डॉक्टर हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के समय सोचा गया कि इन सेवा कार्यों को एक व्यवस्था के अंतर्गत ले आएं और उसी आधार पर कार्य को और विस्तार दें। तब से संघ के स्वयंसेवक इस कार्य में और तेजी से लग गए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वभावत: सेवा कार्य पहले से करते रहे हैं। संघ स्थापना के समय से ही डॉक्टर हेडगेवार के मूल सिद्धांत में सेवा के बीज हैं। जहां-जहां समाज सेवा की जरूरत है, वहां-वहां काम करना है। इसलिए जगह-जगह संघ के स्वयंसेवक अपनी-अपनी बुद्धि, शक्ति के अनुसार सेवा कार्य कर रहे हैं। डॉक्टर हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के समय सोचा गया कि इन सेवा कार्यों को एक व्यवस्था के अंतर्गत ले आएं और उसी आधार पर कार्य को और विस्तार दें। तब से संघ के स्वयंसेवक इस कार्य में और तेजी से लग गए।
सेवा की एक बड़ी सृष्टि संघ के स्वयंसेवकों ने खड़ी की है, लेकिन ऐसा नहीं है कि देश में सेवा करने वाले पहले संघ के स्वयंसेवक हैं। हमारे देश में सेवा का मंत्र तो पहले से दिया गया है। ‘सर्विस एक्टिविटी’ की बात आती है, तो सामान्यत: देश के प्रबुद्धजन मिशनरियों का नाम लेते हैं। दुनियाभर में मिशनरियों की अलग-अलग संस्थाएं चलती हैं। कुछ लोग सवाल करते हैं कि हिन्दू समाज के संत-संन्यासी क्या कर रहे हैं? ऐसा सोचकर एक बार चेन्नै में हिन्दू संतों और उनके द्वारा किए जा रहे सेवा कार्यों से जुड़े लोगों को आमंत्रित किया गया। इस दौरान यह उभरकर आया कि संघ की दृष्टि से दक्षिण के चार प्रांतों में केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के आचार्य, संन्यासी इत्यादि मिलकर जो सेवा करते हैं, वे मिशनरियों की सेवा से कई गुना ज्यादा हैं। लेकिन यहां बात स्पर्धा की नहीं है। उससे ज्यादा या उससे कम की भी बात नहीं कर रहा हूं। सेवा का पैमाना ऐसा हो भी नहीं सकता। सेवा, सेवा है। सेवा में कोई स्पर्धा की बात नहीं है।
सेवा से कोई काम नहीं निकालना है। सेवा मनुष्य के मनुष्यत्व की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। यहां तक कि पशु में भी संवेदना होती है। कई बार हम देखते हैं कि किसी घर का कोई व्यक्ति गुजर जाता है तो उस घर की गाय तीन दिन तक खाना नहीं खाती। उस घर का कुत्ता खाना-पीना छोड़ देता है। ऐसे प्रसंग अनेक लोगों को अनुभव में आते रहते हैं। संवेदना सबमें होती है, लेकिन संवेदना पर कृति करना, ये मनुष्य का गुण है। इसी को हम करुणा कहते हैं।
संवेदना के आधार पर कृति होनी चाहिए। अगर किसी का दुख मुझे दिख रहा है, उससे मैं दुखी होता हूं, तो अच्छी बात है। लेकिन केवल दुखी होने से काम नहीं चलता, उस दुख का इलाज करने का प्रयास करना होगा। यह करुणा है और इस करुणा को हमारे यहां धर्म के चार पहलुओं में एक स्थान दिया गया है। हम सब एक ही तत्व से अनुप्राणित हैं, फिर मैं अकेला सुखी हूं, बाकी दुखी हैं, ऐसा मुझसे देखा नहीं जाएगा, क्योंकि सेवा ही सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति है। इस भाव से सेवा होनी चाहिए। इस भाव से जब सेवा होती है, तब हमारे देश में वह समरसता का साधन होता है। संघ के स्वयंसेवक इसी कार्य में लगे
हुए हैं।
हमें जय-जय नहीं करनी है और न ही करवानी है। जो सबने मिलकर तय किया, उसको मानना और असहमत होते हुए भी कार्य सफल करना कार्यकर्ता का स्वभाव होना चाहिए। सेवा कार्य में जोश से ज्यादा होश की आवश्यकता रहती है।
हम सब समाज के अंग हैं। हम सबके मिलने से समाज बना है। एक नहीं है, तो हम अधूरे हो जाएंगे। सब एक-दूसरे के साथ हैं, तब हम पूर्ण होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से एक अलग तरह की परिस्थिति भी आई है। कारण क्या है? यह चिंतन-मंथन का विषय है। लेकिन हमको विषमता नहीं चाहिए। हम सब एक राष्ट्रपुरुष के अंग होने के नाते अपने-अपने स्थान पर काम करते रहेंगे। काम के अनुसार रूप-रंग निराला होता होगा। जैसे समस्त अंगों का होता है, लेकिन हम सब में एक ही प्राण है और यह पता चलते रहना चाहिए। अगर पैर में कुछ चुभ गया है तो तत्क्षण शरीर के सारे अंग उस पीड़ा को हरने के लिए अपने-अपने स्तर से जुट जाते हैं, उस समय अन्य कोई भी बात ध्यान में नहीं आती। तुरंत वहां पर हाथ चला जाता है और देखते हैं कि क्या हुआ।
