गीता प्रेस से रामचरितमानस के प्रकाशन में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। गीता प्रेस के लिए उन्होंने कई किताबें और लेख लिखे। बाद में उन्होंने संन्यास ले लिया और तब उनका नाम स्वामी अखंडानंद सरस्वती हो गया।
स्वामी अखंडानंद सरस्वती (25 जुलाई, 1911-19 नवंबर, 1987) का जन्म वाराणसी के पास महरई गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम शांतनु बिहारी द्विवेदी था। वे गीता प्रेस में ‘कल्याण’ के सम्पादकीय बोर्ड के सदस्य थे। लेकिन वहां से कभी पैसा नहीं लिया। गीता प्रेस से रामचरितमानस के प्रकाशन में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। गीता प्रेस के लिए उन्होंने कई किताबें और लेख लिखे। बाद में उन्होंने संन्यास ले लिया और तब उनका नाम स्वामी अखंडानंद सरस्वती हो गया।
स्वामी जी ने ‘कल्याण’ के संपादकीय विभाग में काम करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद किया था। उनकी लिखित पुस्तकों में श्रीभीष्म पितामह, भक्तराज हनुमान, महात्मा विदुर प्रमुख हैं। उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ का चतुर्थ संस्करण मई 2012 में सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृंदावन से प्रकाशित हुई। इसमें एक लेख में उन्होंने ‘भाईजी’ के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा किए हैं। उन्होंने लिखा है, ‘‘मैं ‘कल्याण’ पढ़ा करता था और उसमें वेदांत, भक्ति तथा धर्म संबंधी विचार पढ़कर बहुत प्रभावित भी था। खासकर भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी के लेख बहुत प्रिय लगते थे। मेरे मन में अब यह आशा और विश्वास दृढ़ होने लगा कि इस संस्था द्वारा सनातन धर्म की रक्षा एवं स्थापना होने में सहायता मिल सकती है। मैंने वाराणसी से पैदल यात्रा की और बड़हलगंज, भाटपार आदि होता हुआ पैदल ही गोरखपुर पहुंच गया।’’
‘कल्याण’ के आदि संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार का प्रयास रहता था कि समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र के विद्वान उसमें लिखें। उन्होंने हिंदी के नए-नए लेखक तैयार किए। महात्मा गांधी से भी हिंदी में लेख लिखवाए। जो संत-महात्मा विरक्त भाव से साधना में लगे रहते थे, उन्हें भी लेख लिखने के लिए प्रेरित किया, कभी स्वयं जाकर उनसे प्रार्थना करते, कभी स्वजन को भेज कर, तो कभी पत्र द्वारा। जो आध्यात्मिक विषयों पर नहीं लिखते थे, उन्हें भी आध्यात्मिक विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया।
एक संत थे श्रीनारायण स्वामी जी। 1930 में भाईजी की उनसे भेंट हुई। भाईजी ने उनसे कल्याण के लिए अपने अनुभव लिखने का आग्रह किया। पहले तो वह तैयार नहीं हुए, फिर भाईजी के अधिक आग्रह पर कहा कि उर्दू में लिखूंगा। भाईजी ने उनसे उर्दू में लिखवाया और उन्हीं के सामने बैठकर दो लोगों से उसका हिंदी अनुवाद करवाया। बाद में यह लेख ‘एक संत का अनुभव’ शीर्षक से कल्याण में प्रकाशित हुआ। उसका अंग्रेजी अनुवाद कल्याण-कल्पतरु में प्रकाशित हुआ। गीता प्रेस ने लेख को एक लघु हिंदी पुस्तक के रूप में भी अलग से प्रकाशित किया, जिसका गुजराती में भी अनुवाद हुआ है।
