अफगानी महिलाओं का विरोध नहीं आया बाहर, क्या तालिबान सत्ता के सामने मीडिया ने टेक दिए घुटने?

जैसे ईरान में महिलाओं पर हो रहे सरकारी अत्याचारों पर पूरा विश्व विमर्श नहीं बना रहा है, वैसे ही अफगानिस्तान में भी बच्चियों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध से लेकर सार्वजनिक जीवन से महिलाओं को तालिबान ने गायब ही कर दिया है।

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सोनाली मिश्रा

अभी तक अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता नहीं प्राप्त हुई है, परन्तु कहीं न कहीं यह सुगबुगाहट हो रही है कि तालिबान को मान्यता प्रदान की जाए। अगले सप्ताह दोहा में यूएन का एक सम्मलेन होने जा रहा है। ऐसे में कहीं न कहीं यह आशंका भी है कि तालिबान सरकार को मान्यता मिलेगी। जैसे ईरान में महिलाओं पर हो रहे सरकारी अत्याचारों पर पूरा विश्व विमर्श नहीं बना रहा है, वैसे ही अफगानिस्तान में भी बच्चियों की शिक्षा पर प्रतिबन्ध से लेकर सार्वजनिक जीवन से महिलाओं को तालिबान ने गायब ही कर दिया है।

यदि इन परिस्थितियों में तालिबान की सरकार को विश्व द्वारा मान्यता पर बात होती है तो महिलाओं की स्थिति क्या होगी? क्या यह विश्व का उन महिलाओं के साथ अन्याय नहीं है, जिनके जीवन को तालिबान ने लील लिया है, जिन महिलाओं को परदे में बंद कर दिया है, जिन्हें पढ़ने की मूलभूत आजादी से बेदखल कर दिया है। जहां एक ओर विश्व कैद में इन महिलाओं पर बात नहीं कर रहा है तो वहीं कुछ ऐसी बेख़ौफ़ महिलाएं हैं, जो खुलकर सामने आ गयी हैं और यूएन से यह अनुरोध कर रही हैं कि तालिबान को मान्यता न दी जाए। कई वीडियो उन महिलाओं के सोशल मीडिया पर साझा हो रहे हैं।

एक वीडियो और साझा किया जा रहा है, जिसमें कहा जा रहा है कि तालिबान आतंकवादी समूह है और वह अफगानिस्तानी लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। हम अफगानिस्तान के लोग अभी हैं और मायने रखते हैं महिलाएं ट्वीटर पर पोस्ट कर रही हैं कि तालिबान एक आतंकवादी समूह है जिसने पिछले 20 वर्षों में और कुछ नहीं बस केवल हर रूप में मारना सीखा है।

क्या ऐसा करके महिलाएं अपना क्रोध व्यक्त कर रही हैं या फिर वह विद्रोह का वह अध्याय लिख रही हैं, जिसमें संघर्ष है और खतरा भी, परन्तु फिर भी अपनी नई आने वाली पीढ़ी के लिए खड़ा होने का हौसला भी। अफगानिस्तान की महिला नेता फव्जियाकूफी ने यही कहा कि अफगानिस्तान में महिलाएं इस विद्रोह से संघर्ष एवं बहादुरी का एक नया अध्याय लिख रही हैं।

जब यह विरोध प्रदर्शन चल रहे थे, तो यह बिना आक्रोश बिना कारण नहीं था। 29 अप्रैल को जब महिलाएं यह विरोध प्रदर्शन कर रही थीं तो उसी समय 23 वर्षीय ज़र्मीना जो कि गर्भवती थी, उसे “सदसिया” गाँव में तालिबानी लड़ाकों ने उसका शारीरिक शोषण करने के उद्देश्य से घेरा। जब जर्मीना ने शोर मचाया तो उसे गोली मारते हुए वह भाग गए।

