लाहौर के 1000 वर्ष के इतिहास में समाज की पहल पर ऐसे नागरिक अभिनंदन कभी नहीं हुए। अप्रैल 1758 में पेशवानीत हिन्दवी स्वराज के परिसंघ की लाहौर विजय के बाद 20 अप्रैल, 1758 को वहां की जनता द्वारा विजयी मराठा सेनापति रघुनाथ राव और मल्हार राव का अभूतपूर्व नागरिक अभिनंदन किया गया।
मराठों ने अहमद शाह अब्दाली को हरा कर सरहिन्द, लाहौर, मुल्तान, पेशावर और अटक पर भगवा ध्वज फहराया था। पेशवानीत स्वराज परिसंघ का भगवा ध्वज फहराने के 41 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह ने भी लाहौर में अपना ध्वज फहराया था। उनके युद्ध ध्वज के मध्य में अष्ट भुजाओं वाली मां दुर्गा तथा उनके आगे-पीछे क्रमश: हनुमान जी और लक्ष्मण जी की छवि अंकित थी। मराठों की लाहौर विजय के बाद 12 अप्रैल, 1801 को महाराजा रणजीत सिंह का भी ऐसा ही अभिषेक और नागरिक अभिनंदन किया गया था। महाराजा रणजीत सिंह ने 225 वर्ष पहले जुलाई 1799 में लाहौर विजय के बाद इसे अपनी राजधानी बनाया था। वैसे लाहौर का मूल नाम लवपुरी है, जिसे भगवान श्रीराम के पुत्र महाराज लव ने बसाया था।
अब्दाली ने पंजाब सहित दिल्ली में पांच बार हिंदुओं का नरसंहार किया था। रुहेलखंड और अवध के नवाब के साथ मिलकर उसने दुरभिसंधिपूर्वक इस्लामी ध्रुव बनाया था। तब स्वराज की रक्षा के लिए 1757 में पेशवानीत सैन्य बल 5,700 किलोमीटर दूर पूना से पेशावर गया और उत्तर भारत से अब्दाली को खदेड़ कर लाहौर, सरहिन्द, मुल्तान, अटक, पेशावर एवं सिंधु पार खैबर दर्रे तक स्वराज का भगवा ध्वज फहराया। 1757 में ही प्लासी युद्ध के बाद बंगाल पर रॉबर्ट क्लाइव का नियंत्रण हो गया था।
मराठों की दिल्ली विजय
दिल्ली को अफगानों से मुक्ति दिलाने के लिए 11 अगस्त, 1757 को स्वराज की मराठा सेना ने दूसरी बार दिल्ली पर ऐतिहासिक विजय पाई थी। अन्ताजी माणकेश्वर को दिल्ली का सर्वाधिकारी बना कर मराठे सिंधु नदी पार खैबर दर्रे तक ध्वज फहराने आगे बढ़ गए थे। मार्च 1758 में स्वराज की सेनाओं ने सरहिन्द के किले पर भगवा ध्वज फहराया, जहां गुरु गोविंद सिंह के साहेबजादों, जोरावर सिंह व फतेह सिंह को इस्लाम कबूल न करने पर 26 दिसंबर, 1704 को जीवित दीवार में चिनवा दिया गया था।
अप्रैल 1758 में मल्हार राव होल्कर और रघुनाथ राव ने लाहौर पर भी विजय हासिल कर वहां के किले पर भगवा ध्वज फहराया था। 20 अप्रैल, 1758 को लाहौर के नागरिकों ने शालीमार बाग में ऊंचे मंच पर रघुनाथ राव का भव्य नागरिक अभिनंदन किया था। इसके बाद विद्युत गति से आगे बढ़कर तुकोजी होल्कर ने अटक एवं पेशावर को जीत सिंधु पार खैबर दर्रे तक भगवा ध्वज लहराया। उस समय दक्षिण एशिया के आधे से अधिक भाग पर पेशवानीत स्वराज का भगवा ध्वज फहरा रहा था।
अब्दाली ने पंजाब सहित दिल्ली में पांच बार हिंदुओं का नरसंहार किया था। रुहेलखंड और अवध के नवाब के साथ मिलकर उसने दुरभिसंधिपूर्वक इस्लामी ध्रुव बनाया था। तब स्वराज की रक्षा के लिए 1757 में पेशवानीत सैन्य बल 5,700 किलोमीटर दूर पूना से पेशावर गया और उत्तर भारत से अब्दाली को खदेड़ कर लाहौर, सरहिन्द, मुल्तान, अटक, पेशावर एवं सिंधु पार खैबर दर्रे तक स्वराज का भगवा ध्वज फहराया। 1757 में ही प्लासी युद्ध के बाद बंगाल पर रॉबर्ट क्लाइव का नियंत्रण हो गया था।
