक युवती ने भरी सभा में कहा- ‘आप बस इतना कर लीजिए एक बार, कि अपने सिर पर पानी का घड़ा रखकर कुछ दूर चल लीजिए। आप समझ जाएंगे हमारी तकलीफ।’ यह कचोटती हुई बात, जब देश का दिल दुखाएगी, तभी सरकारी योजनाओं में, मीलों पैदल चलकर, ऊंची पहाड़ी से उतरकर, घंटों पानी के प्रबंध में समय गंवाने वाली महिलाओं के गांवों को प्राथमिकता में लेकर काम होता दिखाई देगा।
गांव-देहात की अगल-बगल से जब भी गुजरते हैं, महिलाओं के तीखे रंग वाले पहनावे और सहज अभिवादन के बगैर, ये इलाके नीरस नजर आते हैं। घर के बाहर की उनकी आवाजाही, चूल्हे-चौके-खेत सबकी संभाल के लिए है। मगर जहां पानी का काम साधा हुआ है, वहां इस आवाजाही में उनका कौशल, कला, हुनर, सबकी छाप दिखाई देने लगती है। देश में जो पंचायतें खुले शौच से मुक्त हुई हैं, जहां प्लास्टिक से छुटकारा पाने के लिए कपड़े के थैले और कागज की थैलियां फिर प्रचलन में आ रही हैं, गांव अपनी पहचान की तख्तियां लिए स्पर्धा का सामना करने की तैयारी दिखा रहा है, अपने उत्पादों को बाजार से जोड़ने के लिए सजग हुआ है, तो यह ललक महिलाओं की सार्थक भागीदारी की वजह से भी है। युवतियों ने भी दूर-दराज में अपने-अपने उद्यम शुरू किए हैं। वहां खुला समय इसलिए मिला है, कि पानी की किल्लत के कारण किसी का स्कूल नहीं छूटा, किसी का विवाह नहीं रुका, किसी के पिता को कर्ज नहीं लेना पड़ा, किसी के परिवार को पलायन नहीं करना पड़ा, अपने मवेशी सड़कों के सहारे नहीं छोड़ने पड़े।
महिलाओं का प्रशिक्षण
समाधान के लिए जी-जान से जुटे लोगों के पास पीछे देखने का समय नहीं है। आज सरकारी बजट काफी है मगर अपनी मुश्किलों से उबरने के लिए जी-जान से जुटने वाले सरपंचों की भी पूरी फौज चाहिए। कुछ पंचायतें, खुद को ब्रांड बना रही हैं। जो काम कर रही हैं, या करना चाह रही हैं, उसके लिए संसाधन जुटाने से लेकर लोगों का ध्यान खींचने के लिए मेहनत कर रही हैं। आज के दौर के यही तरीके हैं। सबके कोटे से मिलने वाले बजट में तिकड़म वाले सब बटोर लेते हैं लेकिन स्वाभिमानियों के पास तकनीक और सृजनशीलता ही है, जो उनकी ताकत बनती है।
आज भले ही भारत जी-20 की अगुआई कर रहा हो, लेकिन बात तो वह पूरी वसुधा के अपने कुटुंब की करने में सक्षम है। दुनिया की ये 20 बड़ी आर्थिक ताकतें, 80 प्रतिशत जीडीपी की हिस्सेदारी करती हैं। दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी वाले इन दिग्गज देशों के बीच दुनिया का 75 प्रतिशत कारोबार होता है। जिस रफ़्तार से 2024 तक ग्रामीण भारत के घर-घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचाने का काम ‘जल जीवन मिशन’ करता दिख रहा है
हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात की पंचायतों के जन-प्रतिनिधियों और संगठनों से मिलकर लगा, सब अपने-अपने मायने में जूझ रहे हैं। और कुछेक इस काम में भी लगे हैं कि उनकी पंचायतों को सतत विकास लक्ष्यों और आदर्श गांव के पैमानों पर पहचाना जाए। पंचायत में बनी जल-समितियों में महिलाओं को भी प्रशिक्षित किया जाना है कि वे पानी की जांच करें। ‘हर घर नल’ पहुंचाने का मिशन जितना बड़ा है, उतनी ही बड़ी साधना है उन नलों में पानी पहुंचाना, शुद्ध पानी पहुंचाना और टैंकरों के कारोबार को खत्म करना। फिलहाल, देश की बड़ी ग्रामीण आबादी टैंकरों के पानी के भरोसे जी रही है, और पारिवारिक आय का बड़ा हिस्सा पानी की व्यवस्था में खर्च हो रहा है।