महिलाएं अंतरराष्ट्रीय समुदाय से यह प्रार्थना कर रही हैं कि उनकी पीड़ा सुनी जाए। उनकी बातें सुनी जाएं, उनके पास पढ़ने के लिए अधिकार नहीं है, उन्हें बाजार जाने का अधिकार नहीं है और उन्हें परदे से बाहर जाने का अधिकार नहीं है। पेरिस में भी अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता दिलाए जाने को लेकर विरोध प्रदर्शन किए गए। यह उन तमाम अत्याचारों को देखते हुए किए गए थे, जो तालिबान ने महिलाओं को समाज से एकदम गायब करने को लेकर किए हैं। परन्तु भारत में ऐसी एक भी आवाज नहीं उठ रही है, बल्कि मीडिया से भी यह खबर पूरी तरह से गायब है। इस बात को भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार आई थी तो भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग इसकी कल्पना भर से ही रोमांचित हो उठा था कि तालिबान ने अमेरिका जैसी शक्ति को परास्त कर दिया तो मोदी क्या चीज है।

मोदी विरोध कब तालिबान के समर्थन में बदल गया, यह पता नहीं चला था। सरकार के साथ विद्रोह कब ऐसी ताकत का समर्थन बन गया था जिसका नाम ही आतंक का पर्याय है, जिसकी दृष्टि में महिलाएं घर से बाहर निकलने के योग्य ही नहीं हैं और जिसकी दृष्टि में महिलाओं को पढ़ने का अधिकार नहीं है। कथित फेमिनिस्ट एवं सरकार का विरोध करने वाले पत्रकार इस सीमा तक तालिबान के पक्ष में आ गए थे कि उन्होंने नसीरुद्दीन शाह तक का सोशल मीडिया पर इस कारण विरोध कर दिया था कि उन्होंने तालिबान को आईना दिखा दिया था।

एक अजीब दौर चला था जिसमें यह ही नहीं पता चल रहा था कि आखिर नरेंद्र मोदी सरकार का विरोध किस सीमा तक जा सकता है? क्या अपने देश की सरकार का विरोध करते हुए कट्टरपंथी ताकत को बल देना या समर्थक हो जाना ठीक था? भारत की जनता ने देखा था इसे और यह भी देखा था कि कैसे दानिश सिद्दीकी की तालिबान द्वारा हत्या को लेकर रविश कुमार ने बन्दूक की “गोली” पर लानत भेजी थी।


वह दौर भी लोगों को याद है। भारत की बहुमत से निर्वाचित सरकार को हटाने की उत्कंठा भी दबी दबी जुबां में आने लगी थी, परन्तु दानिश सिद्दीकी की हत्या पर भी खुलकर न बोलने वाले तालिबान के दबे समर्थक अब उन महिलाओं के पक्ष में बोलने से हिचकते हैं, जो तालिबान का विरोध कर रही हैं, जो अपनी जान को दांव पर लगाकर यह कह रही हैं कि “यह आतंकी हैं और हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, अत: इन्हें मान्यता न दी जाए।”

वर्ष 2021 में अफगानिस्तान में सरकार बनाने के बाद से अभी तक किसी भी देश ने तालिबान को मान्यता प्रदान नहीं की है। इस विषय पर गैर सरकारी संगठन, महिलाओं के लिए कार्य करने वाले संगठन एकमत नहीं हो पा रहे हैं कि उन्हें विरोध करना है या मान्यता देनी है। जहां एक राय यह बन रही है कि यदि तालिबान को मान्यता दे दी जाए तो वह जिम्मेदार होंगे और महिलाओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलेंगे तो वहीं कई का यह मानना है कि ऐसे समय में जब महिलाओं को वह लोग सार्वजनिक परिदृश्य से गायब करने में लगभग सफल हो रहे हैं, उन्हें मान्यता देना, महिलाओं पर अन्याय होगा। हालांकि मीडिया के अनुसार दोहा में आयोजित होने वाले यूएन के सम्मेलन के लिए अभी अफगानिस्तान को नहीं बुलाया गया है।

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