अफगानी रोहिल्लाओं का दमन
1761 में पानीपत की तात्कालिक पराजय के बाद भी स्वराज के परिसंघ की मराठा सेनाएं पुन: संगठित हुई और 1771 में दिल्ली पर तीसरी विजय पाई। पानीपत के युद्ध में रोहिलखंड के नवाब नजीब खान ने अफगानी आक्रांता अब्दाली का साथ दिया था। दिल्ली विजय के बाद महाद जी सिंधिया 1772 में पूरब में आगे बढ़े और गद्दार नवाब को दंडित किया। 1757 की संधि के अनुसार, नवाब पानीपत के युद्ध में पेशवा का साथ देने के लिए वचनबद्ध था। चूंकि अब्दाली मुसलमान था, इसलिए नजीब ने पेशवा से किए गए समझौते को तोड़कर अफगानी आक्रांता का साथ दिया था। पानीपत के युद्ध में उत्तर भारत की अन्य रियासतों ने भी यदि स्वराज की सेना का साथ दिया होता, तो युद्ध का परिणाम अलग होता।
गद्दार नवाब को सबक
पानीपत के युद्ध में एक लाख सैनिक और अतुलवीर सदाशिव भाऊ को खोने के बावजूद पेशवा माधव राव ने अत्यंत सूझ-बूझ से स्वराज की सेनाओं को पुन: संगठित किया और दक्षिण में ‘सिरा’ व ‘मधुगिरी’ के युद्ध में हैदर अली का दमन किया। वहीं, 1771 में महाद जी सिंधिया ने पुन: दिल्ली विजय कर उसे अफगानों से मुक्त कराया। 27 वर्ष की अल्पायु में पेशवा माधव राव की मृत्यु के बाद भी स्वराज की सेनाओं की बढ़त बनी रही और 1788-1803 तक (15 वर्ष तक) लालकिले पर स्वराज का भगवा ध्वज निर्बाध लहराता रहा।
द्वितीय अंग्रेज-मराठा युद्ध में (1803-05 ई.), जो वस्तुत: ‘आंग्ल-स्वराज की सेनाओं का दूसरा युद्ध’ ही था, मुगलिया सत्ता सहित कई भारतीय शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया, जिससे उन्हें जीत मिली। अन्यथा स्वराज सेनाओं को हटाकर देश पर अंग्रेजी हुकूमत स्थापित ही नहीं हो सकती थी। पेशवा की सेनाओं ने देश भर में अंग्रेजों से 150 से अधिक स्थानों पर युद्ध लड़े। पेशवा माधव राव की असमय मृत्यु पर ब्रिटिश इतिहासकार ग्रांट डफ व अन्य इतिहासकारों ने लिखा है कि मराठा साम्राज्य को पानीपत की पराजय से कहीं अधिक क्षति पेशवा के निधन से हुई थी। 1788 से 1803 तक जब दिल्ली पर पेशवाओं का नियंत्रण था, उसी समय महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर पर जीत हासिल की थी। इसके बाद उन्होंने वहां अनेक मंदिरों और गुरुद्वारों का पुनर्निर्माण कराया, जिन्हें 1022 ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण और उसके बाद मुगल शासन के दौरान तोड़ दिया गया था।