भाईजी ने कथा-सम्राट प्रेमचंद से भी आध्यात्मिक लेख लिखवाया। उम्र में भाईजी उनसे 12 वर्ष छोटे थे। प्रेमचंद द्वारा 16 फरवरी, 1931 को भाईजी को लिखा पत्र यहां प्रस्तुत है-
प्रिय हनुमान प्रसाद जी,
आपका कृपापत्र मिला। आपका यह कथन सत्य है कि मैंने तीन वर्षों में ‘कल्याण’ के लिए कुछ नहीं लिखा, लेकिन इसके कारण हैं। यह एक धर्म विषयक पत्रिका है और मैं धार्मिक विषय में कोरा हूं। मेरे लिए धार्मिक विषयों पर कुछ लिखना अनाधिकार है। आप अधिकारी होकर मुझ अनाधिकारी से लिखाते हैं। इसलिए अब मैं आप की आज्ञा का पालन करूंगा। ‘श्रीकृष्ण और भावी जगत्’, यह प्रसंग मेरे अनुकूल है और मैं इसी पर लिखूंगा।
भवदीय
प्रेमचंद
(इस पत्र को भाईजी के निकट सहयोगी श्री गंभीरचंद दुजारी जी की पुस्तक ‘श्री भाईजी-एक अलौकिक विभूति’ गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर, के पृष्ठ 307 से लिया गया है।)
प्रेमचंद का लेख ‘श्रीकृष्ण और भावी जगत्’ शीर्षक से ‘कल्याण’ के श्रीकृष्ण-अंक में पृष्ठ संख्या 305-306 पर प्रकाशित हुआ। श्रीकृष्ण-अंक अगस्त 1931 को निकला था। मुंशी प्रेमचंद ने अगस्त 1932 में विशेषांक ईश्वरांक के लिए भी लिखना चाहा था, परंतु वे ऐसा कर नहीं पाए। 3 मार्च, 1932 को प्रेमचंद ने गणेशगंज, लखनऊ से पोद्दार जी को एक पत्र लिखा था-
प्रिय बंधुवर
वंदे।
आपके दो कृपापत्र मिले। काशी से पत्र यहां आ गया था। हंस के विषय में आपने जो सम्मति दी, उससे मेरा उत्साह बढ़ा। मैं कल्याण के ईश्वरांक के लिए अवश्य लिखूंगा।
भवदीय
धनपत राय
(यह पत्र श्री अच्युतानंद मिश्र द्वारा संपादित पुस्तक ‘पत्रों में समय संस्कृति’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली के पृष्ठ 40 से लिया गया है।)
प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था। प्रेमचंद से भाईजी का बड़ा प्रेम संबंध रहा। उन्होंने अपने निधन के पूर्व भाईजी के पास गोरखपुर रहने की इच्छा भी प्रकट की थी। परंतु यह संयोग बन नहीं सका। उनका निधन अक्तूबर 1936 में हुआ।
‘‘उन दिनों ‘कल्याण’ का कार्यालय श्रीगोरखनाथ मंदिर के पास एक उद्यान वाले बंगले में था। पास ही गोस्वामी श्री चिम्मनलाल जी का निवास स्थान था। उन्होंने श्री भाईजी की बहुत महिमा सुनाई और मेरे एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि संसार के सामने दीन होने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् के सामने दीन होने से सारी दीनता मिट जाती है। उसी दिन सायंकाल भाईजी से मिलना हुआ। भाईजी से प्रथम भेंट में उनकी विनम्रता, सरलता, सद्भाव देखकर मन प्रसन्न हुआ, प्रभावित हुआ। बातचीत के प्रसंग में उन्होंने पूछा, ‘आप क्या चाहते हैं?’ मेरे मुख से बिना सोचे-विचारे निकला, ‘मुझे भजन चाहिए, बस। भगवान का भजन चाहिए।’ उनके नेत्रों से झर-झर आंसू की बूंदें टपकने लगीं। वे बार-बार बोलने लगे-
उमा राम स्वभाव जिन जाना।
तिन्हहिं भजन तजि भाव न आना।।
