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#फेक न्यूज : झूठ की परतें और लापरवाह पत्रकारिता

मौजूदा दौर में जमीनी रिपोर्टिंग नदारद है। ‘ब्रेकिंग न्यूज सिंड्रोम’ ने काफी हद तक फेक न्यूज को बढ़ावा दिया है। पत्रकारिता के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को न्यूनतम प्रशिक्षण तय करना चाहिए

by के.जी. सुरेश
May 1, 2023, 05:33 pm IST
in भारत, विश्लेषण, सोशल मीडिया
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पहले चाहे देश हो या देश से बाहर, उसकी रिपोर्टिंग घटनास्थल से की जाती थी। आज जमीनी रिपोर्टिंग नदारद है। न तो पत्रकारिता संस्थान इस पर खर्च करना चाहता है और न पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करना चाहता है। वह शहर में हो, तो भी जाना नहीं चाहता। वह सोचता है कि जो चीज टेलीफोन पर मिल सकती है, उसके लिए बाहर क्यों जाना?

के.जी. सुरेश

न्यूज का कारण देखेंगे, तो पाएंगे कि इसके दो हिस्से हैं-मिस-इन्फॉर्मेशन और डिस-इन्फॉर्मेशन। मिस-इन्फॉर्मेशन यानी वह सूचना, जिसे कोई जान-बूझकर संप्रेषित नहीं करता, वह गलतफहमी की वजह से या पत्रकारिता की दृष्टि से कहें, तो वह होमवर्क नहीं करने की वजह से होती है। हमें पढ़ाया जाता रहा है कि चेक और क्रॉस चेक करना है। पहले की पत्रकारिता में यह सुनिश्चित किया जाता था कि चाहे समाचार थोड़ा विलंब से प्रसारित हो, लेकिन सूत्र के आधार पर ही हो और वह सूत्र विश्वसनीय हो। कही-सुनी कोई भी बात या अफवाह को समाचार नहीं बना सकते। उसे पुष्टि करने योग्य स्रोत से लेना होता था। यदि एक सूचना की पुष्टि होती है, तब वह टिपआफ या सूचना एक समाचार होती है।

समाचार तैयार करने की एक प्रक्रिया होती है, जिसके तहत पहले हम जांच, प्रति जांच, सत्यापित, प्रति सत्यापन करते हैं। फिर रिपोर्टर द्वारा लिखा गया वही समाचार संपादक या उपसंपादक के पास जाता है। तब वह फिर से सभी पहलुओं पर देखता है कि यह तथ्यों के आधार पर है या नहीं है। तथ्य से परे तो नहीं है। वह देखता है कि इसका स्रोत क्या है। इस तरह स्रोत बहुत महत्वपूर्ण होता है। आज स्रोत के आधार पर खबरें नहीं बनाई जा रही हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण बात होती है – । आज हम सब कंफर्ट जोन में बैठ गए हैं। अधिकांश पत्रकार या समाचार देने वाले अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर नहीं निकलना चाहते। पहले चाहे देश हो या देश से बाहर, उसकी रिपोर्टिंग घटनास्थल से की जाती थी। आज जमीनी रिपोर्टिंग नदारद है। न तो पत्रकारिता संस्थान इस पर खर्च करना चाहता है और न पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करना चाहता है। वह शहर में हो, तो भी जाना नहीं चाहता। वह सोचता है कि जो चीज टेलीफोन पर मिल सकती है, उसके लिए बाहर क्यों जाना?

पेट्रोल की भी बचत होगी, भीड़भाड़ से भी बचूंगा। इस कारण आज प्रेस विज्ञप्ति की पत्रकारिता हो गई है। हालत यह हो गई है कि शीर्षक बदलने का भी प्रयत्न नहीं किया जाता। जैसा आया, वैसा ही समाचार आगे बढ़ा दिया जाता है। इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें प्रेस विज्ञप्ति की सामग्री को एक बार पढ़ने का भी प्रयास नहीं किया गया। फेक न्यूज का यह भी एक कारण है। मैं इसके लिए फेक न्यूज नहीं, फेक कंटेंट शब्दावली का इस्तेमाल करूंगा। मेरा मानना है कि न्यूज एक प्रसंस्करित उत्पाद है। यदि न्यूज है तो वह फेक नहीं है और फेक है तो वह न्यूज नहीं है। इसे दुरुस्त करने की जरूरत है। यह दायित्व मीडिया घरानों का है कि वे पत्रकारों को जमीनी रिपोर्टिंग की स्वतंत्रता दें और उन पर इतना दबाव न बनाएं कि टीआरपी की होड़ में वे फर्जी खबरें प्रेषित करने पर मजबूर हों।