जी-20 कुटुंब में ‘जल-जीवन’
आज भले ही भारत जी-20 की अगुआई कर रहा हो, लेकिन बात तो वह पूरी वसुधा के अपने कुटुंब की करने में सक्षम है। दुनिया की ये 20 बड़ी आर्थिक ताकतें, 80 प्रतिशत जीडीपी की हिस्सेदारी करती हैं। दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी वाले इन दिग्गज देशों के बीच दुनिया का 75 प्रतिशत कारोबार होता है। जिस रफ़्तार से 2024 तक ग्रामीण भारत के घर-घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचाने का काम ‘जल जीवन मिशन’ करता दिख रहा है, जिस अमृत-काल में ‘अमृत सरोवर योजना’ जमीन पर उतर रही है, गंगा की सफाई का काम हुआ है, और जल-चेतना के लिए सरकार और समुदाय साथ आकर काम कर रहे हैं, लग रहा है कि आने वाली सदी में भारत दुनिया के लिए ‘जल-मिसाल’ कायम करने वाला देश बनकर उभरेगा।
2047 के ‘विजन इंडिया’ में ‘वाटर-विजन’ इतना अभिन्न-अहम हिस्सा है कि अभी से ‘जल-जीवन मिशन’ दुनिया का सबसे बड़ा जल-अभियान बन गया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी 46 साल बाद जल कॉन्फ्रेंस आयोजित की, और भारत की पानी के हर पहलू पर, सतत विकास के छठे लक्ष्य की छाया में हो रहे काम, दुनिया के कानों तक पहुंचे। फिर भी देश की फिक्र है कि खूब बरसने के बावजूद देश पानी के लिए तरस रहा है क्योंकि हम जमीन का पानी बेहिसाब सोखने में दुनिया में अब भी अव्वल हैं।
आज आंकड़ों के आईने से पानी का सटीक आकलन कर, समाधान के लिए संकल्पित देश को यह भी मालूम है कि पानी को पूजने की परंपराओं और मान्यताओं के बावजूद, हम पानी की कद्र करना भूल गये। जी-20 में जल-संवाद की शुरुआत तबसे हुई, जब 2020 में सऊदी अरब ने अपनी अध्यक्षता के समय जल को शीर्ष मुद्दा बनाया। इसके बाद इटली और इंडोनेशिया के बाद भारत की बारी में भी जल चर्चाओं पर पूरा फोकस है। 2047 के ‘विजन इंडिया’ में ‘वाटर-विजन’ इतना अभिन्न-अहम हिस्सा है कि अभी से ‘जल-जीवन मिशन’ दुनिया का सबसे बड़ा जल-अभियान बन गया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी 46 साल बाद जल कॉन्फ्रेंस आयोजित की, और भारत की पानी के हर पहलू पर, सतत विकास के छठे लक्ष्य की छाया में हो रहे काम, दुनिया के कानों तक पहुंचे। फिर भी देश की फिक्र है कि खूब बरसने के बावजूद देश पानी के लिए तरस रहा है क्योंकि हम जमीन का पानी बेहिसाब सोखने में दुनिया में अब भी अव्वल हैं।
पानी की पीड़ा
पानी से जो रिश्ता सिर पर पानी ढो कर लाती, कुएं से बाल्टी खींचती, हैंडपंप से चरी भरकर लाती महिलाओं-युवतियों का है, उसे देखते हुए बहुत पहले ही महिलाओं को जल-प्रबंधन की कमान सौंप दी जानी चाहिए थी। नौकरशाही और राजनीति की जुगलबंदी में ‘लोकनीति’ के सुर के साथ भाव की प्रधानता नहीं होगी तो हल किसी मसले का नहीं निकलेगा। अच्छी बात है कि पानी के प्रबंधन और हर घर नल पहुंचाने के काम के साथ ही पानी की जांच के लिए बनाई समितियां महिलाओं की भागीदारी से बनाई जा रही हैं। जो अभी भले ही कागजी नजर आएं, मगर धीरे-धीरे असल स्याही में भी होंगी।