वे जैसे तन्मय हो गए हों। मेरे मन में भगवान का स्मरण और नामोच्चारण होने लगा। कुछ समय तक यह प्रभाव रहा। अवश्य ही उस समय चित्त की दशा असाधारण-सी हो गई थी। मैं वहां दो-तीन दिन रहा।
भाईजी ने अग्निकांड को अग्निदेव माना
एक बार की बात है। गीता-वाटिका में संवत्सरव्यापी अखंड-कीर्तन के दिनों में अग्निकांड हो गया था। फूस की 18-20 कुटिया थीं, जिसमें अनेक प्रांतों के साधक, मौनी और फलाहारी रहकर साधना कर रहे थे और केवल भगवन् नाम का ही उच्चारण करते थे। रात के समय किसी कारणवश आग लग गई। नोट, कपड़े, सामग्री तो जले ही, ठाकुरजी की सेवा, चित्रपट, पाठ के ग्रंथ भी भस्म हो गए। भाईजी अपने कमरे से बाहर निकल कर आए और बोले, ‘‘अग्निदेव के रूप में स्वयं भगवान पधारे हैं। खूब-खूब घी लाओ, बूरा लाओ। भली-भांति इस रूप में भगवान का सत्कार करो!’’ वैसा ही किया गया। मैं भी गुफा के समान बनी अपनी सेवाकुटी से बाहर आ गया और भाईजी की भावभक्ति देखकर गद्गद् हो गया। सचमुच भाईजी ने जीवन भर इसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि सब कुछ भगवान की लीला है। सब रूप में भगवान ही हैं। उनके प्रवचन और क्रिया-कलाप में सर्वत्र भगवत्भाव की ही अभिव्यक्ति देखी जाती थी।
देश की स्वतंत्रता से पहले एक बार जवाहर लाल नेहरू गोरखपुर आए थे। नेहरू जी ‘संकीर्तन-महायज्ञ’ में आमंत्रित किए गए। वे यज्ञ में आए और यज्ञ-मंडप में भगवान को नमस्कार कर पूछा, ‘‘क्या दिन-रात यह अखंड संकीर्तन होता रहता है? ढोलक और झांझ बजते रहते हैं?’’ उन्हें उस समय तक इन बातों से इतना परिचय नहीं था। भाईजी ने उनके सामने भारतीय भक्ति-भाव एवं संकीर्तन की महिमा पर प्रवचन किया। नेहरू जी ने आश्चर्यचकित होकर उसका श्रवण किया।
‘कल्याण’ का प्रकाशन 1926 में शुरू हुआ था। 1927 से प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में इसका एक विशेषांक निकल रहा है। अब तक के 50 से अधिक विशेषांक ऐसे हैं, जिनकी लगातार मांग है। इसलिए समय-समय पर इनका पुनर्मुद्रण किया जाता है। सभी विशेषांक लगभग 500 या इससे अधिक पृष्ठों के हैं। आज के इंटरनेट, मोबाइल और सोशल मीडिया युग में गंभीर पाठक कम हुए हैं, फिर भी ‘कल्याण’ की मांग लगातार बनी हुई है। इससे यह पता चलता है कि कल्याण के गंभीर पाठकों की संख्या आज भी अच्छी खासी है
एक बार की बात है। गीता-वाटिका में संवत्सरव्यापी अखंड-कीर्तन के दिनों में अग्निकांड हो गया था। फूस की 18-20 कुटिया थीं, जिसमें अनेक प्रांतों के साधक, मौनी और फलाहारी रहकर साधना कर रहे थे और केवल भगवन् नाम का ही उच्चारण करते थे। रात के समय किसी कारणवश आग लग गई। नोट, कपड़े, सामग्री तो जले ही, ठाकुरजी की सेवा, चित्रपट, पाठ के ग्रंथ भी भस्म हो गए। भाईजी अपने कमरे से बाहर निकल कर आए और बोले, ‘‘अग्निदेव के रूप में स्वयं भगवान पधारे हैं। खूब-खूब घी लाओ, बूरा लाओ। भली-भांति इस रूप में भगवान का सत्कार करो!’’ वैसा ही किया गया। मैं भी गुफा के समान बनी अपनी सेवाकुटी से बाहर आ गया और भाईजी की भावभक्ति देखकर गद्गद् हो गया।