‘ब्रेकिंग न्यूज सिंड्रोम’ ने काफी हद तक फेक न्यूज को बढ़ावा दिया है। किसी भी कीमत पर ब्रेकिंग न्यूज चाहिए, इस चक्कर में इधर-उधर से सुनकर ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर तुरंत कुछ भी चला दिया जाता है। किसी जमाने में किसी बड़े नेता की हत्या या बड़ी नीति की घोषणा होने पर ब्रेकिंग न्यूज दी जाती थी। अब हर दो-चार खबर के बाद ब्रेकिंग न्यूज आने लगती है। इसने ब्रेकिंग न्यूज की पवित्रता और गंभीरता को समाप्त कर दिया है। अब तो चौबीसों घंटे ब्रेकिंग न्यूज चलती रहती है। यह मीडिया के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।

डिस-इन्फॉर्मेशन यानी वह सूचना जिसे किसी एजेंडे के तहत, किसी विचारधारा या किसी विरोध से प्रेरित होकर, साजिश के तहत लोगों को गुमराह करने, दंगे-फसाद करने, शांति भंग करने या राजनीतिक लाभ के लिए या जनमत को प्रभावित करने के लिए संप्रेषित किया जाए। इन्हीं सब बातों को लेकर हम अपने विश्वविद्यालय में नियमित कक्षाएं लेते हैं। जो इन क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, उन्हें अपने विश्वविद्यालय में बुलाते हैं। जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान का महानिदेशक था, तब पाञ्चजन्य के साथ मिलकर हमने एक अनूठा प्रयोग किया। हमने विद्यार्थियों को कुछ खबरें बांट दीं और उनसे खबरों की सत्यता व तथ्यता जांचने को कहा। इस रिपोर्ट को पाञ्चजन्य ने अपने एक अंक में विस्तार से प्रकाशित किया। ऐसे और प्रयोग करने की जरूरत है। समाचारपत्रों को भी चाहिए कि वह पाञ्चजन्य का अनुकरण करके पत्रकारिता संस्थानों के साथ मिलकर अगली पीढ़ी के मीडियाकर्मी तैयार करें।

इसमें एक और बड़ी चुनौती यह आई है कि कुछ वेबसाइट फैक्ट चेकिंग का दावा करती हैं, लेकिन वे फैक्ट चेकिंग के बजाय पक्षपातपूर्ण फैक्ट चेकिंग करती हैं। वे चयनित फैक्ट चेकिंग करती हैं और उसमें भी तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करती हैं, जो काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। कहने को तो वे गलत खबरों को बेनकाब करना चाहती हैं, लेकिन वास्तव में वे इसमें भेदभाव करती हैं या एक विचारधारा विशेष, दल विशेष या संगठन विशेष के लोगों को लक्षित करती हैं।

फेक न्यूज को बेनकाब करने के नाम पर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करती हैं। यानी फैक्ट चेकिंग भी एक एजेंडा हो गया है। मुझे फैक्ट चेकिंग शब्द युग्म पर भी आपत्ति है। फैक्ट चेकिंग यानी तथ्य को जांचना। यदि तथ्य है तो जांचने की क्या जरूरत है? इसका नाम फेक चेकिंग या इन्फो चेकिंग होना चाहिए। जो सूचना प्रसारित की गई है, वह सही है या नहीं। तथ्यों को जांचने की जरूरत ही नहीं है। तथ्यों को सामने लाना ज्यादा जरूरी है। इसमें पत्रकारिता विश्वविद्यालयों और मीडिया से संबंधित जितनी भी संस्थाएं हैं, उन्हें और काम करने की जरूरत है।

