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‘वहां मेरे अंदर जिहादी सोच पैदा की गई’-श्रुति

केरल के कासरगोड में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी और पली—बढ़ी ओ. श्रुति के मन में इस्लामी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान हिंदू धर्म के प्रति ऐसी नफरत भरी गई कि उसे पता नहीं चला कि वह कब इस्लाम के रास्ते पर बढ़ गई।

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
May 8, 2023, 10:54 am IST
in भारत, केरल, साक्षात्कार, पुस्तकें
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केरल के कासरगोड में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी और पली—बढ़ी ओ. श्रुति के मन में इस्लामी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान हिंदू धर्म के प्रति ऐसी नफरत भरी गई कि उसे पता नहीं चला कि वह कब इस्लाम के रास्ते पर बढ़ गई। उसने कन्वर्जन कराकर इस्लाम कबूल कर लिया। आखिरकार, माता—पिता, विहिप कार्यकर्ताओं और आर्ष विद्या समाजम के सद्प्रयासों से श्रुति स्वधर्म में लौटीं। पाञ्चजन्य के केरल संवाददाता टी. सतीशन ने श्रुति की पुस्तक प्रकाशित होने के बाद दिसंबर में उनसे इन सभी विषयों पर बातचीत की थी जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत है-

आप इस्लाम की तरफ कैसे और कब आकर्षित हुईं?
मैं साल 2008 में राष्ट्र-विरोधी इस्लामी विचारधारा से प्रभावित हुई थी। एक मुस्लिम कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रम में मेरे साथ ज्यादातर मुस्लिम लड़कियां पढ़ती थीं। उनके लगातार हिंदू धर्म पर सवाल उठाने, उसे कमतर बताने से मुझमें हीन भावना पैदा हुई। इसने मुझे स्वधर्म छोड़कर इस्लाम के अध्ययन को प्रेरित किया। मैंने नमाज पढ़ी, रोजे रखे। मेरा चेहरा—मोहरा और व्यवहार, सब बदल गया। ‘ईमान का सच्चा’ मुसलमान होने के लिए मेरा कानूनी रूप से इस्लाम में कन्वर्ट होना जरूरी था। मैं पोन्नानी में मौनाथ-उल-इस्लाम सभा में कन्वर्ट हो गई।

मौनाथ-उल-इस्लाम सभा का कैसा अनुभव रहा?
2013 की बात है। मैं हिम्मत करके वहां गई। वहां एक मौलवी ने कोई कीमती सामान लेकर अंदर जाने से मना किया। उन्होंने मेरे सभी प्रमाण-पत्र, गहने, पैसे और इस्लामी साहित्य भी अपने पास रख लिया। मुझे महिलाओं वाले हिस्से में भेज दिया गया। एक लड़की ने मेरे बैग से सब चीजें निकालकर फर्श पर रख दीं। वह बोली, ‘‘यहां सेनेटरी पैड नहीं, केवल कपड़े के टुकड़े चलते हैं। यहां केवल वही पुस्तकें पढ़ें, जो हमें दी जाएं।’’ इस्लाम के पैरोकार एक अनजान लड़की से कैसा अजीब बर्ताव कर रहे थे! उस पल दिमाग में पिता, मां और प्रियजनों के चेहरे कौंध गए। मन किया, भाग जाऊं। लेकिन दिमाग पर इस्लाम का गहरा प्रभाव होने से पैर थमे रह गए। पाथु नामक एक महिला ने मेरे सिर पर तीन बार पानी डाला। कुछ अरबी आयतें दोहराने को कहा। मैंने रहमत नाम स्वीकार किया। मुस्लिम बनने के बाद मैंने कलमा पढ़ा। वहां 16 साल की लड़की से बुजुर्ग तक करीब 65 महिलाएं कन्वर्जन के लिए आई थीं।

मैंने जिन मजहबी कक्षाओं में भाग लिया, उनमें अन्य मत—पंथों का तिरस्कार होता था। ईमान की पहली मान्यता तौहीद यानी अन्य मत—पंथों की निंदा करना ही है। वहां मौलवियों ने सिखाया, ‘‘हिंदू ऐसा धर्म है जो इबलीस की पूजा करता है और हिंदू मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

उसके बाद आपकी जो तालीम हुई, उसके बारे में बताएं?
मैंने जिन मजहबी कक्षाओं में भाग लिया, उनमें अन्य मत—पंथों का तिरस्कार होता था। ईमान की पहली मान्यता तौहीद यानी अन्य मत—पंथों की निंदा करना ही है। वहां मौलवियों ने सिखाया, ‘‘हिंदू ऐसा धर्म है जो इबलीस की पूजा करता है और हिंदू मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इस्लाम जानवरों की पूजा करने वाले धर्म से कहीं बेहतर है। अल्लाह उन लोगों को पसंद नहीं करता जो इस्लाम के अलावा अन्य मत—पंथों को मानते हैं। ऐसा करना अक्षम्य पाप है, जो कयामत के दिन सजा दिलाता है।’’हमारे मन में दूसरे मत—पंथों के लिए नफरत बोई जाती रही। मौलवियों ने यह भी कहा कि ‘इस्लाम को छोड़कर किसी भी अन्य मत—पंथ में महिलाओं को इतना ज्यादा सम्मान नहीं मिलता।’ हर शुक्रवार को होने वाली मौलवी की तकरीर ने मुझमें एक जिहादी भाव भर दिया जो इस्लाम के लिए लड़ने—मरने के लिए तैयार रहना सिखाता था।
मौनाथ-उल-इस्लाम सभा में महिलाओं को बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। खुद को सिर से पांव तक न ढको तो मौलवी डांट लगाता था। सप्ताह में केवल एक बार फोन करने की अनुमति थी। मैं वहां बिल्कुल खुश नहीं थी। इस्लामी रीति-रिवाजों के आधार पर इस्लाम तो स्वीकारा, लेकिन कई चीजें गले से नहीं उतरीं। कभी मेरा हाथ ही सही, उघड़ता तो मौलवी बहुत अपमानित करते कि ‘तुम्हारी यह आदत इसलिए बनी है क्योंकि तुम ऐसी संस्कृति में पैदा हुई, जिसमें महिलाएं शरीर का प्रदर्शन करती हैं।’ वहां मेरे अंदर देश-विरोधी और हिंदू-विरोधी भावनाएं भरी गईं। इस्लाम पर मेरे पहले के अध्ययन, मुस्लिम प्रसारकों, खासकर जाकिर नाइक के जिहादी भाषणों और कन्वर्जन की उस तालीम ने मुझे एक महिला जिहादी बना दिया था।

