राजनीति में शुचिता लाने के उद्देश्य से देश में एमपी-एमएलए अदालत का गठन हुआ था। इसके अलावा, एन.एन. वोहरा समिति इसीलिए बनी थी कि अपराधी, राजनेता और अधिकारी गठजोड़ का खुलासा किया जाए। समिति की 113 पृष्ठों की रिपोर्ट में 100 पृष्ठ महत्वपूर्ण थे। इसमें आईबी, सीबीआई के निदेशक और विभिन्न पुलिस महानिदेशक के अभिमत थे। लेकिन इस वृहद रिपोर्ट के मात्र 13 पृष्ठ ही सार्वजनिक किए गए। अपराधियों से कौन अधिकारी, कौन राजनेता लाभान्वित हुआ, इसका खुलासा नहीं किया गया। इस गठजोड़ ने जिस तरीके से देश को छलनी किया है, उतना अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।
राजनीति का अपराधीकरण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है, जिससे देश, प्रदेश और समाज दुखी और चिंतित है। यह चिंता स्वाभाविक भी है। एडीआर रिपोर्ट के अनुसार, बड़ी संख्या में हमारे जनप्रतिनिधियों के ऊपर गंभीर अपराधिक मामले लंबित है। लंबित होना एक बात है और इन्हीं का निस्तारण और राजनीति में शुचिता लाने के उद्देश्य से देश में एमपी-एमएलए अदालत का गठन हुआ था। इसके अलावा, एन.एन. वोहरा समिति इसीलिए बनी थी कि अपराधी, राजनेता और अधिकारी गठजोड़ का खुलासा किया जाए। समिति की 113 पृष्ठों की रिपोर्ट में 100 पृष्ठ महत्वपूर्ण थे। इसमें आईबी, सीबीआई के निदेशक और विभिन्न पुलिस महानिदेशक के अभिमत थे। लेकिन इस वृहद रिपोर्ट के मात्र 13 पृष्ठ ही सार्वजनिक किए गए। अपराधियों से कौन अधिकारी, कौन राजनेता लाभान्वित हुआ, इसका खुलासा नहीं किया गया। इस गठजोड़ ने जिस तरीके से देश को छलनी किया है, उतना अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।
राजनीति में अपराधीकरण की शुरुआत लगभग 1980 के आसपास हुई। उस समय नए-नए लोग राजनीति में आ रहे थे और उन्हें अपने वर्चस्व की लड़ाई के लिए अपराधियों की आवश्यकता पड़ी। आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि उनसे इन्हें धन-बल, बाहुबल, की जरूरत थी। इस तरह, एक तीर से तीन शिकार संभव हो गया। यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो अतीक अहमद, अशरफ अहमद, मुख्तार अंसारी और पता नहीं कितने नाम हैं। विकास दुबे, ददुआ ठोकिया मुठभेड़ में मारे गए। इनके लिए चुनाव में अपनी सीट से जीतना और तीन-चार सीटों से किसी को जिता देना बाएं हाथ का काम था। ऐसी ‘दुधारू गाय’ को न कहना कई नेताओं के लिए कदाचित संभव नहीं था। दुर्भाग्य इस बात का है कि ये निरंतर जीतते रहे और इसी के साथ इनका मनोबल, धन-बल, बाहुबल और साम्राज्य स्थापित होता गया।
यह सही है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में विजय मिश्रा, मुख्तार अंसारी एवं अन्य बाहुबलियों को न्यायालय से दंड मिला है। इसी तरह, बिहार में पूर्व पुलिस महानिदेशक के अथक प्रयास से शहाबुद्दीन को सजा हुई। यदि शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद के लिए सजा संभव थी, तो यह सभी अपराधियों के लिए संभव होना चाहिए था। लेकिन बाहुबलियों की बलिहारी कि 100 मामलों में से केवल एक में दोषी पाया गया। या तो विवेचना में ही मामला खत्म हो जाता था, या न्यायालय में। गवाहों की वही दुर्गति होती थी, जो उमेश पाल और राजू पाल की हुई। इन तमाम प्रकरणों को दृष्टिगत रखते हुए आज बिहार का उदाहरण लें, जिसमें एक बाहुबली आनंद मोहन को जेल से निकालने के लिए खासतौर से जेल मैन्युअल में संशोधन किया गया, जबकि खासतौर से लोकसेवक की हत्या करने वाले को पैरोल और समय से पूर्व रिहा ही नहीं किया जा सकता है। कानून में बदलाव कर यह संदेश दिया गया कि बाहुबलियों के लिए सात खून माफ है। तात्पर्य यह है कि जब बाहुबलियों का आलिंगन करने की इतनी बेकरारी है तो किससे कहा जाए और क्यों कहा जाए?
