लेखक – रमाशंकर दूबे,
कुलपति, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर
ईसा से हजारों वर्ष पूर्व से ही भारत में रसायन एवं रासायनिक अभिक्रियाओं के अध्ययन की समृद्ध परंपरा रही है । प्राचीन भारत में रसायन विज्ञान का ज्ञान शिखर पर था । हमारे प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में अनेक धातुओं, धातु निर्मित औषधियों एवं रासायनिक प्रक्रियाओं का स्पष्ट वर्णन मिलता है । ऋग्वेद में कई बार अयस (लोहा अथवा कांसा) एवं हिरण्य (सोना) धातु तथा यजुर्वेद में हिरण्य, अयस, श्याम (तांबा) , लोह (लोहा), सीस (सीसा) और त्रपु (रांगा, टीन) का उल्लेख मिलता है । यजुर्वेद में निहित मंत्र ‘मन्यवे अयस्तापम्’(यजु. 30/14) से विदित होता है कि वैदिक काल में खनिज को आग से तपाकर धातु तैयार करने की विधि विकसित थी । आयु की बृद्धि तथा बलशाली होने के लिए शंख कृशनम, हिरण्य, स्वर्ण, रजत, अयास, सीस, त्रपु लौह आदि के भस्म का प्रयोग किया जाता था (अथर्ववेद 4.10.1, 19.26.2)। वनस्पतियों, औषधियों, एवं मणियों के द्वारा अनेक रोगों का निवारण होता था । ‘सीसा’ के द्वारा अनेक रोगों के निवारण की विधि बताई गयी है : ‘सिसायाध्याह वरूप: सीसायागिरूपा वती,सीसं म इन्द्र: प्रयच्छत तदअन्ग्यातु चात्नाम (अथर्ववेद 1.16,2) । छान्दोग्य उपनिषद में वर्णन है कि सीसा, लौह, सुवर्ण, त्रपु, रजत अदि धातुओं तथा उनके मिश्रण का उपयोग विभिन्न रासायनिक अभिक्रियाओं में किया जाता था।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में जन्में शल्य क्रिया के जनक महर्षि सुश्रुत ने विश्व प्रसिद्ध सुश्रुत संहिता का प्रणयन किया, जिनमें 700 औषधीय पौधों, खनिज स्रोतों पर आधारित 64 प्रक्रियाओं तथा अनेक खनिज आधारित औषधियों का वर्णन है । महर्षि सुश्रुत ने क्षार की परिभाषा दी और उपचार के लिए कई प्रकार के क्षारों को बनाने की विधि के बारे में बताया । सुश्रुत संहिता में तीक्ष्ण (कॉस्टिक) क्षारों को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। परमाणु शास्त्र के जनक महर्षि कणाद भी इसी भारत भूमि पर छठी शताब्दी ईसा पूर्व में पैदा हुए थे जिन्होंने अपने ग्रन्थ ‘वैशेषिक सूत्र’ में बताया कि पदार्थ का अविभाज्य सूक्ष्म कण परमाणु है । उन्होंने रासायनिक बंधता की ओर इंगित करते हुए बताया कि दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक’ अर्थात अणु का निर्माण कर सकते हैं।
ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी में आचार्य चाणक्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में धातुओं, अयस्कों, खनिजों,मिश्र धातुओं तथा उनके खनन, विरचन, और खानों के प्रबंधन के बारे में विस्तृत वर्णन किया है। अर्थ शास्त्र में ही रंगों के आधार पर अयस्कों के पहचान का वर्णन तथा समुद्र से लवण (नमक) के उत्पादन का वर्णन है। आचार्य चरक ने लगभग वर्ष १७५ ईसा पूर्व रचित चरक संहिता में विभिन्न प्रकार के रसायन, औषधि द्रव्यों तथा उनके सेवन के संपूर्ण विधान का विस्तृत विवरण किया है। चरक संहिता में नाइट्रिक एसिड, टिन, लोहा, सीसा और जस्ते के ऑक्साइड, सल्फेट एवं कार्बोनेट बनाने की विधि का उल्लेख है।
आचार्य नागार्जुन द्वितीय शताब्दी के महान रसायनज्ञ थे जिनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ “रसरत्नाकार” में रसायन शास्त्र का अथाह ज्ञान है। नागार्जुन द्वारा बतायी गयीं अनेक रासायनिक क्रियाएँ आज 21 वीं शताब्दी में भी वैज्ञानिकों को आश्चर्य चकित कर देतीं हैं । उन्होंने सोना, रजत, टिन सहित अनेक धातुओं को शुद्ध करने की सही विधि, धातुओं को घोलने के लिए वनस्पति निर्मित तेजाब का प्रयोग तथा रासायनिक प्रक्रियाओं जैसे आसवन, उर्ध्वपातन, द्रवण का विस्तृत रूप से वर्णन किया । उन्होंने पारद भस्म बनाने तथा हीरे और मोती को अम्ल में गलाने की विधि के बारे में बताया । अपने ग्रंथों में उन्होंने ‘पारा’ सहित विभिन्न धातुओं को ‘सोना’ में बदलने की विधि बतायी । धातुओं के अद्भुत ज्ञाता नागार्जुन को भारत में धातुवाद का प्रवर्तक माना जाता है । उन्होंने अनेक असाध्य रोगों की औषधियां तैयार कीं तथा बताया की सोना सभी धातुओं की तुलना में ज्यादा अक्षय है । नागार्जुन रचित अन्य ग्रंथों में आरोग्यमंजरी, रसेन्द्रमंगल, कक्षपुटतंत्र, योगसार, योगाष्टक आदि प्रमुख हैं ।