मराठों ने अहमद शाह अब्दाली को हरा कर सरहिन्द, लाहौर, मुल्तान, पेशावर और अटक पर भगवा ध्वज फहराया था। पेशवानीत स्वराज परिसंघ का भगवा ध्वज फहराने के 41 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह ने भी लाहौर में अपना ध्वज फहराया था। उनके युद्ध ध्वज के मध्य में अष्ट भुजाओं वाली मां दुर्गा तथा उनके आगे-पीछे क्रमश: हनुमान जी और लक्ष्मण जी की छवि अंकित थी। मराठों की लाहौर विजय के बाद 12 अप्रैल, 1801 को महाराजा रणजीत सिंह का भी ऐसा ही अभिषेक और नागरिक अभिनंदन किया गया था। महाराजा रणजीत सिंह ने 225 वर्ष पहले जुलाई 1799 में लाहौर विजय के बाद इसे अपनी राजधानी बनाया था। वैसे लाहौर का मूल नाम लवपुरी है, जिसे भगवान श्रीराम के पुत्र महाराज लव ने बसाया था।
लाहौर को राजधानी बनाने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने पश्चिम में खैबर दर्रा और उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक अपना राज्य विस्तार किया। उन्होंने भी 50 वर्ष तक ईस्ट इंडिया कंपनी को सतलज नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। रणजीत सिंह के बाद 1838 में उनके अल्पवयस्क पुत्र को अपदस्थ करके अंग्रेजों ने लाहौर पर नियंत्रण किया। स्वतंत्रता से ठीक पहले अगस्त 1946 और मार्च 1947 में लाहौर, मुलतान आदि कई स्थानों पर हिंदुओं का भारी नरसंहार कर उन्हें अन्य स्थानों पर पलायन करने के लिए विवश किया गया। उस समय लाहौर की कुल आबादी में आधे हिंदू और सिख थे। लेकिन नरसंहार के बावजूद अंत तक वे असमंजस में रहे कि लाहौर भारत में ही रहेगा।
विभाजन के बाद 24 सितंबर, 1947 को जब हिंदू और सिख ट्रेनों से भारत आ रहे थे, तब मुसलमानों ने अधिकांश की हत्या कर दी। वास्तव में सिरिल रेडक्लिफ को यह मालूम ही नहीं था कि लाहौर हिंदू बहुल था। वह पहली बार भारत आया और जल्दबाजी में विभाजन रेखा खींच दी। 1947 में उन दिनों भारतीय सेना विद्रोह करने पर उतरी हुई थी। इसलिए कांग्रेस और अंग्रेजों को यह डर था कि सेना कहीं अंग्रेजों को अपदस्थ कर सत्ता की बागडोर आजाद हिंद सरकार या अन्य सशस्त्र क्रांतिकारियों को न सौंप दे।
682 ई. के आरंभ से ही अरब के लुटेरे लाहौर और सियालकोट पर हमले करते रहे। सियालकोट, जिसका पौराणिक नाम ‘शाकल द्वीप’ था, द्वापर युग से ही सूर्य उपासकों का केंद्र था। खुरासान के सुल्तान सुबुक्तगीन, जो महमूद गजनवी का पिता था, ने 975 ई. से हिंदूशाही वंश के राजा जयपाल पर बार-बार आक्रमण किया। लेकिन कुछ इलाकों को छोड़कर वह समूचे लाहौर पर कब्जा नहीं कर सका।
उसके बाद गजनवी ने भी हमले जारी रखे। 1008 ई. में जयपाल के पुत्र आनंदपाल का गजनवी से सामना हुआ, जिसमें दुर्भाग्य से उसकी पराजय हुई। इसके बाद 1022 के अंत में गजनवी लाहौर पर कब्जा करने में सफल रहा। इस जीत के बाद गजनवी ने पूरे नगर को जला दिया और मंदिरों व गुरुकुलों को नष्ट कर दिया। विभाजन के पहले तक लाहौर हिंदू संस्कृति का प्रमुख केंद्र होने के कारण ‘लघु काशी’ कहलाता था। इस प्रकार, 700 वर्षों के विदेशी दमन के बाद 20 अप्रैल, 1758 को स्वराज के मराठा सेनापतियों रघुनाथ राव व मल्हार राव और 12 अप्रैल, 1801 को महाराजा रणजीत सिंह के अभिनंदन की घटनाएं अविस्मरणीय हैं।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
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