देवभूमि उत्तराखण्ड में गढ़वाल की धरती राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत वीर भोग्यभूमि रही है। इस भूमि पर अनेक समाज सेवियों ने जन्म लेकर न सिर्फ समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने के लिए डटकर मुकाबला किया बल्कि कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने का संकल्प भी व्यक्त किया था। समाज सेवियों के अथक प्रयासों से ही समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को मिटाया जा सका है। गढ़वाल की माटी में जन्में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत बलदेव सिंह आर्य भी उन समाज सेवियों में से एक थे जिन्होंने सामाजिक क्रांति के लिए न सिर्फ आवाज बुलंद की बल्कि समाज में दलित और पीड़ित वर्ग के हक में न्याय की लड़ाई लड़ी थी। जयानन्द भारती के बाद बलदेव सिंह आर्य आजादी के संघर्ष के दौर में ऐसे नेता रहे हैं, जिन्होंने अनुसूचित जाति के लोगों को राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष से जोड़ते हुए उनकी सामाजिक, आर्थिक उन्नति के लिए आजादी के बाद भी संघर्ष को जारी रखा था।
जन्म – 12 मई सन 1912 ग्राम उमथ, पट्टी सीला, दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड.
देहावसान – 22 दिसम्बर सन 1992 उत्तराखण्ड.
उत्तराखण्ड में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत रहे बलदेव सिंह आर्य का जन्म 12 मई सन 1912 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के विकास खण्ड दुगड्डा के अन्तर्गत पट्टी सीला ग्राम उमथ में हुआ था। उनकी माता का नाम विश्वम्भरी देवी तथा पिताजी का नाम दौलत सिंह था। कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते उन्होंने महज 8वीं तक शिक्षा जहरीखाल से प्राप्त करने के उपरान्त हरिजन छात्रावास के प्रबन्धक बनकर अपनी आजीविका चलाई थी। वह जीवनप्रर्यन्त गांधी महात्मा के विचारों को आत्मसात करते हुए समर्पित भाव से कमजोर तथा दलित वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करते रहे थे। वह उत्तराखण्ड में जयानन्द भारती, प्रताप सिंह नेगी, भक्तदर्शन, भैरवदत्त धूलिया, मुकन्दीलाल से बेहद प्रेरित थे।
उत्तराखण्ड में गढ़वाल के सविनय अवज्ञा आन्दोलन को नशाबन्दी आन्दोलन को प्रतीक के रूप में संचालित किया गया था। प्रताप सिंह नेगी के नेतृत्व में शराब की भट्टियों को नष्ट करने और अंग्रेजी वस्त्रों की होली जलाकर उन्होंने आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। सन 1930-32 और सन 1942 के राष्ट्रीय आन्दोलन में बलदेव सिंह ने अपनी गिरफ्तारी देकर कुल डेढ वर्ष की सजा जेल मे काटी थी। उत्तराखण्ड के गढ़वाल में सन 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह पर महात्मा गांधी द्वारा यह कहकर रोक लगा दी थी कि यहां हरिजनों और सर्वणों के बीच समरसता नहीं है और हरिजनों को प्रतिष्ठा की प्रतीक डोली-पालकी में बैठने का सामाजिक अधिकार से वंचित रखा गया है। इस पर तीव्र प्रतिक्रिया के बाद हरिजनों को डोला-पालकी में बैठने के सामाजिक अधिकारों को सन 1941 में कानूनी अधिकार दिलाकर शिल्पकार वर्ग को आंदोलन में जोड़े रखने में सफलता प्राप्त की थी। शिल्पकार वर्ग का नेतृत्व करने के कारण बलदेव सिंह की प्रभावशाली छवि अंकित हुई थी और गढ़वाल अंचल में जयानन्द भारती के बाद उनकी स्वीकार्यता सबसे अधिक थी। बलदेव सिंह आर्य ने अपने प्रयासों से हरिजन छात्रों के लिए कई स्कूल खुलवाए थे, उनकी पहल पर सेठ डालमिया ने गढ़वाल में 17 स्कूल खुलवाये जिनका व्यय भार उन्होंने स्वयं वहन किया था। इन स्कूलों को बाद में सरकार ने अधिग्रहित किया था।
वह देश की आजादी के बाद सन 1950 में प्राविजनल पार्लियामेंट के सदस्य मनोनीत हुए थे। सन 1952 में बलदेव सिंह आर्य पहली बार पौड़ी-चमोली से विधान सभा हेतु एक मात्र प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित होकर गोविंद बल्लभ पन्त मन्त्रीमण्डल में संसदीय मंत्री बने थे। इसके पश्चात उन्हें सन 1957, 1962, 1974, 1980 और सन 1985 में कांग्रेस के टिकट पर उत्तरकाशी सुरक्षित सीट से भी चुनकर आने के बाद उत्तर प्रदेश में वित्त, पंचायती राज मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर डा.सम्पूर्णानन्द, सचिता कृपलानी, चन्द्रभान गुप्त, चौधरी चरण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नन्दन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी जैसे दिग्गजों के साथ कार्य करने का अवसर मिला था। वह सन 1968 से सन 1974 तक विधान परिषद के सदस्य रहे थे। वह सन 1952 में पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के मुख्यमंत्री काल से लेकर उत्तर प्रदेश में गठित सभी कांग्रेस सरकारों में मंत्रीमंडल में शामिल रहे थे। वह उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त कोल्टा जांच समिति के अध्यक्ष, सन 1967 में यूपीसीसी के महामंत्री, वर्षों तक एआईसीसी के सदस्य, वनों की समस्या के निराकरण एवं निरुपण समिति के सदस्य, अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ के उपाध्यक्ष आदि के साथ कई राज्यस्तरीय एवं राष्ट्रीय स्तर की समितियों से भी जुड़े रहे थे। 22 दिसम्बर सन 1992 को सामाजिक क्रांति का यह अग्रदूत पंचतत्व में विलीन हो गया था।
बलदेव सिंह आर्य का संपूर्ण राजनैतिक जीवन और कार्यशैली अत्यन्त गरिमामय और अविवादित रही थी। वह हरिजनों के ही नहीं वरन सभी के सर्वमान्य और सर्वप्रिय नेता रहे। बलदेव सिंह आर्य ने राजनैतिक जीवन की अवधि में भूमिहीन हरिजनों को भूमि दिलाने के कार्य को सफलतापूर्वक कर शिल्पकारों को आर्थिक रूप से सशक्त करने का जो कार्य किया उसके कारण ही आज पहाड़ के हरिजनों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति मैदानी क्षेत्रों के निवासियों से अधिक बेहतर है।
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