बीते सवा चार साल से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच ठनी हुई है। कांग्रेस के कई नेता दोनों के बीच सुलह कराने के प्रयास कर चुके हैं, लेकिन किसी को सफलता नहीं मिली है। इस मामले में पार्टी नेतृत्व भी फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है।
राजस्थान विधानसभा के चुनाव में आठ माह से भी कम समय बचा है। राजनीतिक दल चुनावी मूड में आ गए हैं। बड़े नेताओं की सभाओं का दौर भी शुरू हो चुका है। लेकिन राज्य की सत्ताधारी कांग्रेस अंतर्कलह से जूझ रही है। बीते सवा चार साल से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच ठनी हुई है। कांग्रेस के कई नेता दोनों के बीच सुलह कराने के प्रयास कर चुके हैं, लेकिन किसी को सफलता नहीं मिली है। इस मामले में पार्टी नेतृत्व भी फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है।
ऐसे शुरू हुई कलह
प्रदेश कांग्रेस में कलह की शुरुआत 2018 में पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही हो गई थी। प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए सचिन पायलट ने पार्टी को सत्ता में लाने के लिए रात-दिन एक किया। आंदोलन किए। पुलिस की लाठियां खार्इं, तब जाकर कांग्रेस सत्ता में आई। पायलट को उम्मीद थी कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुख्यमंत्री बनने की बारी आई तो बाजी अशोक गहलोत मार गए। पायलट को उपमुख्यमंत्री पद पर संतोष करना पड़ा। भले ही वे उपमुख्यमंत्री थे, लेकिन सरकार में उनकी हैसियत एक मंत्री से भी कम थी।
‘पायलट और गहलोत के बीच चल रहे तनाव का सीधा नुकसान कांग्रेस और राज्य की जनता को हो रहा है। सरकारी मशीनरी ठीक से काम नहीं कर रही है। अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री का ध्यान कानून व्यवस्था को दुरस्त करने की बजाय सरकार का बचाने में लगा रहता है। प्रदेश में यह पहला मौका है, जब सरकार बाड़ेबंदी के दौर से गुजरी और पांच सितारा होटलों से संचालित हुई है।’’
– डॉ. धर्मवीर चंदेल, वरिष्ठ पत्रकार
अशोक गहलोत से मतभेदों के कारण 14 जुलाई, 2020 को उन्हें उपमुख्यमंत्री एवं प्रदेश अध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया। उनके साथ उनके खेमे के दो मंत्रियों विश्वेंद्र सिंह और रमेश मीणा को भी मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। मान-मनौव्वल के बाद बवाल शांत हुआ, तो दोनों मंत्रियों को फिर से मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। उस समय पायलट पर भाजपा के साथ मिलकर गहलोत सरकार को गिराने और विधायकों की बाड़बंदी करने के आरोप लगे थे। तनातनी के दौरान ऐसे कई अवसर आए जब गहलोत आपे से बाहर हो गए और भाषा की मर्यादाएं तोड़ते हुए पायलट के विरुद्ध बयानबाजी की। लेकिन सचिन पायलट ने कभी हल्के और अमर्यादित शब्दों का प्रयोग अपने विरोधियों के लिए नहीं किया।
गहलोत बनाम पायलट प्रकरण पर राजनीतिक विश्लेषक दिनेश गोरसिया कहते हैं, ‘‘कांग्रेस के अंतर्द्वंद्व का लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा इसे अपने पक्ष में भुना भी रही है। पायलट के प्रति नरम रुख गुर्जर समुदाय को भाजपा की ओर खींचने का बड़ा दांव है।’’ राजस्थान की सियासत में जातिगत समीकरण की बड़ी भूमिका रहती है। राज्य के 12 जिलों में गुर्जर समाज का प्रभाव है। भरतपुर, धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, जयपुर, टोंक, दौसा, कोटा, भीलवाड़ा, बूंदी, अजमेर और झुंझुनू जिलों को गुर्जर बहुल क्षेत्र माना जाता है।