राजधानी में मंत्रालय के अधिकारियों से रूबरू होकर देखा, कि देश के अलग-अलग हिस्सों में समाज और संगठनों के तालमेल में जल-जलवायु संकट की खासी फिक्र हो रही है। जहां सरकारों की अपनी प्रतिबद्धता है, वहां पूरी लगन से काम हो रहा है। दिल्ली से हरियाणा को जाते हुए दूषित ‘साहिबा’ नदी के किनारे लगा ये बोर्ड, कि यह नदी आपकी है, इसमें कचरा ना डालें। असम के गुवाहाटी से बीचों-बीच गुजरती बेहाल भरालू नदी ने मन बेहद दुखी किया। इसीलिए लगा, समाधान के लिए जुटने का साहस ग्रामीण समाज में ही है। उनके बीच जाकर, देखकर ही यकीन हुआ कि गांवों जैसी दरियादिली ही हमारी धरोहर रहेगी।
जल की बात में ये बात दोहराई जाने लगी है कि नल की पहुंच घरों तक नहीं होने और जल स्रोतों के घर से औसतन 2-5 किमी. दूर होने से महिलाओं को पानी भरकर लाने में अपना श्रम और समय, दोनों खर्च करना पड़ता है। इसलिए उन्हें प्राथमिकता में रखना ही होगा। नर्मदा के किनारे बसे वनवासी समाज की महिलाएं पहाड़ों से उतरकर पानी लेने आती हैं, गर्भवती किए महिलाओं की तकलीफ का अंदाज भी पानी के नजरिए से देखें तो हमें समाधान की जल्दबाजी होगी। राजस्थान की माही नदी से भरे-पूरे सौ टापू वाले वनवासी इलाकों में हजार फीट ऊंची पहाड़ियों से आकर औरतें आज भी पोखरों की तलाई खोदकर पानी इकट्ठा करती हैं। जल की किल्लत से उपजे यह दुख कहीं किसी फाइल, किसी रिकॉर्ड में दर्ज होता भी है तो जल्द समाधान नहीं दे पाता। ये कहानियां आज की और अभी की हैं। कई गांवों की हकीकत यही है कि आजीविका के बंदोबस्त में जूझते परिवारों में पढ़ाई के लिए वक्त ही नहीं मिलता बच्चे-बच्चियों को।
थाम लिया ‘नीर-कमान’
पानी को तरसते और पलायन सहते, महाराष्ट्र के सोलापुर में नदी को जीवित करने के बड़े काम देखे तो, यह भी देखा कि गांव की हर महिला, हर परिवार ने अपने-अपने हिस्से की कीमती जमीने नदी को समर्पित कर दी। पूर्वोत्तर के अंदरूनी इलाकों में सेना की मदद से ‘जल-प्रबंधन’ और देसी फसलों को बढ़ावा देकर पोषण के काम को अंजाम देते महिला समूह देखे, जल जीवन मिशन के जीवट अधिकारियों का दूर-दराज के मुश्किल इलाकों तक पानी पहुंचाने का जज्बा देखा। पश्चिमी इलाकों में, तकनीकी संस्थाओं की मदद से ग्रामीण आजीविका के लिए भी पानी के कई प्रयोगों का जायजा लिया तो उसमें भी वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का अनुभव यही था कि समाधान और नवाचार में महिलाओं का कोई सानी नहीं। उसके हाथों में ‘नीर-कमान’ देने के मायने हैं, कि हमारा निशाना ठीक वहीं लगेगा, जहां से बदलाव की धार निकलेगी।
राजधानी में मंत्रालय के अधिकारियों से रूबरू होकर देखा, कि देश के अलग-अलग हिस्सों में समाज और संगठनों के तालमेल में जल-जलवायु संकट की खासी फिक्र हो रही है। जहां सरकारों की अपनी प्रतिबद्धता है, वहां पूरी लगन से काम हो रहा है। दिल्ली से हरियाणा को जाते हुए दूषित ‘साहिबा’ नदी के किनारे लगा ये बोर्ड, कि यह नदी आपकी है, इसमें कचरा ना डालें। असम के गुवाहाटी से बीचों-बीच गुजरती बेहाल भरालू नदी ने मन बेहद दुखी किया। इसीलिए लगा, समाधान के लिए जुटने का साहस ग्रामीण समाज में ही है। उनके बीच जाकर, देखकर ही यकीन हुआ कि गांवों जैसी दरियादिली ही हमारी धरोहर रहेगी। पानी की पहरेदारी, हिल-मिलकर कर पाएं तो नदी-नाले, तालाब, जोहड़, नहरें सब अपने प्रवाह में लौट आएंगे। सच तो यह है कि महिलाओं की भागीदारी के बगैर ग्रामीण भारत में किसी भी उद्यम और उपक्रम को साधा नहीं जा सकता।
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