भाईजी की सहृदयता
गीता प्रेस में भिन्न-भिन्न विचार के कर्मचारी थे। कोई आस्तिक, कोई नास्तिक, कोई कांग्रेसी, कोई कम्युनिस्ट। कोई-कोई कर्मचारी प्रेस के विरुद्ध प्रचार और संगठन बनाने का प्रयास भी करते। एक थे पं. गौरीशंकर द्विवेदी। वे रूसी, चीनी, फे्रंच, अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता, अनुवादक और लेखक थे। वे कर्मचारियों का संगठन बनाने में अत्यंत रुचि रखते थे। उनके कारण प्रेस में हड़ताल भी हो जाया करती थी। इसलिए सेठ जयदयाल जी ने उन्हें प्रेस कार्य से मुक्त कर दिया। इससे उनके जीवन में आर्थिक तंगी आ गई। लेकिन भाईजी की सहृदयता में कोई कमी नहीं आई। भाईजी उनसे काम लेते और उनके भरण पोषण का प्रबंध करते थे। हालांकि द्विवेदी जी से प्रेस को हानि पहुंच सकती थी। भाईजी ने उनसे श्रीमद्भागवत की फ्रेंच भूमिका का अनुवाद करवाया था, जिसका भागवत के संपादन में बहुत उपयोग हुआ। काम न होने पर भी भाईजी लोगों के लिए काम निकाल लेते थे और उनकी सहायता करते थे।
एक बार एक सज्जन आए और भाईजी से बोले, ‘‘मैं नेपाल की यात्रा करने आया था। पत्नी बीमार पड़ गई है, उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया है। अमुक नंबर के कमरे में है। खर्च के लिए पैसा नहीं है। क्या करूं?’’ भाईजी ने उन्हें दो-ढाई सौ रुपये दिए। तीसरे-चौथे दिन वे फिर आए और बोले, ‘‘बीमारी गंभीर हो गई है। आपरेशन करवाना पड़ेगा। कुछ और चाहिए।’’ तीन-चार दिन बाद फिर आए और कहा, ‘‘वह मर गई है। उसका क्रिया-कर्म करना पड़ेगा।’’ ‘कल्याण’ परिवार वालों ने भाईजी को कहा, ‘‘यह कोई ठग मालूम पड़ता है। इसे कुछ मत दीजिये।’’
भाईजी ने कहा, ‘‘मैंने तो पहले ही दिन अस्पताल में फोन करके पूछ लिया था। वहां किसी कमरे में इसकी पत्नी दाखिल नहीं है। पत्नी थी ही नहीं तो बीमारी, औषधि और क्रिया-कर्म की क्या चर्चा? परन्तु जब ये सज्जन मेरे पास आकर बैठते हैं तो मुझे मालूम पड़ता है कि पूर्व जन्म में मैंने इनसे कोई ऋण लिया है और उसको चुकाना मेरा कर्तव्य है। उनकी आवश्यकता सच्ची है या झूठी, इस विचार से मेरा क्या मतलब! मेरा हृदय इनको कुछ देने के लिए विवश कर देता है। मैं अपने हृदय की पीड़ा मिटाने के लिए देता हूं। उनके सच-झूठ के आधार पर नहीं। सच्चे-झूठे तो सभी होते हैं। अपना हृदय सद्भावपूर्ण रहना चाहिए। किसी दु:खी या गरीब की सहायता करने में यदि सहायक अपने को भी देता है तो वह सहृदयता की ही अभिव्यक्ति है।
उदाहरण के तौर पर, पुस्तक में लिखा गया है कि गांधी जी की मृत्यु पर कल्याण में श्रद्धांजलि नहीं छपी थी। सच यह है कि गांधीजी का निधन 30 जनवरी, 1948 को शाम को हुआ था और उस दिन तक ‘कल्याण’ के नारी अंक (विशेषांक) की अधिकांश प्रतियां भेजी जा चुकी थीं। जो बची थीं, उनमें प्रारंभ में ही महात्मा गांधी के बारे में तीन पेज चिपका कर पाठकों को भेजे गए थे। पहले पृष्ठ पर बापू का चित्र, दूसरे पर उनके अनुयायी बाबा राघवदास द्वारा लिखी गई श्रद्धांजलि और तीसरे पृष्ठ पर ‘कल्याण’ के संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वारा ‘बापू’ शीर्षक से लिखी गई श्रद्धांजलि थी। कल्याण के फरवरी 1948 के अंक में बापू का एक लेख ‘हिंदू विधवा’ प्रकाशित हुआ। अप्रैल 1948 के अंक में ‘बापू की अमर वाणी’ शीर्षक से उनके उपदेश छापे गए थे। इसके अतिरिक्त इस अंक में भाईजी ने बापू के कुछ संस्मरण ‘बापू के भगवन्नाम संबंधी कुछ पवित्र संस्मरण’ भी छापे थे।