ऐसे और भी उदाहरण हैं, जब जेल से हत्यारों और बलात्कारियों को समय से पहले निकाला गया, क्योंकि उनसे राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि हो रही थी। अब इस प्रकरण में जीरो टॉलरेंस की आवश्यकता है। होना यह चाहिए था कि इन अपराधियों के भागने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते। लेकिन वास्तविकता यह है कि इनके भागने के रास्ते शासन-प्रशासन ने स्वयं खोले हैं। उन्होंने हर तरह से बाहुबलियों का महिमामंडन किया, जो बिल्कुल भी औचित्यपूर्ण नहीं है। यदि किसी प्रांतीय या केंद्रीय सेवक ने अपराध किया है, तो लोकसेवक नियम के अनुसार एक बार अपराध में नाम आने के बाद वे तब तक निलंबित रहेंगे, जब तक कि वे बेदाग साबित न हो जाएं। बाहुबलियों की क्षमा याचना जब तक राष्ट्रपति से अस्वीकार न हो जाए, तब तक वे जनता और देश की छाती पर मूंग दलते रहेंगे। इसलिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए। इससे पहले राजनीतिक दल यह प्रण करें कि वे बाहुबलियों को अपने दल की सदस्यता नहीं देंगे। यदि उनकी पार्टी में कोई अपराधी है, तो कम से कम उसे ही निष्कासित करें। उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट न दें। राजनीतिक दलों को अल्प अवधि के छोटे लाभ को छोड़कर राष्ट्रहित के बारे में सोचना चाहिए।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में विजय मिश्रा, मुख्तार अंसारी एवं अन्य बाहुबलियों को न्यायालय से दंड मिला है। इसी तरह, बिहार में पूर्व पुलिस महानिदेशक के अथक प्रयास से शहाबुद्दीन को सजा हुई। यदि शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद के लिए सजा संभव थी, तो यह सभी अपराधियों के लिए संभव होना चाहिए था। लेकिन बाहुबलियों की बलिहारी कि 100 मामलों में से केवल एक में दोषी पाया गया। या तो विवेचना में ही मामला खत्म हो जाता था, या न्यायालय में। गवाहों की वही दुर्गति होती थी, जो उमेश पाल और राजू पाल की हुई।
शहाबुद्दीन और उसके जैसे अपराधी, जिन्होंने राजनीतिक संरक्षण में जो अनाचार, व्यभिचार और दुराचार फैलाया, उसके खिलाफ शासन-प्रशासन कठोर कार्रवाई कर देश के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अपराधियों के खिलाफ उस तत्परता से कार्रवाई नहीं की गई, जिस प्रकार से होनी चाहिए थी। इसलिए दूसरे अपराधी भी आर्थिक और राजनीतिक विस्तार करते चले गए। जनता त्राहि-त्राहि करती रही। अंतत: शहाबुद्दीन को जब अदालत से सजा मिली, तब जनता ने राहत की सांस ली। लोग आज भी नहीं भूले हैं कि फूल बाबू के दो बेटों को किस बेरहमी से तेजाब से नहला कर उनकी हत्या की गई थी।
