सावरकर हों चाहे अम्बेडकर दोनों ही के किये गए कार्यों का लक्ष्य एक ही ऊँच-नीच के भेद को समाप्त करने का था.सावरकर की दृष्टि में हिन्दू संगठन व सामर्थ् के लिए जरुरी था कि अस्पृश्यता नष्ट हो. बाबासाहब का मत था कि जातिभेद अशास्त्रीय व आमानुषिक है, इसलिये नष्ट होना चाहिये. इसके परिणामस्वरुप स्वाभाविक रूप से हिन्दू संगठन हो जायेगा.वैसे हिन्दू समाज के संगठन को बाबासाहब कितना जरुरी मानते थे, ये उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है- “हिन्दू संगठन राष्ट्र- कार्य है. वह स्वराज से भी अधिक महत्व का है. स्वराज के रक्षण से भी अधिक महत्व का स्वराज के हिन्दुओं का संरक्षण है. हिन्दुओं में सामर्थ् नहीं होगा, तो स्वराज का रूपांतरण दासता में हो जायेगा.”
14 अप्रैल, 1942 को बाबासाहब अम्बेडकर जब अपना 50वां जन्मदिवस मना रहे थे तब वीर सावरकर का उनके लिए ये सन्देश था
-“व्यक्तित्व,विद्वता,संगठनचातुर्य व नेतृत्व करने की अपनी क्षमता के द्वारा आंबेडकर जी नें अस्पृश्यता का उच्चाटन करने तथा अस्पृश्य वर्ग में आत्मविश्वास व चेतन्य निर्माण करने में जो सफलता प्राप्त की है,उससे उन्होंने भारत की बहुमूल्य सेवा की है. उनका कार्य चिरंतनस्वरूप का,स्वदेशाभिमानी व मानवतावादी है. अम्बेडकर जैसे महान व्यक्ति का जन्म तथाकथित अस्पृश्यजाति में हुआ है,यह बात अस्पृश्यों में व्याप्त निराशा को समाप्त करेगी व वे लोग बाबासाहब के जीवन से तथाकथित स्पृश्यों के वर्चस्व को आव्हान देने वाली स्फूर्ति प्राप्त करेंगे. अम्बेडकर जी के व्यक्तित्व और कार्य के बारे में पूरा आदर रखते हुए, मैं उनकी दीर्घायु व स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ.”
23 जनवरी,1924 को सावरकर की प्रेरणा से हिंदु-महासभा की स्थापना हुई तब तीन प्रस्ताव पारित हुए , जिसमें से एक अस्पृश्यता के निवारण को लेकर आन्दोलन चलने के सम्बन्ध में था. इस आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाने के उद्देश्य से इसकी शरुआत सवारकर नें स्वयं से की और अनेक प्रकार की गतिविधियाँ चलाते हुए लोगों के समक्ष उदहारण प्रस्तुत किये.उनकी पहल पर होनें वाले सामूहिक भजन, सर्वजाति- सहभोज,पतितपावन मंदिर के निर्माण;रत्नागिरी के बिट्ठल मंदिर में अस्पृश्यों के प्रवेश को लेकर आन्दोलन- जेसे अनेक कामों नें अस्पृश्य-समाज को बड़ा प्रभावित किया.
एक बार अस्पृश्य समाज के आग्रह पर सावरकर का अपनी जन्मस्थली, भगुर, जाना हुआ. बड़े ही स्नेह से बस्ती की बहनों नें उनकी आरती उतारकर उन्हें राखी बांधी; और बाद में सभी जाति के लोगों नें एक दूसरे को बांधकर भेदभाव दूर कर एक होने की प्रतिज्ञा करी. अस्पृश्यता के प्रति उनकी भावना की अनुभूति करना हो तो 4 सितम्बर, 1924 को नासिक की वाल्मीकि[सफाई कर्मियों] बस्ती में हुए गणेशोत्सव में उन्होंने जो कहा वो जरुर देखना चाहिये-“अस्पृश्यता नष्ट हुई इसे अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ. मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरा शव ले जाने वालों में ब्राहमणों सहित व्यापारी,धेड,डोम सभी जाति के लोग हों. इन लोगों के द्वारा दहन किये जाने पर ही मेरी आत्मा को शांति मिलेगी.” अखिल हिन्दू-समाज में बंधुत्व-भाव के जागरण हेतु वे सार्वजानिक प्याऊ और मंदिर जाति बंधन से मुक्त हों इसे जरुरी समझते थे. यहाँ तक कि बेटी-बंदी का व्यवहार समाप्त करने तक के सारे कार्यकर्मों को उनका समर्थन प्राप्त था. इसलिए जब 7 अक्टूबर, 1945 को महाराष्ट्र में एक अंतर्जातीय विवाह हुआ तो जिन मान्यवरों नें वर बधू को शुभाशीर्वाद भेजे उनमें वीर सावरकर भी थे; अन्य थे महात्मा गाँधी,जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, रा.स्व.सेवक संघ के गुरु गोलवलकर, अमृतलाल ठक्कर आदि.
समाजिक समरसता को लेकर सावरकर द्वारा कितने गंभीर प्रयास किये जा रहें हैं बाबा साहब को इसकी पूरी जानकारी थी, आगे चलकर जिसको उन्होंने व्यक्त भी किया. हुआ यूँ कि जब रत्नागिरी के पेठ किले में भागोजी सेठ कीर द्वारा मंदिर बनवाया गया तो उसका उद्धघाटन करने के लिए सावरकर नें बाबा साहब आंबेडकर को आग्रहपूर्वक निमंतरण भेजा.आंबेडकरजी नें इस निमंत्रण पत्र का उत्तर देते हुए लिखा-‘ पूर्व नियोजित कार्य के कारण मेरा आना संभव नहीं; पर आप समाज सुधार के क्षेत्र में कार्य कर रहें हें,इस विषय की अनुकूल अभिप्राय देने का अवसर मिल गयाहै. अस्पृश्यता नष्ट होने मात्र से अस्पृश्य वर्ग हिन्दुसमाज का अभिन्न अंग नहीं बन पायेगा. चातुर्वर्ण्यं का उच्चाटन होना चाहिए. ये कहते हुए मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि आप उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं, जिन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव हुई है.’।
लेखक – अभिषेक कुमार
लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोधार्थी हैं।
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