भारत तभी समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो सकता है, जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो। और समर्थ, समृद्ध व स्वाभिमानी भारत ही विश्व शांति के लिए गारंटी है, यह हमारा विश्वास है।
देशभर से सेवा संगम में आए सेवाभावी कार्यकर्ता साधक हैं। भले ही हम सब छोटी इकाई पर कार्य कर रहे हैं, लेकिन हमारा विचार वैश्विक होना चाहिए। भारत तभी समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो सकता है, जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो। और समर्थ, समृद्ध व स्वाभिमानी भारत ही विश्व शांति के लिए गारंटी है, यह हमारा विश्वास है।
कुष्ठ रोगियों की बात हो या फिर वेश्यावृत्ति के लिए विवश महिलाओं के बच्चों के जीवन की, हमें समाज के रूप में इस हिस्से को सशक्त करने की भी चिंता करनी होगी। समाज के उस हिस्से को संबल देने की आवश्यकता है, जो हाशिए पर माना जाता है। इस सबके लिए सरकार के भरोसे बैठना उचित नहीं है। हाशिए पर माने जाने वाले समाज के इस हिस्से के प्रति सोच को बदलने व उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सामूहिक सामाजिक प्रयास करने होंगे।
‘देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें’ की भावना जाग्रत करते हुए हमें सेवित को भी इतना सशक्त करना होगा कि वह भी सेवा करने योग्य हो जाए।
यह सेवा संगम पुण्य स्थल है। जिस प्रकार संगम में डुबकी लगाने से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस सेवा संगम में आने पर हमें पुण्य प्राप्त हुआ है। ऐसे संगम ऊर्जा में वृद्धि करते हैं और नया सीखने का भी अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही, यदि कुछ विफलताओं को लेकर मन कमजोर होता है, तब उसमें भी ऐसे संगम सकारात्मक ऊर्जा भरते हैं। देखिए, किसी भी कार्य के परिणाम के परिमाण में ईश्वर कृपा का भी महत्व होता है, हमें हमारे प्रयासों में किसी तरह की कमी नहीं रखनी चाहिए। श्रीमद्भगवद् गीता का श्लोक है-
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।
हम सबमें सेवा का गुण स्वाभाविक है। सम्पूर्ण भारतभूमि सेवारूपी एक ट्रस्ट है और हम सभी उसके ट्रस्टी। यह हमारा व्यावहारिक अध्यात्म है। इसकी अनुभूति के लिए सेवा में सच्चा मन रखना होगा। एक बात और, सेवा साधकों को अपने कार्य की समीक्षा निरंतर करते रहनी चाहिए।
इसका अर्थ है कि सेवा कार्य का सबसे पहला चरण सेवा के विचार का अधिष्ठान है। दूसरा चरण, उस कार्य के करने के लिए साधनों का है। तीसरा चरण कार्य को मूर्तरूप देने का है। इसके बाद चौथा चरण ईश्वरीय कृपा का है। जिस तरह किसान खेत जोतता है, बुआई करता है, लेकिन अंत में फसल के अनुकूल बारिश, सर्दी, गर्मी ईश्वर प्रदान करता है।
हमें सेवा का कार्य ईश्वरीय कार्य समझकर करना है। स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि अज्ञानी और अशिक्षित लोगों की पीड़ा को नहीं सुनने वाले द्रोही होते हैं। इसलिए मैं उस ईश्वर की आराधना करता हूं, जिसे मूर्ख लोग मनुष्य कहते हैं। इसलिए सेवा करते समय हमें सिर्फ मनुष्य में परमात्मा का अंश देखना है और उसकी सेवा करनी है।
हम सबमें सेवा का गुण स्वाभाविक है। सम्पूर्ण भारतभूमि सेवारूपी एक ट्रस्ट है और हम सभी उसके ट्रस्टी। यह हमारा व्यावहारिक अध्यात्म है। इसकी अनुभूति के लिए सेवा में सच्चा मन रखना होगा। एक बात और, सेवा साधकों को अपने कार्य की समीक्षा निरंतर करते रहनी चाहिए।
टिप्पणियाँ