पोद्दार जी से महात्मा गांधी के एक परिवार जैसे संबंध थे। 1932 में गांधीजी के पुत्र देवदास गांधी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार करके गोरखपुर जेल में रखा था। गांधीजी के कहने पर भाईजी ने देवदास गांधी का पूरा खयाल रखा और नियमित रूप से जेल में उनसे मिलते रहे। रिहाई के फौरन बाद देवदास गांधी के बीमार पड़ने पर भी भाईजी ने उनका ख्याल रखा।
एक बार ‘कल्याण’ के अक्तूबर 1946 के अंक पर तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने पाबंदी लगाकर उसे जब्त कर लिया था। जब ‘कल्याण’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो भाईजी महात्मा गांधी से आशीर्वाद लेने गए थे। गांधीजी ने तब उन्हें यह सलाह दी थी कि कल्याण में कभी बाहर का विज्ञापन या पुस्तक समीक्षा मत छापना। ‘कल्याण’ पत्रिका आज तक गांधी जी के इस परामर्श का अनुसरण करती आ रही है।
गीता प्रेस किसी से कोई दान भी नहीं लेती है। कल्याण में गांधी जी के अलावा लाल बहादुर शास्त्री, पं. मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि भी लिखते थे। गोयन्दका जी और पोद्दार जी की निस्वार्थ सेवा का ही परिणाम है कि गीता प्रेस विश्व की एक अग्रणी प्रकाशन संस्था बन चुकी है। यहां छपीं लगभग पचास हजार पुस्तकें बाजार में उपलब्ध रहती हैं। नि:संदेह गीता प्रेस आध्यात्मिक भारत की रीढ़ बन गई है।
भाईजी की विनम्रता
भाईजी को जब ज्वर या जुकाम होता था तो वैद्य और डॉक्टर उन्हें देखने स्वयं आ जाते थे। भाईजी सबकी बात प्रेम से सुनते और वे जो औषधि देते, उसे ले लिया करते थे। एक दिन मैंने देखा, उनके तकिये के नीचे बहुत-सी दवाइयां पड़ी हैं। मैंने पूछा, यह सब क्या है, भाईजी! भाईजी बोले- ‘‘मैं किस-किसकी सलाह मानूं। किस-किस से वाद-विवाद करूं और किस दवा को मना करूं। उनका आदर करने के लिए दवा ले लेता हूं, किन्तु उनका सेवन नहीं करता हूं।’’ मुझे स्मरण है कि भाईजी ‘लक्ष्मी-विलास’ और ‘संजीवनी’ नाम की आयुर्वेदिक औषधि समय-समय पर लेते थे और आवश्यकता पड़ने पर मुझे भी दिया करते थे। उनकी मीठी-मीठी बातें कई बार रोग को भगा देती थीं।
एक बार की बात है, रतनगढ़ (राजस्थान) की हवेली में हम लोग (‘कल्याण’ परिवार के सदस्य) बैठे हुए थे। एकाएक भाईजी आ गए। गोस्वामी जी, माधव जी, देवधर जी आदि हम सभी उठकर खड़े हो गए। भाईजी बोले- ‘‘मनुष्य ही तो आ रहा है, कोई भूकम्प तो नहीं आ रहा है। कभी अपने से बड़ा कोई आ जाए, तो उसको देखकर खड़ा होना चाहिए; परन्तु घर के सदस्यों के साथ इतना अधिक शिष्टाचार करने की आवश्यकता नहीं।’’
