– क्वेटा से काजीदाद मोहम्मद रेहान, सूचना सचिव, बलूच नेशनल मूवमेंट
आज जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के हिंदू धार्मिक केंद्र शारदा पीठ को भारतीयों के लिए खोलने की सुगबुगाहट हो रही है, तो मन में एक बात कौंधती है। कैसा अजीब सा रिश्ता है बलूचिस्तान, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और भारत में! बलूचिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में हिंदुओं की दो शक्तिपीठ हैं- बलूचिस्तान में हिंगलाज माता का मंदिर और नीलम घाटी में शारदा पीठ। हिंगलाज में सती का सिर गिरा था तो शारदा पीठ में हाथ।
वैसे, इन दोनों पीठों में बड़ा अंतर है। हिंगलाज माता के मंदिर में जहां बड़ी भीड़ जुटती है, शारदा पीठ उजाड़ सा है। हिंगलाज में भारत से भी लोग दर्शन करने आते हैं, लेकिन शारदा पीठ में भारत के लोगों को जाने की इजाजत नहीं। हिंगलाज माता का मंदिर जिसे ‘नानी का मंदिर’ भी कहते हैं, वहां बुतपरस्ती को हराम मानने वाले मुसलमान भी सिर झुकाते हैं और यह सभी मजहबों के लोगों को आपस में जोड़ने का भी काम करता है जबकि शारदा पीठ, जो कभी इल्म और तालीम की एक बेहतरीन जगह हुआ करती थी, आज वीरान पड़ी है।
अहमियत है बड़ी
सिंध के एक हिंदू कहते हैं, “सती के आत्मदाह करने से भगवान शिव आहत थे और क्रोधित भी। वह सती के शरीर को लेकर तांडव कर रहे थे और तब दुनिया को शिव के क्रोध से बचाने के लिए विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे। हिंदुओं के लिए उन 51 शक्ति पीठों का महात्म्य विशेष है जहां सती के शरीर के हिस्से गिरे। सती का सिर हिंगलाज की पहाड़ी पर गिरा था और इस कारण हिंगलाज मंदिर का विशेष महत्व है। नवरात्र के दौरान यहां विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।” हिंगलाज मंदिर के बारे में कहते हैं कि यहां दिल से मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है। मुसलमान इसे ‘नानी का मंदिर’ कहते हैं। उसी तरह शारदा पीठ की भी बड़ी महिमा है। यहां सती का हाथ गिरा था इसलिए यह हिंदुओं के 51 शक्तिपीठों में भी है। सदियों तक यह पीठ भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत का बड़ा केंद्र रहा। भारत के बंटवारे के बाद नीलम घाटी में स्थित शारदा पीठ उपेक्षित रही और 2005 में आए भूकंप में इसे भारी नुकसान पहुंचा था। वैसे पिछले चार-पांच सालों के दौरान मकामी लोगों ने मंदिर को थोड़ा-बहुत सहेजा है।
दर्द का रिश्ता
कहते हैं कि दर्द का रिश्ता सबसे बड़ा होता है और जब किसी दर्द की वजह एक हो तो यह जुड़ाव और भी गहरा होता है। दहशतगर्दी और फौजी जुल्म को स्टेट पॉलिसी की तरह इस्तेमाल करने वाले पाकिस्तान ने इस तरह का दर्द कई इलाकों को दिया है। इस लिहाज से बलूचिस्तान, गिलगित बालतिस्तान, पाक कब्जे वाले कश्मीर, खैबर पख्तूनख्वा और सिंध के हालात एक से हैं। सभी पाकिस्तान के सताए हुए हैं। कोई कुछ कम तो कोई कुछ ज्यादा। दर्द के ऐसे माहौल में लोगों को जोड़ने में आस्था के केंद्रों की बड़ी भूमिका हो सकती है। लेकिन जिस मुल्क में लोगों को बुनियादी इंसानी हुकूक हासिल न हो, वहां इंसानी जज्बातों की क्या बिसात?