महान खगोलशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने छठी शताब्दी में “वृहत् संहिता” की रचना की जिसमें उन्होंने अस्त्र-शस्त्र निर्माण हेतु उच्च कोटि के इस्पात के निर्माण की विधि का वर्णन किया है। उस समय भारत में निर्मित इस्पात की गुणवत्ता विश्व प्रसिद्ध थी जिससे बनी तलवारों का निर्यात फारस सहित विश्व के कई देशों में किया जाता था । वृहत् संहिता में घरों की दीवारों और मंदिरों में छिड़के जाने वाले सुगंधित इत्रों और अगरबत्तियों के निर्माण का उल्लेख है।
दूसरी से बारहवीं शताब्दी तक भारत में शुद्ध रूप से रसायन शास्त्र पर आधारित अनेक पुस्तकें मिलती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के खनिज, अयस्क, धातुकर्म, मिश्र धातु, उत्प्रेरक, सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक रसायन तथा उनसे सम्बंधित अभिक्रियाओं एवं उपकरणों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत है। इनमें से प्रमुख पुस्तकें हैं- वाग्भट्ट रचित अष्टांगहृदय, गोविन्द भगवत्पाद रचित रसहृदयतन्त्र एवं रसार्णव, सोमदेव रचित रसार्णवकल्प एवं रसेन्द्रचूणामणि तथा गोपालभट्ट रचित रसेन्द्रसारसंग्रह। इस काल की अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं- रसकल्प, रसप्रकाश सुधाकर, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रदीप, रसेन्द्रकल्पद्रुम, रसमंगल आदि ।
अनेक राज्यों के पुरातात्विक उत्खनन स्थलों से प्राप्त धातु के नमूनों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व 3000 वर्ष से 300 वर्ष ईसा पूर्व तक भारत में धातु की खदानें सक्रिय रहीं तथा वहां से प्राप्त लोहा, तांबा, रजत, सीसा आदि धातुओं की शुद्धता 99 प्रतिशत तक थी। ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार वर्ष 1800 में भारत में धातु कर्म के लिये लगभग 20,000 भट्ठियां थीं जिनमें से आधी भट्टियाँ लौह निर्माण के लिए थीं।
भारत में आधुनिक रसायन विज्ञान के जनक माने जाने वाले, भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक, महान वैज्ञानिक, अप्रतिम देशभक्त आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय (1861-1944) ने पारे और तेजाब से मर्क्यूरस नाइट्रेट बनाया, अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण किया। उन्होंने स्वदेशी उद्योग की नींव डाली तथा “बंगाल केमिकल्स ऐण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स”, कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, बंगाल एनामेल वर्क्स, तथा स्टीम नेविगेशन आदि उद्योगों की स्थापना भारत में की। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ ‘हिस्ट्री आफ़ हिन्दू केमिस्ट्री’ में प्राचीन भारत में रसायन विज्ञान की समृद्धि का विस्तृत वर्णन है। अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय ऋषि, महर्षि एवं वैज्ञानिकों ने प्राचीन काल से ही रसायन विज्ञान के विविध क्षेत्रों में अतुलनीय योगदान देते हुए भारतीय रसायन विज्ञान को विश्व फलक पर स्थापित किया जिससे साबित होता है कि विज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह रसायन विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत विश्व गुरु रहा है।
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