‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी: लोक-तंत्र संवाद है : ‘मन की बात’
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‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी: लोक-तंत्र संवाद है : ‘मन की बात’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतिमाह अंतिम रविवार को ‘मन की बात’ कार्यक्रम करते हैं, जिसका रेडियो पर प्रसारण होता है। इसकी पहली कड़ी 3 अक्तूबर, 2014 को प्रसारित हुई थी। 30 अप्रैल, 2023 को इसकी 100वीं कड़ी प्रसारित हुई

by राज कुमार सिंह
May 1, 2023, 01:18 pm IST
in भारत
प्रधानमंत्री मोदी

प्रधानमंत्री मोदी

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लोकतंत्र का आधार जिस लोक यानी जन साधारण को माना गया है, उसकी नियति तब बदलती है, जब वह शासक और शासन की चिंताओं-प्राथमिकताओं के केंद्र में होता है।

क्रिकेट की तरह राजनीति में भी कीर्तिमानों की कमी नहीं। हार का कीर्तिमान, जीत का कीर्तिमान; फर्श से अर्श और अर्श से फर्श के सफर का कीर्तिमान, पर ऐसे कीर्तिमानों से सिर्फ राजनीतिक दलों और नेताओं की नियति बदलती है, जनता की नहीं। लोकतंत्र का आधार जिस लोक यानी जन साधारण को माना गया है, उसकी नियति तब बदलती है, जब वह शासक और शासन की चिंताओं-प्राथमिकताओं के केंद्र में होता है।

यह तभी हो पाता है, जब तंत्र का नहीं, बल्कि शासन-शीर्ष पर आसीन व्यक्ति यानी शासक का जन साधारण से नियमित संपर्क-संवाद हो। जाहिर है, यह आसान नहीं। भारत सरीखे विशाल देश में तो यह और भी मुश्किल है। लेकिन जहां चाह, वहां राह। 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक सत्ता-परिवर्तन में जिस संवाद कला ने सबसे अहम् भूमिका निभायी थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे ही देशवासियों से संपर्क-संवाद का माध्यम बनाने का अनूठा प्रयोग किया। और उसी लोकतंत्र संवाद ‘मन की बात’ का शतक वह कीर्तिमान है, जिसकी मिसाल देश तो छोड़िए, पूरी दुनिया में नहीं मिलती।

‘मन की बात’ से मोदी ने साबित कर दिया है। भारतीय सत्ता-राजनीति में ‘मौन दशक’ के बाद मुखर संवाद-संपर्क का यह दौर एक नए भारत का ही एक और नया प्रतिमान है। अगर सार्वजनिक जीवन में हर संभव स्तर पर सहज-सरल सीधे संपर्क-संवाद का यह सकारात्मक प्रयोग होने लगे तो देश-समाज की तस्वीर और तकदीर भी, बदलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। यह तो पूरी दुनिया मानती है कि संवादहीनता से समस्याएं बढ़ती हैं, जबकि संवाद से समाधान की राह निकलती है।

2004-14 तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह के कार्यकाल के बाद कांग्रेस के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना स्वाभाविक ही थी, लेकिन शासन व्यवस्था में व्याप्त जड़ता से उपजी देशव्यापी निराशा का निराकरण तभी संभव था, जब कोई जनता को विश्वास दिला पाता कि यह दशा-दिशा बदली भी जा सकती है। स्वयं को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किए जाने के बाद नरेंद्र मोदी ने निराशा के उस कोहरे को छांटने का बीड़ा उठाया और देशभर में घूमते हुए विभिन्न मंचों से देशवासियों से तमाम ज्वलंत मुद्दों पर सीधा संवाद किया। संचार क्रांति के दौर में उपलब्ध तमाम संचार माध्यमों की शक्ति और पहुंच का भी उन्होंने इस मुहिम में पूरा उपयोग किया। और परिणाम चौंकाने वाले आए।

तीन दशक लंबे अंतराल के बाद देशवासियों ने 2014 में किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत दिया। हमारे देश में दलीय लोकतंत्र है। इसलिए स्वाभाविक ही जनादेश भाजपा और उसके मित्र दलों को मिला, पर इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि मतदाताओं ने विश्वास नरेंद्र मोदी के वायदों और विकास के गुजरात मॉडल पर जताया था। मेरा मानना है कि सबसे भारी बोझ उम्मीदों का होता है; उन्हें पूरी करने का होता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से गुजरात का मुख्यमंत्री, और फिर प्रधानमंत्री पद का सफर तय करने वाले मोदी से बेहतर यह कौन जान सकता है कि उम्मीदें जगाने में तो वक्त लगता है, लेकिन उन्हें धराशायी होने में देर नहीं लगती। इसलिए उन्होंने राजनीतिक-शासकीय तंत्र के साथ-साथ जनता से नियमित सीधे संपर्क-संवाद के माध्यम के रूप में ‘मन की बात’ शुरू की। 26 मई, 2014 को मोदी प्रधानमंत्री बने और तीन अक्तूबर, 2014 को उन्होंने आकाशवाणी के माध्यम से पहली बार देशवासियों से मन की बात की। उस दिन विजयादशमी थी। अपने स्वभाव के अनुसार मोदी ने विजयादशमी पर्व का मर्म याद दिलाते हुए ही बात शुरू की और गांधी जयंती को शुरू हुए स्वच्छता अभियान से लेकर स्वामी विवेकानंद द्वारा कभी सुनायी गयी कहानी के माध्यम तक पूरे संबोधन में राष्ट्र निर्माण में हर नागरिक की भागीदारी का आह्वान किया।