इस संदर्भ में एक व्यापक मीडिया साक्षरता मिशन के तहत मुहिम चलाने की आवश्यकता है। आज पूरा देश और समाज सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ है, जिसके माध्यम से बहुत सारे मिस-इन्फॉर्मेशन, डिस-इफॉर्मेशन प्रेषित किए जा रहे हैं। इसलिए फेक चेकिंग के बारे में पूरे समाज को मीडिया साक्षरता के तहत शिक्षित करने की आवश्यकता है। यदि हम मीडिया के विद्यार्थियों से ही शुरू करेंगे तो मैं समझता हूं कि एक बहुत बड़ा योगदान होगा। जिस तरह से हमने राष्ट्रीय साक्षरता अभियान शुरू किया था, उसी प्रकार राष्ट्रीय मीडिया साक्षरता अभियान की भी बहुत ज्यादा आवश्यकता है।

फैक्ट चेकिंग के नाम पर जो दुकानें खुली हैं, उनमें एक तरीके से चिह्नित समाचारों को लिया जाता है और एजेंडा के तहत उनको झूठ या फेक या छद्म करार दिया जाता है। मैं समझता हूं कि वह भी अनैतिक है। यह आवश्यक है कि जहां फेक चेकिंग की बात होती है, तो उसमें निष्पक्षता होनी चाहिए। पीआईबी जैसे संस्थान, मध्य प्रदेश पुलिस, उत्तर प्रदेश पुलिस सबने अपने हैंडल शुरू किए हैं, जहां से आप तथ्यों को पता कर सकते हैं। मुझे भरोसा है कि इसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देंगे, तब जाकर समाज में ऐसी सूचनाओं को प्रसारित करने के लिए आज जो सोशल मीडिया का दुरुपयोग हो रहा है, उस पर स्वाभाविक रूप से रोक लग जाएगी।

एक और चुनौती है-इन्फोडेमिक, जो कोरोना काल में आई। यह महामारी से भी खतरनाक है। आज सूचनाओं का ओवरडोज हो गया है। प्रिंट, टीवी, डिजिटल, सोशल मीडिया से इतनी सूचनाएं आ रही हैं कि पाठक, दर्शक, श्रोता तय नहीं कर पा रहे कि सही खबर कौन-सी है और फर्जी कौन-सी है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और डब्ल्यूएचओ जैसी संस्थाओं ने कहा कि कोरोना काल में ‘इन्फोडेमिक’ की वजह से काफी नुकसान हुआ। एक सूचना फैली कि फलां जगह से ट्रेन या बस खुलने वाली है और लोग घरों से निकल पड़े। वहां भीड़ एकत्र हो गई और वह जगह कोविड हॉट स्पॉट बन गई। गुमराह करने वाली कई खबरें प्रसारित हुई, जिसमेंं कोविड वैक्सीन के बारे में उल्टी-सीधी बातें फैलाई गईं, जिससे लोग वैक्सीन लगवाने से भागने लगे, जबकि इसमें कोई तथ्य नहीं था। इन विषयों पर भी चर्चा की आवश्यकता है।

मैं सोशल मीडिया पर नियंत्रण के पक्ष में नहीं हूं, परंतु नियमन होना चाहिए। कौन, कहां, क्या प्रेषित कर रहा है, इस पर कुछ नियम-कानून लागू होने चाहिए। नागरिक पत्रकारिता के नाम पर जो परोसा जा रहा है, वह बहुत ही हानिकारक है। नागरिक पत्रकारिता शब्द से भी मुझे परहेज है। आपने कभी नागरिक डॉक्टर, कभी नागरिक इंजीनियर, नागरिक वकील सुना है क्या? नहीं। जब नागरिक डॉक्टर, नागरिक इंजीनियर, नागरिक वकील नहीं बन सकता है, तब महत्वपूर्ण समाचार नागरिक कैसे दे सकते हैं? हम मानते हैं कि सूचना का अधिकार है, अभिव्यक्ति का अधिकार है, लेकिन उससे आप नागरिक संचारक बन सकते हैं, परंतु नागरिक पत्रकार नहीं। पत्रकारिता तो एक पेशा है, जिसमें प्रशिक्षण की आवश्यकता है। यदि नागरिक पत्रकार बन सकता है तो पत्रकारिता विश्वविद्यालय वगैरह बंद कर देने चाहिए। मैं समझता हूं कि पत्रकारिता के लिए प्रशिक्षण की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को न्यूनतम प्रशिक्षण तय करना चाहिए।