ब्रिटिश सरकार ने राजद्रोह के अपराध में भाईजी को लंबी कैद की सजा दी थी। उन्हें बिहार की चक्रधरपुर जेल में रखा गया था। वह सजा भाईजी के जीवन में ईश्वरीय अनुग्रह सिद्ध हुई। वर्षों तक यहीं रहना होगा, ऐसा सोचकर वे एकाग्र चित्त से भगवान के भजन में संलग्न हो गए। एक-डेढ़ वर्ष के भीतर ही उन्हें दिव्य अनुभव होने लगे और आजीवन कैद की जगह वे 19 महीने में ही जेल से मुक्त हो गए।
गीता प्रेस पर वामपंथी और छद्म सेकुलर हमले करते रहते हैं। इसके बारे में तरह-तरह के झूठ फैलाते हैं। कारण, ‘कल्याण’ ने पाकिस्तान बनने का विरोध किया था। गीता प्रेस ने नोआखाली में 1946 में हुए हिंदू नरसंहार पर ‘कल्याण’ के मालवीय-अंक में महात्मा गांधी के विचार छापे थे, जिसका शीर्षक था- ‘बहादुर बनो।’ इसके बाद सरकार ने इस अंक पर प्रतिबंध लगा दिया था। वामपंथी और छद्म सेकुलर इतिहासकार और राजनीतिज्ञ इस नरसंहार को हिंदू-मुस्लिम दंगा कहते हैं। इसमें हजारों हिंदू मारे गए थे, उनका जबरन कन्वर्जन कराया गया था और सैकड़ों हिंदू महिलाओं से बलात्कार किया गया था।
वामपंथियों और छद्म सेकुलरों की नाराजगी का दूसरा कारण पत्रिका द्वारा देश में गोहत्या बंद करने की मांग है। ‘कल्याण’ ने हिंदू कोड बिल का भी विरोध किया था। उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि गीता प्रेस कम कीमत पर हिंदू धर्मग्रंथ उपलब्ध कराती है। वामपंथियों और कथित सेकुलरों को यह डर है कि गीता प्रेस का साहित्य कहीं हिंदू पुनरुत्थान का कारण न बन जाए।
कल्याण और गांधी जी
गीता प्रेस के साथ गांधी जी के निकट के संबंध थे। उनकी भगवान राम में पूरी आस्था थी। वह गोहत्या और कन्वर्जन को अपराध मानते थे। लेकिन वामपंथी और कथित सेकुलर बहुत सफाई से इन तथ्यों पर परदा डाल कर गांधी जी के विचारों की हत्या करते रहे। 18 मार्च, 1932 को यरवदा जेल से ‘कल्याण’ के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार को भेजे गए एक पत्र में महत्मा गांधी ने लिखा, ‘‘आपका पत्र मिल गया। मेरे जीवन में ऐसी कोई वस्तु का स्मरण मुझको नहीं है, जिसे मैं यह कह सकता हूं कि ईश्वर की सत्ता और दया में मेरा दिमाग जम गया। थोड़ा ही समय था, जब विश्वास खो बैठा था। या तो कहो मैं सशंक था। उसके बाद दिन-प्रतिदिन विश्वास बढ़ता ही गया है और बढ़ रहा है।’’ (जून 1948 के ‘कल्याण’ के अंक में प्रकाशित)
‘‘नाम की महिमा के बारे में तुलसीदास ने कुछ भी कहने को बाकी नहीं रखा है।’’ (महात्मा गांधी, ‘कल्याण’ का भगवन्नाम-अंक, 1927)
भजन संग्रह
आम तौर पर यह समझा जाता है कि गीता प्रेस केवल हिंदू लेखकों की कृतियां ही छापती है, जो सही नहीं है। गीता प्रेस की एक लोकप्रिय पुस्तक है ‘भजन संग्रह’। इसमें गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, रैदास, कबीरदास, स्वामी हरिदास, मलूकदास, नानक, मीराबाई आदि 66 विभूतियों द्वारा लिखे भजन शामिल हैं। इन 66 में से 33 मुस्लिम हैं। इस संग्रह में मुस्लिम कवि खालस का वह भजन भी है, जिसे पं. भीमसेन जोशी, अनूप जलोटा आदि जाने-माने गायक गा चुके हैं-
तूने नाम जपन क्यों छोड़ दिया?
क्रोध न छोड़ा, झूठ न छोड़ा,
सत्य वचन क्यों छोड़ दिया?