बलूच नेशनल मूवमेंट के चेयरमैन डॉ. नसीम इस बात को लगातार कहते रहे हैं कि पाकिस्तान की हुकूमत के सताए सभी लोगों, सभी इलाकों को एकजुट होना चाहिए। बलूचिस्तान अपनी कौमी आजादी की जो लड़ाई लड़ रहा है, उसकी एक बड़ी वजह अपनी तारीख, अपनी पहचान, अपनी रवायतों और अपनी आने वाली नस्ल की हिफाजत है। इस तरह की जद्दोजहद गिलगिट बालतिस्तान, पीओके, खैबर पख्तूनख्वा से लेकर सिंध तक देखी जा सकती है।
हुकूमत की दिलचस्पी नहीं
दुनिया भर में यह बात मानी जाती है कि आम लोगों के बीच ताल्लुकात किन्हीं भी दो मुल्कों के बीच रिश्तों को बेहतर बनाने का बड़ा जरिया होते हैं। लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों की दिलचस्पी अपने ही अवाम की बेहतरी में नहीं। अगर शारदा पीठ कॉरिडोर को खोला जाता तो इससे वहां के मकामी लोगों के माली हालात भी बेहतर होते। लेकिन लगता है कि पाकिस्तान ‘अपने लोगों’ से जितनी ‘मोहब्बत’ करता है, उससे कहीं ज्यादा हिन्दुस्तान से नफरत करता है।
वैसे, यह अफसोसनाक लेकिन सच है कि इस्लामाबाद का रुख क्या होगा, यह इस बात से तय होता है कि वह पंजाब के फायदे में है या नहीं। हुकूमत से लेकर मीडिया तक की सेहत पर तभी फर्क पड़ता है जब बात पंजाब से जुड़ी हो। यही वजह है कि उन्हें न तो बलूच दिखते हैं और न कश्मीरी। शारदा पीठ कॉरिडोर पर चुप्पी भी इसी वजह से है। मुझे इस बात की गुंजाइश बेहद कम दिखती है कि पाकिस्तान शारदा पीठ कॉरिडोर को लेकर कोई पॉजिटिव पहल करेगा।
फौज भी फैक्टर
यह आम जानकारी की बात है कि पाकिस्तान की हुकूमत को फौज चलाती है। प्राइम मिनिस्टर कोई भी हो, किसी के हाथ में कुछ नहीं होता। आज के प्राइम मिनिस्टर शाहबाज शरीफ हों या फिर इनसे पहले रहे इमरान खान, सब चीफ ऑफ आर्मी के मातहत काम करते हैं। प्राइम मिनिस्टर कोई भी फैसला लेने के लिए अपने मंत्री या पार्टी से नहीं बल्कि फौज से राय-मशविरा करता है। पाकिस्तान में जो भी सियासी रस्साकशी दिखती है, उसका कोई मतलब नहीं क्योंकि सत्ता की डोर तो फौज के ही हाथ रहनी है।
और बात जब कश्मीर या बलूचिस्तान की हो, तब तो फौज की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। इसलिए पीओके की सरकार ने जो भी रिजॉल्यूशन पास किया है, उसका कोई मतलब नहीं। बिना फौज की मर्जी के वहां कुछ भी नहीं होने जा रहा और फौज शारदा पीठ कॉरिडोर खोलने जैसा कोई फैसला करेगी, ऐसा मान लेना खुद को भुलावे में रखना होगा।
लोगों में कसक
मेरी कश्मीर के कई लोगों से बातचीत हुई जिसमें उन्होंने खुलकर अपनी नाराजगी का इजहार किया। पाकिस्तान लंबे समय से कश्मीर के लोगों के साथ गुलामों जैसा सलूक कर रहा है। शारदा पीठ को खोले जाने की इच्छा न केवल भारत के लोगों की है, बल्कि नीलम घाटी के लोग भी चाहते हैं कि कॉरिडोर खुले। वे चाहते हैं कि भारत के बंटवारे के बाद से ही अलग हो गए गांवों में जाएं, लोगों से भेंट-मुलाकात करें। भारत के बंटवारे का सबसे ज्यादा खामियाजा भारत कश्मीर और भारत के हिस्से वाले पंजाब को झेलना पड़ा है। आज नीलम घाटी समेत पाकिस्तान के कब्जे वाले पूरे कश्मीर के लोग चाहते हैं कि वे भारत के संपर्क में आएं।
शारदा पीठ को लेकर भारत के लोगों के जज्बात कैसे होंगे, इसका अंदाजा हम बलूचों से बेहतर किसे हो सकता है? हम भारत के साथ अपने सांस्कृतिक और व्यापारिक रिश्तों को बहाल होते देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि गुजरात के साथ हमारे तारीखी रिश्ते बहाल हों। कादिर बख्श रिंद बलूच जो कदु मकरानी के नाम से मशहूर हुए, हमारे हीरो हैं। उनका जन्म मकरान में हुआ लेकिन बाद में वह गुजरात के काठियावाड़ चले गए और एक बड़े क्रांतिकारी बने। गुजरात से लोग मकरान स्थित उनके जन्म स्थल के दर्शन करने आते हैं। हमारे लिए भी गुजरात जाकर उन जगहों को देखना एक सुनहरे ख्वाब जैसा है जहां मकरानी की विरासत है। आज कश्मीर के लोगों के जज्बात शारदा पीठ को लेकर, एक-दूसरे से मिलने को लेकर कैसे होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
प्रस्तुति : अरविंद
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