विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना (बीआरआई) ने अभी तक अनेक देशों को अपने शिंकजे में कस लिया है। इस महत्वाकांक्षी परियोजना के बारे में लंबे—चौड़े सपनों के झांसे में आए देशों में से एक है इंडोनेशिया। आज उसी इंडोनेशिया को बीआरआई की हिस्सेदारी की भारी कीमत चुकाने को मजबूर होना पड़ रहा है।
इंडोनेशिया के जावा प्रांत में तेज रफ्तार रेलवे परियोजना पर इसी बीआरआई के अंतर्गत काम चल रहा है। इसी परियोजना की पूर्ति के लिए चीन को दी गईं रियायतों की कालसीमा 80 साल और बढ़ाने का इंडोनेशिया पर जबरदस्त दबाव डाला जा रहा है।
प्राप्त समाचारों के अनुसार, ड्रैगन ने इंडोनेशिया की सरकार पर ऐसा दबाव बनाया हुआ है कि अगर उसने उसकी पसंद के हिसाब से तमाम तरह की छूटों के लिए और 80 साल का समय नहीं बढ़ाया तो इस रेल परियोजना पर 22वीं सदी के शुरू तक चीन का प्रभाव ही बना रहेगा। इस परियोजना पर करेटा केपैट इंडोनेशिया चाइना नामक कंपनी काम कर रही है। दिलचस्प बात है कि इस कंपनी में चीन के पास 40 प्रतिशत हिस्सा है।
एक अध्ययन हुआ था, जिसमें विश्व बैंक, हार्वर्ड केनेडी स्कूल, एडडेटा तथा किएल इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकॉनोमी के विशेषज्ञों ने भाग लिया था। इसके अनुसार, 2008 से लेकर 2021 तक चीन बेलआउट के तौर पर 22 देशों को कर्जा दे चुका था और इसमें 240 अरब डॉलर खर्च कर चुका था। इधर के सालों में उसका ये कर्जा देना कुछ ज्यादा ही हो गया है।
बात 2015 की है जब इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने इस परियोजना का सारा काम चीनी कंपनी को सौंपने का फैसला किया गया था। उस वक्त यही तय पाया गया था कि रेल की पटरी बिछाने का काम 2018 तक पूरा हो जाएगा। इतना ही नहीं, 2019 के बाद इस पटरी पर तेज रफ्तार रेलगाड़ी दौड़ती दिखेगी। लेकिन असल में, अभी वह पटरी बिछ ही रही है। और तो और 2019 से जिस पटरी पर रेल दौड़ने वाली थी, उसके कुछ हिस्सों पर तो मानो काम ठीक से शुरू भी नहीं हुआ है।
इस संदर्भ में निक्कीएशिया.कॉम पोर्टल की रिपोर्ट बताती है कि पटरी बिछाने के काम में देरी होने की वजह से इस परियोजना की लागत ही 40 प्रतिशत बढ़ चुकी है। इस वजह से इंडोनेशिया सरकार करीब 47 करोड़ डॉलर का भुगतान अपने पल्ले से करने को मजबूर है। लेकिन अब इस पर देश में हर क्षेत्र में सवाल उठने शुरू चुके हैं। हैरानी की बात है कि 2015 में राष्ट्रपति विडोडो ने एक जापानी कंपनी का ठेके का प्रस्ताव ठुकराने के बाद, चीन की कंपनी को वरीयता पर रखा था। माना जा रहा है कि उन्होंने यह भी किसी ‘दबाव’ में किया था।
इस महत्वाकांक्षी बीआरआई परियोजना की घोषणा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2013 में की थी। इस परियोजना के जरिए चीन चाहता है कि उसके यहां बनी चीजें दुनियाभर तक सुगमता से पहुंचें और उसे मोटा मुनाफा हो। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह दूसरे देशों के कंधे इस्तेमाल कर रहा है। इसके माध्यम से विस्तारवादी कम्युनिस्ट ड्रैगन दुनिया में अपना दबदबा बढ़ाने को उतावला है। एक आकलन के अनुसार, अभी तक इस परियोजना से 150 से ज्यादा देश जुड़ चुके हैं। लेकिन अधिकांश देश अब चीन के रवैए को देखकर तिलमिला रहे हैं। बताया जाता है कि वर्ष 2020—2021 में बीआरआई से जुड़े करीब 40 करारों में कर्जे की शर्तों पर नए सिरे से वार्ताएं हुई थीं। अमेरिका के थिंक टैंक रोडियम समूह के अनुसार, उसके पहले के दो सालों के हिसाब से देखें तो शर्तों पर फिर से बातचीत करने का रवैया 70 प्रतिशत बढ़ा है।
एक अध्ययन हुआ था, जिसमें विश्व बैंक, हार्वर्ड केनेडी स्कूल, एडडेटा तथा किएल इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकॉनोमी के विशेषज्ञों ने भाग लिया था। इसके अनुसार, 2008 से लेकर 2021 तक चीन बेलआउट के तौर पर 22 देशों को कर्जा दे चुका था और इसमें 240 अरब डॉलर खर्च कर चुका था। इधर के सालों में उसका ये कर्जा देना कुछ ज्यादा ही हो गया है। ऐसा माना जाता है कि इसकी वजह है बीआरआई से जुड़े कर्जे चुकाने में देशों को मुश्किलें पेश आ रही हैं।
बीआरआई को नजदीक से देख रहे विशेषज्ञों को लगता है कि इस तरह की परेशानियां बहुत संभव है चीन और बीआरआई से जुड़े देशों के बीच टकराव को बढ़ा दे। इंडोनेशिया भी आज कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है। वहां भी अब इस परियोजना के संबंध में कसमसाहट उठनी शुरू हो चुकी है। श्रीलंका का क्या हाल हुआ है, उसे कोई कैसे भुला सकता है। वहां भी चीन की चालाक चाल ने अपना भयावह असर दिखाया था।
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