‘कल्याण’ के अधिकांश विशेषांकों में भी विभिन्न मजहब-मत-पंथ के लोगों ने लेख लिखे हैं और अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।
साधना-अंक (1940) : इसमें आर्थर ई मैसी के दो तथा फादर वी एल्विन, अर्नेस्ट पी होग्विज, रामानंदजी उर्फ आर्थर यंग, श्रीमती जीन डेलेवर, जेटी संडरलैंड का एक-एक लेख है। 600 से अधिक पृष्ठों के इस अंक के शुरू के 6 पृष्ठों में वैदिक प्रार्थना, महिमा और स्तुति के साथ जैनियों, सिखों, पारसियों, ईसाइयों, मुसलमानों की प्रार्थनाएं छपी हैं।
गो-अंक (1945): इसमें एबर्थ के.एस. दाबू, फिरोज कवासजी डावर, डॉ. मुहम्मद हाफिज सैयद, डॉ. नौशीर एन दस्तूर, डॉ. निजामुद्दीन, शेख फखरुद्दीन शाह आदि के लेख हैं। इसमें कई ईसाइयों के संकलित अनमोल वचन भी हैं।
नारी-अंक (1948): इसमें 300 से अधिक महिलाओं के बारे में लिखा गया है, जिनमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी भी हैं। देवी मरियम, साध्वी रानी एलीजाबेथ, देवी जोन, वीरांगना एनिटा, नेपोलियन बोनापार्ट की माताजी, फ्लोरेन्स नाइटिंगेल, साध्वी एलीजाबेथ फ्राई, वीरबाला ग्रीजेल, हेलन केलर, डॉ. एनी बेसेंट और बेंजामिन फ्रेंकलिन, जॉर्ज वाशिंगटन, एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, लेनिन, चांग-काई-शेक की माताओं पर भी लेख हैं। 1948 में पहली बार जब यह अंक निकला, तब उसमें लगभग 800 पृष्ठ थे। उस समय इसकी 1,06,000 प्रतियां छपी थीं। तब से अब तक इसका 17 बार पुनर्मुद्रण हुआ और 1,65,000 प्रतियां छपी हैं।
आरोग्य-अंक (2001): इसमें डॉ. रफीक अहमद की ‘होमियोपैथी चिकित्सा-पद्धति द्वारा शारीरिक और मानसिक व्याधियों का निवारण’ और वैद्य बदरुद्दीन रणपुरी का ‘बाल रोगों की कुछ अनुभूत दवाइयां’ शीर्षक से लेख है।
जीवनचर्या-अंक (2010) : इसमें सैयद कासिम अली, साहित्यालंकार का लेख है- ‘इस्लाम धर्म में जीवनचर्या’, डॉ. ए.बी. शिवाजी का लेख है- ‘ईसाई धर्म में जीवनचर्या।’
दान महिमा-अंक (2011): इसमें डॉ. ए.बी. शिवाजी का ‘मसीही धर्म में दान का स्वरूप’, मो. सलीम खां फरीद का ‘इस्लाम में दान का विधान’ और सुश्री शबीना परवीन का लेख है- ‘इस्लाम में दान-जकात’।
सेवा-अंक (2015): इसमें ‘संत फ्रांसिस का आदर्श सेवा-भाव’, ‘संत सेरापियो की दीन दुखियों की सेवा’, ‘रानी एलीजाबेथ की दीन दुखियों और कुष्ठ रोगियों की सेवा’, ‘फादर दमियेन-कोढ़ियों का देवता’, ‘हागामुची की जनसेवा’, ‘डॉ. एनी बेसेंट की भारत-सेवा’, ‘एक जापानी सैनिक की अद्भुत देश सेवा’ शीर्षक से लेख हैं।
बोधकथा-अंक (2020): इसमें कुछ महापुरुषों के बोधपरक जीवन-प्रसंग छपे हैं। ‘अब्राहम लिंकन की सच्चाई’, ‘लिंकन की विनम्रता’, ‘ब्रिटिश पादरी ए.जी. एटकिंस’, ‘सेवाभावी महात्मा टॉलस्टॉय’, ‘जॉर्ज वाशिंगटन का त्याग’, ‘हेनरी जेम्स और आंसू’ आदि। इसमें विभिन्न संस्कृतियों की प्रेरक बोध कथाएं भी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- ‘थेरीगाथा की बौद्धभिक्षुणियां’, ‘पांच झेन-बोधकथाएं’, ‘कुछ सूफी-बोधकथाएं’, आदि।