सारा शरीर दुख को दूर करने लगता है। समाज को ऐसा ही होना चाहिए। समाज का एक अंग उपेक्षित है, दुबला है, उसको नीचे का स्थान है। यह कैसे हो सकता है? अगर किसी शरीर का एक अंग दुबला है, उसे पीछे रख दिया गया है, तो उस शरीर को स्वस्थ शरीर नहीं कह सकते। इसलिए अपने देश को अच्छा देश बनाना है। विश्व गुरु बनाना है। इसका मतलब वह सर्वांग परिपूर्ण होना चाहिए। उसका प्रत्येक अंग सामर्थ्य संपन्न होना चाहिए। समाज में इसकी अभी आवश्यकता है। यह सब इसलिए करना है, क्योंकि यह समाज मेरा अपना है। मेरे अंदर समाज का एक छोटा-सा स्वरूप है। और संपूर्ण समाज में मैं अपने आपको देखता हूं।
यह हमारा सत्य है। उस सत्य के आधार पर यह सेवा है। कार्य का बंटवारा कुछ अलग हो सकता है, लेकिन हम समान हैं। मेरा कार्य जितना महत्वपूर्ण और उच्चावस्था का है वैसे ही उसका भी काम उतना उच्च है। श्रम की प्रतिष्ठा सर्वत्र है। सेवा स्वस्थ समाज को बनाती है, लेकिन स्वस्थ समाज को बनाने के लिए पहले हमको स्वस्थ होना है। सेवा करते हैं तो लगता है कि हम कुछ कर रहे हैं। मैंने किया इसका विशेष आनंद रहता है, लेकिन थोड़ा सा अहंकार भी आ जाता है। लेकिन जब लगातार सेवा करते रहते हैं तो हमारा अहंकार चूर-चूर हो जाता है।
आज कुछ लोगों को मजबूरी में लेने वाला बनना पड़ रहा है, लेकिन कल वे देने वाले बनेंगे, ऐसी सेवा करनी है। ये सभी लोग अंदर से करुणा से भरे हैं। केवल संवेदना नहीं है। इसलिए जब संघ के स्वयंसेवक काम करने लगे, तो उनको यह भी ध्यान में आया कि अपने देश में हम ही अकेले सेवा करने वाले नहीं हैं। बहुत लोग, बहुत प्रकार से सेवा कर रहे हैं। सेवा जितनी गुप्त रहे उतना ही अच्छा है। हमारे स्वयंसेवक घुमंतू समाज के बीच भी सेवा कर रहे हैं।
हमें विश्व मंगल के लिए काम करना है। इसलिए काम करने वालों का बड़ा समूह खड़ा करना है। कार्य करने के लिए कार्यकर्ता में रुचि, ज्ञान और भान होना आवश्यक है। हमें जय-जय नहीं करनी है और न ही करवानी है। जो सबने मिलकर तय किया, उसको मानना और असहमत होते हुए भी कार्य सफल करना कार्यकर्ता का स्वभाव होना चाहिए। सेवा कार्य में जोश से ज्यादा होश की आवश्यकता रहती है।
कार्यकर्ता कार्य के स्वभाव के साथ तन्मय होता है, तब कार्य होता है। कार्य के अनुरूप कार्यकर्ता हो, ऐसी समझ हमें विकसित करनी है। सेवा कार्य मन की तड़पन से होते हैं। हमें विश्व मंगल के लिए काम करना है। इसलिए काम करने वालों का बड़ा समूह खड़ा करना है। कार्य करने के लिए कार्यकर्ता में रुचि, ज्ञान और भान होना आवश्यक है। हमें जय-जय नहीं करनी है और न ही करवानी है। जो सबने मिलकर तय किया, उसको मानना और असहमत होते हुए भी कार्य सफल करना कार्यकर्ता का स्वभाव होना चाहिए। सेवा कार्य में जोश से ज्यादा होश की आवश्यकता रहती है।
प्रसिद्धि से दूर रहकर सेवा कार्य करना है। सेवा करते हैं तो अपने आप प्रसिद्धि मिलती है, लेकिन उस ओर ध्यान नहीं देना है। सात्विक सेवा के पीछे अहंकार नहीं होता। कई बार छोटी-छोटी बातों से बड़ी बातें बनती हैं। सात्विक प्रकृति का हमारा कार्य है, इसलिए सात्विक कार्यकर्ता बनाने पड़ेंगे। सेवा में उग्रता नहीं, सौम्यता चाहिए। इसलिए 100 काम हो जाएं, तब एक बताने का हमारा स्वभाव होना चाहिए। भावों की निरंतर शुद्धि करते रहनी चाहिए।
हमें सेवा भाव से समाज के हर अंग को सबल और पूरे विश्व को कुटुंब बनाना है। ऐसा तभी संभव है, जब सेवा का कार्य समाजव्यापी अभियान बन जाए।
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