2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने गुर्जर समुदाय के नौ और कांग्रेस ने 12 उम्मीदवारों को टिकट दिया था। कांग्रेस के सात प्रत्याशी जीत कर विधानसभा में पहुंचे, लेकिन भाजपा का एक भी गुर्जर प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका था। कांग्रेस को गुर्जर प्रभाव वाले क्षेत्रों में ही सबसे अधिक सीटें मिली थीं। जाहिर है सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के लिए गुर्जरों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया था। लेकिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से गुर्जर समुदाय कांग्रेस से नाराज है।
पायलट का अनशन
पूर्ववर्ती सरकार में हुए कथित घोटालों की जांच नहीं होने से नाराज सचिन पायलट ने 11 अप्रैल को अपनी ही पार्टी की सरकार के विरुद्ध एक दिवसीय अनशन किया। उनके द्वारा उठाए गए भ्रष्टाचार के मुद्दों को गहलोत के कई मंत्रियों और विधायकों का भी समर्थन मिला। महत्वपूर्ण बात यह है कि अनशन स्थल पर जो पोस्टर लगे हुए थे, उनमें न तो राहुल-सोनिया का फोटो था और न ही कांग्रेस का चिह्न। केवल महात्मा गांधी की फोटो लगाई गई थी। प्रदेश कांग्रेस प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा ने पायलट के इस कदम को पार्टी विरोधी बताया था। पार्टी के कई नेताओं ने पायलट के विरुद्ध कार्रवाई की मांग की थी, लेकिन अगले ही दिन उनके सुर बदले हुए थे। लेकिन तो भी, पार्टी ने पायलट को स्टार प्रचारकों की सूची से बाहर कर दिया है।
अनशन के करीब एक सप्ताह बाद पायलट शाहपुरा और खेतड़ी के दौरे पर रहे। इस दौरान उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अनशन करके किसी का विरोध नहीं किया। किसी पर आरोप नहीं लगाए। भ्रष्टाचार की जांच होनी चाहिए, मैंने इस बात पर अनशन किया था। राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने के लिए हमने गांव-गांव जाकर जनता को पार्टी की विचारधारा से जोड़ा और सत्ता में वापसी की। सरकार बनने से पहले जनता से कई वादे किए गए थे, लेकिन वे वादे पूरे नहीं हुए। अब चुनाव सिर पर है। किस मुंह से मैदान में जाकर पार्टी के लिए वोट मांगेंगे? सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया। यह सरकार की मंशा पर सवालिया निशान खड़े करता है।’’
नुकसान तय है!
पायलट के अनशन पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा। उन्होंने कहा कि उनका पूरा ध्यान 2030 तक राजस्थान को देश का नंबर वन राज्य बनाने पर है। इसके सिवाय उनका ध्यान दाएं-बाएं कहीं नहीं जाता है। शिक्षा और स्वास्थ्य उनकी प्राथमिकता है। वहीं, पायलट के अनशन और इसके बाद कांग्रेस मंत्रियों-विधायकों के बयान पर कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा गोल-मोल शब्दों में कहते हैं, ‘‘मैं हर बात को देख रहा हूं। जो कांग्रेस के लिए समस्या पैदा कर रहे हैं, उनको भी देख रहा हूं। जो कांग्रेस के लिए बिना किसी पद के लालच के काम कर रहे हैं, उनको भी देख रहा हूं। वर्कर साथ हैं। लीडर जो करते हैं, करते रहें। मैं तो कांग्रेस को आगे लेकर जाने की बात कर रहा हूं।’’
कांग्रेस की अंतर्कलह पर वरिष्ठ पत्रकार डॉ. धर्मवीर चंदेल कहते हैं, ‘‘पायलट और गहलोत के बीच चल रहे तनाव का सीधा नुकसान कांग्रेस और राज्य की जनता को हो रहा है। सरकारी मशीनरी ठीक से काम नहीं कर रही है। अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री का ध्यान कानून व्यवस्था को दुरस्त करने की बजाय सरकार का बचाने में लगा रहता है। प्रदेश में यह पहला मौका है, जब सरकार बाड़ेबंदी के दौर से गुजरी और पांच सितारा होटलों से संचालित हुई है।’’
कांग्रेस की कलह कब समाप्त होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन मुख्यमंत्री और पूर्व उपमुख्यमंत्री के बीच रस्साकशी से प्रदेश की कानून व्यवस्था जरूर बेपटरी हो रही है।
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