भाईजी की वसीयत: अपनी वसीयत में भाईजी ने ‘कल्याण’ के 75 लेखकों का नाम लिखकर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। इनमें आठ मुस्लिम या ईसाई हैं। (भाईजी: पावन स्मरण, द्वितीय संस्करण, गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर, पृष्ठ 561)
ईसा मसीह का चित्र: भाईजी के कार्यालय के कमरे में ईसा मसीह का चित्र देखकर किसी ने पूछा, ‘‘यह चित्र आप क्यों लगाते हैं?’’ भाईजी ने कहा, ‘‘हमें ईसा अच्छे लगते हैं। हम मानते हैं कि उनका मत हमारे सनातन धर्म का एक अंश मात्र है। पर उनमें जो अच्छी बातें हैं, उन्हें मानने में हमें आपत्ति क्यों होनी चाहिए।’’ (श्रीभाईजी: एक अलौकिक विभूति, लेखक गंभीरचंद दुजारी, प्रकाशन वर्ष 2000, गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर, पृष्ठ 313)
गीता प्रेस गोरखपुर के लीला चित्र मंदिर में भी ईसा मसीह का एक चित्र लगा है। गैर-हिंदू लेखकों और विषयों को ‘कल्याण’ में क्यों छापा जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में गीता प्रेस के एक ट्रस्टी का कहना है, ‘‘गीता प्रेस के प्रकाशनों में दूसरे धर्म की कोई अच्छी बात होती है, तो उसे लिया जाता है। किसी धर्म का खंडन करना गीता प्रेस की परिपाटी में नहीं है। दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए थे-पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि, चंद्रमा, समुद्र आदि। उन्हें जिसकी जो बात अच्छी लगी, उसे ग्रहण कर लिया।’’ ‘कल्याण’ में पारसी धर्मगुरु मेहर बाबा के भी लेख छपे हैं।
कलकत्ता में हिंदू-मुस्लिम दंगे के समय नेता मोहल्लों में जा-जाकर लोगों को शांति रखने के लिए समझाया-बुझाया करते थे। मैं भी, भाईजी एवं ज्वाला प्रसाद कानोडिया के साथ इसी काम के लिए शहर में गया था। भाईजी के पास बहुत धन नहीं था। केवल गृहस्थाश्रम का निर्वाह ही होता था। जब मेरी माताजी को ज्ञात हुआ कि मैं संन्यासी हो गया हूं, तब वह भाईजी के पास गोरखपुर गईं। भाईजी ने उन्हें समझाया कि यदि मैं आग्रह करके उन्हें लौटाने का प्रयास करूंगा, तो उनके यशस्वी जीवन में बाधा पड़ेगी। लोग निंदा करने लगेंगे। यह सुनकर माताजी ने तुरन्त कह दिया- ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे उसकी बदनामी हो। मैं भी घर-बार छोड़ दूंगी। संन्यासिनी हो जाऊंगी, परन्तु उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे अपयश हो।’’ माताजी सन्तुष्ट होकर घर लौट आर्इं। भाईजी ने पुत्री के विवाह और पुत्र के पढ़ने की व्यवस्था पहले ही कर दी थी।
मेरे बाएं कान से पस बहा करता था। श्रीबिपिनचंद्र मिश्र, जो बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हुए, यथाशक्ति चिकित्सा करवाते रहे। इर्विन अस्पताल के डॉ. हंसराज ने भी बहुत प्रयास किया, परन्तु कोई सुधार नहीं हुआ। भाईजी ने अपना आदमी भेजकर मुझे गोरखपुर बुलाया। जहां मैं उनकी जांघ पर अपना सिर रख देता और वे अपने हाथ से कान में दवा डालते, फिर हंसते-हंसाते हुए कहते कि देखो, ‘‘मैं आपका कान पकड़ रहा हूं।’’ मैं कई महीने तक गोरखपुर में रहा।
(लेखक सेवानिवृत प्रोफेसर हैं)
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