हर किसी के मन में प्रश्न उठा होगा कि संचार क्रांति के इस युग में जब संवाद के नवीनतम माध्यम उपलब्ध हैं, रेडियो का चुनाव क्यों? आखिर मोदी नवीनतम संचार माध्यमों पर भी विश्वभर में लोकप्रियता में अग्रणी ही हैं। प्रधानमंत्री ने इस प्रश्न का उत्तर भी अपने पहले संवाद में दे दिया कि रेडियो दूरदराज गांव में गरीब के घर में भी उपलब्ध है। यानी ‘मन की बात’ का मंतव्य दूरदराज गांव के गरीब से भी सीधा-सहज संवाद करना है। ‘मन की बात’ से रेडियो की न सिर्फ लोकप्रियता बढ़ी है, बल्कि उस दौरान महंगे विज्ञापनों से आकाशवाणी की आय में भी उछाल आया है। प्रधानमंत्री ने देशवासियों को भी आमंत्रित किया कि वे विभिन्न समस्याओं-विषयों पर अपने अनुभव-सुझाव साझा करें, ताकि यह संवाद अधिक से अधिक सार्थक बन सके। स्पष्ट है कि यह एकतरफा संवाद नहीं है।

तब से अब तक मोदी की ‘मन की बात’ का सफर शतक पूरा कर चुका है। दूरदर्शन के चैनल भी इसे प्रसारित करते हैं। इस बीच शायद ही कोई ऐसा विषय होगा, जिसे उन्होंने न छुआ हो। दूरदराज के क्षेत्रों में भी कहीं कोई ऐसी पहल हो, जो शेष देश के लिए प्रेरक बन सकती हो, उसका जिक्र करना प्रधानमंत्री नहीं भूलते। कई बार तो ऐसे प्रेरक नागरिकों से वे ‘मन की बात’ में संवाद भी करते हैं, जिसका प्रभाव बहुत गहरा होता है और दूरगामी भी। हालांकि नरेंद्र मोदी स्वयं को ‘प्रधान सेवक’ कहना पसंद करते हैं, पर हैं तो प्रधानमंत्री ही और वह भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के। उनकी व्यस्तता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उसके बावजूद उन्होंने हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11 बजे रेडियो पर मन की बात का शतक पूरा कर लिया है।

लगभग दो वर्ष तक पूरी दुनिया कोरोना के आतंक के साये में रही, पर ‘मन की बात’ तब भी जारी रहा। यही नहीं, इस अज्ञात या अल्पज्ञात महामारी से भयाक्रांत देशवासियों का मनोबल बढ़ाने में भी मोदी ने ‘मन की बात’ का सकारात्मक उपयोग किया। इससे पता चलता है कि अगर इच्छाशक्ति मजबूत हो तो कोई भी काम असंभव नहीं होता। शायद ही विश्व के किसी और देश में किसी शासनाध्यक्ष द्वारा अपनी जनता से ऐसे नियमित सीधे संपर्क-संवाद की मिसाल मिले। राजनीति में संपर्क-संवाद कला का प्रभाव सभी जानते-मानते हैं। महात्मा गांधी इस संपर्क-संवाद के लिए पत्र लेखन का उपयोग करते थे। एक अनुमान के अनुसार उन्होंने एक लाख पत्र लिखे होंगे। गांधी जी ने एक दिन में अधिकतम 49 पत्र तक लिखे।

शासन कला में भी संपर्क-संवाद कला अत्यंत प्रभावी हो सकती है, इसे ‘मन की बात’ से मोदी ने साबित कर दिया है। भारतीय सत्ता-राजनीति में ‘मौन दशक’ के बाद मुखर संवाद-संपर्क का यह दौर एक नए भारत का ही एक और नया प्रतिमान है। अगर सार्वजनिक जीवन में हर संभव स्तर पर सहज-सरल सीधे संपर्क-संवाद का यह सकारात्मक प्रयोग होने लगे तो देश-समाज की तस्वीर और तकदीर भी, बदलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। यह तो पूरी दुनिया मानती है कि संवादहीनता से समस्याएं बढ़ती हैं, जबकि संवाद से समाधान की राह निकलती है।
लेखक- ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के संपादक रहे हैं

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