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य आए थे। उन्होंने कई पत्रकारों के साथ लगातार वातार्लाप किया, चर्चाएं कीं और सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पत्रकारों को किसी प्रकार के न्यूनतम प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इस बात के मद्देनजर हमने अपने विश्वविद्यालय में मोजो पत्रकारिता पाठ्यक्रम शुरू कर दिया है, क्योंकि आज ज्यादा से ज्यादा लोग सोशल मीडिया के नाम पर, नागरिक पत्रकारिता के नाम पर मोबाइल से पत्रकारिता कर रहे हैं। यह पाठ्यक्रम हमने सांध्य कार्यक्रम में शुरू किया है। जो पत्रकार अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं, वे एक साल के लिए मात्र दो घंटे सप्ताह में चार या पांच दिन आएं और पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को समझें। उसमें तथ्यों को जांचना, सत्यता, वस्तुनिष्ठता, संविधान, भारत के कानून, अवमानना के कानून, नियम, अश्लीलता इत्यादि से संबंधित बातें सीखें। इसके लिए उन्हें हम एक प्रमाणपत्र देंगे। मुझे विश्वास है कि आगे चलकर इसका दूरगामी परिणाम होगा।

पत्रकारिता के मूल सिद्धांत, पत्रकारिता के विद्यार्थियों की प्रकृति में समा जाएं, इसके लिए हम उद्योग के लोगों को लाते हैं। सिद्धांत अलग चीज है और प्रायोगिकता अलग। हमारे विश्वविद्यालय में इस समय तीन एडजंक्ट प्रोफेसर हैं। ये तीनों संपादक के तौर पर काम कर चुके हैं। इसका एक उद्देश्य यह है कि उद्योग में क्या होता है, वे इसका व्यावहारिक प्रशिक्षण विद्यार्थियों को दें। इसके लिए वे विद्यार्थियों को लेकर प्रेस सम्मेलनों में जाते हैं। फिर वे विश्वविद्यालय के समाचार-पत्र को प्रकाशित करते हैं। इसके जरिए हम फेक न्यूज को सत्यापित करना इत्यादि प्रशिक्षण विद्यार्थियों को देते हैं और तथ्यों के आधार पर समाचारपत्र निकालते हैं।

फेक न्यूज से कहीं न कहीं हम सभी गुमराह हो जाते हैं। लेकिन जब हमारा प्रशिक्षण हो चुका है तो यही प्रशिक्षण हमें मदद देगा जिससे कि हम क्षणिक कमजोरी से उबर कर बाहर आ सकें। जैसे कोई वीडियो है तो उसे रिवर्स में जांचना, वेबसाइट के बारे में पता करना, महत्वपूर्ण समाचार है तो दूसरे बड़े वेबसाइट या अखबार या मीडिया में जांचना कि सिर्फ एक अनजान जगह खबर क्यों आई? कोई चित्र है तो उसकी पृष्ठभूमि क्या है? हम इन चीजों को बहुत बारीकी से देखने का प्रयास करते हैं। इन सब चीजों को प्रशिक्षण में समाहित करने की आवश्यकता है। हमारी शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति आदि से संबंधित फर्जी खबरें फैलाई जा रही हैं। इसके लिए जागरूक होना बहुत आवश्यक है। मेरा मानना है कि जिस तरह सशक्त लोकतंत्र के लिए जागरूक मतदाता का होना आवश्यक है, उसी तरह सशक्त मीडिया के लिए जागरूक पाठक, जागरूक दर्शक और जागरूक श्रोता की भी आवश्यकता है।
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक हैं)

 

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