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में छुटभैये अपराधियों की अनदेखी की गई। बाद में वही अपराध के वटवृक्ष बन गए। उन्होंने जबरन दूसरों की संपत्ति पर कब्जा किया। भ्रष्ट राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने अपराधियों के उपकार के बदले उन्हें संरक्षण और टिकट देकर अलंकृत किया। लिहाजा, उनके साम्राज्य का विस्तार होता चला गया और जनता चीखती-कराहती रह गई। अतीक और अशरफ के गुनाहों की सूची इतनी लंबी है कि उसके ऊपर अलग से लेख लिखे जा सकते हैं। इन्होंने केवल प्रयागराज, लखनऊ और नोएडा में ही हिंसक वारदातों को अंजाम नहीं दिया, कहा तो यह भी जा रहा है कि इनके संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफिज सईद से भी थे। राष्टÑविरोधी तत्वों का आलिंगन न केवल गंभीर अपराध है, बल्कि अत्यंत आपत्तिजनक है। ऐसे राजनेताओं को तो राजनीति में छोड़ दीजिए, इनको जेल से बाहर भी नहीं होना चाहिए।
अतीक और अशरफ को साबरमती से लखनऊ लाया जा रहा था, तब ऐसे की कुछ नेता उसे बड़े सम्मानजनक तरीके से अतीक जी कह कर संबोधित कर रहे थे। उनके इस प्रेम के पीछे कारण स्पष्ट है-वोट बैंक। इस वोट बैंक की राजनीति के लिए किसी ने धमकी दी थी कि गूगल मैप और सैटेलाइट इमेज से सब पता चल जाएगा कि अतीक और अशरफ के साथ अत्याचार हुआ है कि नहीं। किसी ने कहा कि यदि इस तरह की कोई अनाधिकृत चेष्टा हुई तो सत्ता में आने पर वे उन अधिकारियों को देख लेंगे। यह माफिया प्रेम स्पष्ट करता है कि वे नाना प्रकार से उपकृत और लाभन्वित हुए हैं। इसीलिए अब उनके बचाव में फौलाद की तरह खड़ा होना उनका कर्तव्य है।
अब उत्तर प्रदेश में परिस्थितियां सुधरती दिखाई पड़ रही हैं। जन-जन में हर्ष, उल्लास और संतोष की लहर दौड़ रही है। आत्मविश्वास प्रस्फुटित हुआ है और जनता स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रही है। उत्तर प्रदेश का यही मॉडल पूरे देश में लागू करने की अपेक्षा है और इसकी मांग भी की जा रही है। लेकिन जिस तरीके से कर्नाटक और केरल में पीएफआई ने अपनी जड़ें जमाई उसके लिए कर्नाटक की पूर्ववर्ती और केरल सरकार को जनता माफ नहीं करेगी। केरल में तो आपराधिक तत्वों को राजनीतिक जामा पहनाया गया। राष्ट्र विरोधी तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई न करना एक अक्षम्य अपराध है।
मेरा मानना है कि ऐसे अपराधों को भी एनआईए जांच के दायरे में लेना चाहिए, ताकि भविष्य में वे कभी न पनप सकें। ये वही लोग हैं, जिनके मन में इशरत जहां के लिए प्रेम प्रस्फुटित होता है। जब अतीक और अशरफ को साबरमती से लखनऊ लाया जा रहा था, तब ऐसे की कुछ नेता उसे बड़े सम्मानजनक तरीके से अतीक जी कह कर संबोधित कर रहे थे। उनके इस प्रेम के पीछे कारण स्पष्ट है-वोट बैंक। इस वोट बैंक की राजनीति के लिए किसी ने धमकी दी थी कि गूगल मैप और सैटेलाइट इमेज से सब पता चल जाएगा कि अतीक और अशरफ के साथ अत्याचार हुआ है कि नहीं। किसी ने कहा कि यदि इस तरह की कोई अनाधिकृत चेष्टा हुई तो सत्ता में आने पर वे उन अधिकारियों को देख लेंगे। यह माफिया प्रेम स्पष्ट करता है कि वे नाना प्रकार से उपकृत और लाभन्वित हुए हैं। इसीलिए अब उनके बचाव में फौलाद की तरह खड़ा होना उनका कर्तव्य है।
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