मौनाथ-उल-इस्लाम सभा में महिलाओं को बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। खुद को सिर से पांव तक न ढको तो मौलवी डांट लगाता था। सप्ताह में केवल एक बार फोन करने की अनुमति थी। मैं वहां बिल्कुल खुश नहीं थी। इस्लामी रीति-रिवाजों के आधार पर इस्लाम तो स्वीकारा, लेकिन कई चीजें गले से नहीं उतरीं। कभी मेरा हाथ ही सही, उघड़ता तो मौलवी बहुत अपमानित करते कि ‘तुम्हारी यह आदत इसलिए बनी है क्योंकि तुम ऐसी संस्कृति में पैदा हुई, जिसमें महिलाएं शरीर का प्रदर्शन करती हैं।

आप मौनाथ-उल-इस्लाम सभा से बाहर कैसे निकलीं?
मैं करीब दो महीने वहां रही। इस बीच माता-पिता ने मेरे लापता होने की शिकायत पुलिस में की। पुलिस की मदद से मेरे मोबाइल फोन के आईएमईआई नंबर से मेरा पता लगाया गया। पुलिस और हिंदू संगठनों की मदद से मेरे पिता और भाई मुझे वापस ले जाने के लिए विजयादशमी की पूर्व संध्या पर पोन्नानी पहुंचे। पुलिस ने पिता की शिकायत और अदालत में पेश होने का आदेश मुझे दिखाया। आखिरकार मौलवी ने दो दिन की छुट्टी की अर्जी लिखवाई और वादा लिया कि मैं वापस लौटूंगी। मौलवी ने कहा, ‘‘डरो मत। अल्लाह, दीन और हम सब आपके साथ हैं। अदालत को दृढ़ता से बताना कि तुम यहां वापस आना चाहती हो। चाहे जो हो जाए, फैसला मत बदलना।’’

इस घटना का आपके परिवार पर क्या असर हुआ?
अगले दिन सुबह 6 बजे के आसपास जब हम अपने शहर कासरगोड पुलिस स्टेशन पहुंचे। थाने में मेरे रिश्तेदारों ने मुझे मनाने की बहुत कोशिश की। वे बहुत रोए। जब मैंने अपनी मां को पुलिस थाने में देखा तो मैं अंदर से हिल गई। मुझे हिजाब पहने देखकर मां बेहोश हो गईं। थाने में बयान लेने के बाद मुझे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। मैं दृढ़ता से कह रही थी, ‘‘मैं इस्लाम नहीं छोड़ूंगी, चाहे जो हो।’’ मजिस्ट्रेट के सामने एक पल के लिए मैंने मां का चेहरा देखा। वह रोते हुए बोलीं, ‘‘ऐसा मत करो मेरी बच्ची! मुझे छोड़कर मत जाओ।’’ लेकिन मैंने कहा, ‘‘मैं दो दिन बाद पोन्नानी वापस जाना चाहती हूं और इस्लामिक अध्ययन फिर से शुरू करना चाहती हूं।’’

आप फिर से सनातन धर्म की ओर कैसे लौटीं?
मेरे माता-पिता मुझे कलूर, एनार्कुलम में विश्व हिंदू परिषद के कार्यालय में ले गए। वहां तीन लोगों ने मुझसे विस्तार से बात की, मुझे दो दिन तक समझाते रहे। उनमें से एक ने मेरे माता-पिता को मुझे त्रिपुनिथुरा के एक योग केंद्र ले जाने को कहा। उन्होंने बताया, ‘‘वहां मनोज जी नामक एक योगाचार्य हैं। योग और हिंदू धर्म के बारे में कुछ बातें जानने के बाद मैं एक उचित निर्णय लेने में सक्षम हो पाऊंगी।’’ आचार्य के.आर. मनोज के साथ हुई बातचीत ने मेरी आंखें खोल दीं और मैं इस्लाम छोड़ सकी। इस्लाम में अनेक विसंगतियों के बारे में आश्वस्त होने के बाद, जिसे मैंने अपनी पुस्तक ‘स्टोरी आफ ए रिवर्जन’ में विस्तार से दिया है, मैंने गंभीरता से सनातन धर्म का अध्ययन शुरू किया। जैसे-जैसे मैंने सनातन धर्म की महानता और गुरु परंपराओं के बारे में जाना, मुझे अपने में दोष का पता चला। पहले मैं मजहबी उन्माद की अवस्था में थी।आचार्य मनोज से दीक्षा लेने के बाद मैंने साधिका के रूप में जीवन प्रारंभ किया। मैंने निश्चय किया कि  जो लोग गलत धारणाओं के कारण कन्वर्जन करा चुके हैं, उन्हें वापस सही रास्ते पर लाने के लिए काम करूंगी। ईश्वर ने हमें इतने महान धर्म में जन्म दिया है, फिर भी हम उसकी महानता को समझ नहीं पा रहे हैं।

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