महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले 4 दिन से एक अजब सा भावनात्मक नाट्य परोसा जा रहा है। सही मायने में यह भारतीय जनतंत्र की एक विचित्र और शर्मसार कर देने वाली तस्वीर है। निंदात्मक इसलिए क्योंकि ये एक राष्ट्रीय नेता और राष्ट्रीय जनाधार वाली पार्टी के विषय में नहीं अपितु एक परिवार या यूं कहे एक शख्स द्वारा शुरू की गई महत्वकांक्षा की असीमित दौड़ है।
80 के दशक के बाद से, भारतीय राजनीति अधिक वंशवादी हो गई है, संभवतः एक पार्टी संगठन, स्वतंत्र नागरिक समाज संघों की अनुपस्थिति के कारण जो पार्टी के लिए समर्थन जुटाते हैं, और चुनावों के केंद्रीकृत वित्तपोषण के कारण हैं। यह परिघटना राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक देखी जा सकती है।
इस संबंध में, एनसीपी को भारतीय राजनीति में उच्चतम स्तर की वंशवाद वाली पार्टी माना जाता है। पार्टी के संस्थापक, शरद पवार के परिवार के कई सदस्य हैं जैसे कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले और भतीजे अजीत पवार पार्टी में प्रमुख पदों पर हैं।
सोनिया गांधी के नेतृत्व के सैद्धांतिक विरोध में राकांपा की स्थापना के बावजूद, पार्टी अक्टूबर 1999 में महाराष्ट्र की सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) में शामिल हो गई। 2004 में, राष्ट्रीय सरकार बनाने के लिए पार्टी यूपीए में शामिल हो गई। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में राकांपा के नेता, शरद पवार ने सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के दोनों कार्यकालों के लिए कृषि मंत्री के रूप में कार्य किया।
पार्टी का प्राथमिक आधार महाराष्ट्र राज्य है और इसका नेतृत्व इसे दर्शाता है। एक निजी पार्टी जिसका उद्देश्य, वर्तमान और भविष्य उसी एक व्यक्ति की ख्वाइशों और सपनों पर तामीर होता है, वह व्यक्ति या नेता अपने परिवार से आगे के सोच को पर भी नही दे सकता।
यहां भी यही बंदरबाट है। शरद पवार जिनको राजनीति के खिलाड़ी भीष्म पितामह की संज्ञा देने की कोशिश करते रहे, जिन्हे महाराष्ट्र राजनीति का धुरंधर बताया जाता रहा है, आज अपनी बैटन अपनी सुपुत्री सुप्रिया सुले को थमाना चाहते हैं।
24 वर्ष से ये अपनी पार्टी “राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी” चला रहे हैं, 24 साल से ये ही अध्यक्ष हैं और लोकतांत्रिक तरीका अपना कर भी हर बार सर्व सम्मति से अध्यक्ष चुने जाते रहे हैं। राज्य की 288 सदस्य वाली विधान सभा में 71 विधायक चुना जाना इनकी सर्वाधिक उपलब्धि है, वहीं लोकसभा में सर्वाधिक 9 सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की विजय गाथा रही है। हां, ये जरूर है की इस 9 के आंकड़े में 1 सीट कभी मेघालय तो कभी गुजरात से आई, बाकी महाराष्ट्र से ही आई हैं।
विडंबना तो ये है की विपक्ष के एक सुर एक नीती न होने के कारण, वो कभी कभी अपने को या यूं कहिए बिखरे हुए विपक्ष को वास्तुकार के रूप में कभी मंझधार से बचाने वाले नाविक के रूप में नज़र आते हैं। जिस नेता की अपनी यात्रा, एक भाव एक सवाल से शुरू हुई हो, उसका समय के साथ कोई नैतिक मूल्य कोई आधार नहीं रहा। कभी किसी मुद्दे पर किसी के साथ, कभी किसी के विपरीत, जहां जैसा हवा का रुख अपने फायदे में देखा उधर मुख कर लिया।
आज की हकीकत ये है की वो अपनी ही पार्टी में फैसले नही ले पा रहे हैं। उनको कभी डर है अपने भतीजे से तो कभी पार्टी के अन्य कद्दावर नेताओं से। अपने भतीजे को काबू में न कर पाने की टीस उनको अपने पद से इस्तीफ़ा देने पर मजबूर करती है। पर शायद ये सब एक भावनात्मक नाटक है। ये एक किस्म का ब्लैकमेल है जिसको ढाल बनाकर वो फिर से अध्यक्ष बने रहना चाहते हैं।
उनको ये दिखाने की मजबूरी आन पड़ी कि पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता और सदस्य उनके साथ हैं। ये एक प्रकार का पद छिन जाने का भय सा प्रतीत होता है। उन्होंने 18 सदस्यों की एक समिति घटित की जो अपना नया अध्यक्ष चुन सके। नतीजा ये कि उस समिति का सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ की श्री शरद पवार ही उनके अध्यक्ष हैं जिन्होंने इस पार्टी की नींव रखी थी।
ऐसा व्यक्ति, ऐसा नेता, जिसका हर कदम, हर निर्णय अपने को बचाने अपने को स्थापित करने में लगा हो राष्ट्रीय विकल्प कैसे हो सकता है। अपनी पुत्री को स्थापित करने और अपने भतीजे के पर कतरने के लिए अगर इस्तीफे का नाटक करना पड़े तो हर्ज़ नही।
विडंबना ये है कि कभी उनको राष्ट्रपति तो कभी विपक्ष का चेहरा बनाने की कवायद चलती है। सोचना चाहिए कि उनका क्या राजनैतिक आधार है, क्या मूल्य हैं, पार्टी की विचारधारा क्या है?
देश की राजनीति किस ओर जा रही है, अलग अलग राज्यो से परिवारवाद के स्तंभ बन चुके नेता फारुख अब्दुल्ला, स्टालिन और राहुल गांधी इनको सलाह दे रहे हैं की आप अध्यक्ष बने रहिए। अक्सर विपक्ष जिस शरद पवार को अपना मसीहा एक राजनैतिक पुरोधा मानता आया है वो पवार ही समय समय पर उनका साथ नही देते और किरकिरी करवा देते हैं।
साफ है कि सौदेबाजी की राजनीति में जो जहां फायदेमंद साबित हुआ इनका रुख भी उधर हुआ। विपक्षी एकता के नाम पर शरद पवार का नाम आता तो है पर जो विपक्ष का परिवार है वो सभी अपने को एक दूसरे से वजनी पाते हैं और भीष्म पितामह की नही मोदी जी जैसे करिश्माई नेता की इनको आवश्यकता है।
हास्यास्पद है, एक परिवार के मुखिया के चुनाव पर सैद्धांतिक मतभेद कर अलग हो जाने वाले नेता आज खुद के परिवार का अस्तित्व बचाने में लगे हैं।
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