उत्तराखंड की पवित्र, पावन भूमि एक ओर जहां धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थली रही है। वहीं, यह वीरभूमि अन्यानेक वीर एवं वीरांगनाओं की जन्म स्थली भी रही है। ऐसे बहादुरों की वीरता से परिपूर्ण इतिहास हमारे लिए बेहद गर्व का विषय है। इनके अदम्य साहस, शौर्य एवं वीरता ने सम्पूर्ण विश्व में उत्तराखण्ड का नाम गर्व से ऊंचा किया है। अदम्य वीरता, साहस और शौर्य परम्परा की इस ऐतिहासिक कड़ी में एक नाम रतन सिंह भंडारी है।
रतन सिंह भंडारी का जन्म 22 अप्रैल 1922 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले स्थित ग्राम कुरी में हुआ था। उनके पिता का नाम ज्ञानसिंह भंडारी था। रतन सिंह 27 अप्रैल सन 1940 को लैंसडाउन में एक सिपाही के रूप में भारतीय सेना की गढ़वाल रेजिमेंट में शामिल हुए थे। उन्हें 18 अक्टूबर सन 1940 को उनकी पहली पोस्टिंग के रूप में मुम्बई भेजा गया था। उस समय उन्हें आजाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए सम्पर्क किया गया था जिस पर उन्होंने तुरंत सकारात्मक जवाब दिया था। उन्होंने अपनी मातृभूमि की सेवा करने का फैसला किया और आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए थे।
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रतन सिंह को बेहद अनुशासित फौजी होने के कारण 13 नवंबर सन 1940 को अपनी ड्यूटी करने के लिए सिंगापुर भेजा गया था। उन्होंने बेहद बहादुरी और वीरता से सिंगापुर, मलेशिया और जापान में युद्ध लड़े थे। अंततः युद्ध क्षेत्र में उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। अंग्रेजों की जेल से रिहा होने के बाद वह 11 मार्च सन 1946 को भारत लौट आए थे। रतन सिंह भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम के एक बहादुर सेनानी थे और उन्होंने वर्षों तक अंग्रेजों के खिलाफ आजाद हिन्द फौज की सेवा की थी।
रतन सिंह भंडारी को 15 अगस्त सन 1972 में राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए उनके योगदान के लिए तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक ताम्रपत्र भेंट कर सम्मानित किया गया था। उत्तराखंड के तत्कालिक मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवनचंद्र खंडूड़ी ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम सन 1857 की 150वीं वर्षगांठ के गौरवशाली समारोह अवसर पर उन्हें सम्मानित किया था। 22 अगस्त सन 2009 को भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम के इस महान योद्धा का निधन हो गया था।
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