भारत में हिंदुओं के उत्सवों के जुलूसों पर पत्थरबाजी की घटनाएं इतनी ज्यादा हो चुकी हैं कि अब उनकी पहचान करना बहुत सरल हो चुका है।
हिंदुओं के कार्यक्रमों, धर्म स्थलों व त्योहारों पर नियमित तौर पर की जाने वाली पत्थरबाजी उतनी सरल बात नहीं है, जितनी वह प्रथम दृष्टि में नजर आती है। इसके रहस्य को गंभीरता से समझा जाना जरूरी है। भारत के दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक कहे जाने वाले समुदाय में ऐसे लोगों का एक प्रभावी समूह है, जिन्हें अपने वैध-अवैध घरों व प्रार्थना स्थलों की छतों पर पत्थर इकट्ठा करना बहुत आवश्यक लगता है। क्यों?
पथराव की सभी घटनाओं का औचित्य यह, जैसा सभी ने टीवी चैनलों पर हुई बहसों में देखा भी है, कि उन्हें पथराव करने के लिए उकसाया गया था। क्या था वह उकसावा? कहा गया कि हिंदू समुदाय ने नारे लगाए और डीजे पर गाने बजाए थे जिससे ‘शांति प्रिय’ लोग भड़क गए थे। इस उकसावे के कारण दंगे और आगजनी हुई। यहां तक कि आसमान से पत्थर भी बरसने लगे। कम से कम खबर तो यही है।
याद करें, जब एक हास्य कलाकार ने कुछ हिंदुओं को उकसाया था, तो उन्होंने क्या किया था? वे उसके शब्दों, उसके अंदाज के खिलाफ पुलिस में गए थे। तब इन दंगाइयों के सदाबहार समर्थकों की प्रतिक्रिया क्या थी? अरे, किसी के शब्द आपको कैसे उत्तेजित कर सकते हैं! आप कॉमेडी भी नहीं समझते! धिक्कार है … आदि। अब क्या हो गया? कहां गए वही तर्क?
जब हजारों मील दूर किसी ने किसी अखबार में एक कार्टून छाप दिया था, तब इसी गिरोह ने ‘उकसाए’ जाने के खिलाफ चीख-पुकार मचाई थी। माने स्वीकार किया गया कि शब्दों में शक्ति होती है। कोई भी शब्द भारत के बहुसंख्यकों के लिए महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है, लेकिन दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक के लिए हर शब्द उकसावे की वजह होता है? इसे एक ‘सामान्य नियम’ के तौर पर मानने की स्थिति पैदा करने की कोशिश लगातार की जाती रही है। एक और शानदार व महत्वपूर्ण नया ‘सामान्य नियम’ है- ‘मुस्लिम क्षेत्र’ शब्द का प्रयोग। पहले ही दो तथाकथित ‘मुस्लिम क्षेत्र’ भारत (पाकिस्तान और बांग्लादेश) से पूर्ण ‘मुस्लिम अधिकारों’ के साथ पृथक हो चुके हैं।
वास्तव में पत्थरबाजी और ‘मुस्लिम क्षेत्र’ की स्थापना में गहरा संबंध है। पत्थरबाजी में बड़ी संख्या में लोगों को शामिल किया जा सकता है। इससे कुल आतंकवाद के लिए बड़ा ‘सामाजिक आधार’ तैयार हो जाता है। एक ही अपराध में जब बहुत सारे लोग शामिल हों, तो उनमें आपसी तालमेल बहुत अधिक हो जाता है। इससे सबूत व गवाह खोजना कठिन हो जाता है।
इस तरह मिली कानूनी बेफिक्री नए सिरे से ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसमें शामिल होने के लिए एक प्रोत्साहन बन जाती है। छोटे बच्चों को इसमें शामिल करने से भविष्य के उत्पात के लिए प्रशिक्षित लड़कों की फौज स्वत: तैयार हो जाती है। छतों से की जाने वाली पत्थरबाजी, बाहरी सड़क को सीमा जैसा मानते हुए, इलाके की ‘किलेबंदी’ की एक परत तैयार कर देती है। इसके बाद एक या दो दौर की पत्थरबाजी से ही इलाका बाकी लोगों के लिए ‘नो-गो’ एरिया बन जाता है, माने ऐसा ‘मुस्लिम क्षेत्र’ जिसमें न दूसरे लोग आ सकते हों, न पुलिस। देश के कई स्थानों पर ऐसे ‘मुस्लिम क्षेत्र’ कायम हो चुके हैं। इनके बचाव में दी जाने वाली तकरीरों में कहा जाता है कि यह तो ‘डरे हुए लोगों की बस्ती’ है।
सोशल मीडिया पर एक तस्वीर बहुत प्रचारित हुई है। इसमें एक लड़का मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा लगाता दिखाया गया है। निश्चित तौर पर यह गलत तस्वीर है, पर वास्तविक खबर या वास्तविक धमकी कुछ और है। उस तस्वीर का चित्र परिचय है-‘सब याद रख जाएगा’…। और जवाब में आसमान से पत्थर बरस गए थे! आधुनिक समय में पत्थरबाजी का आतंकवादी प्रयोग संभवत: सबसे पहले फिलिस्तीन में किया गया। सद्दाम हुसैन ने अपनी एक मिसाइल का नाम ही ‘स्टोन’ रखा था। फिलिस्तीन से यह हथकंडा कश्मीर पहुंचा। सीरिया में इस्लामिस्टों ने छतों पर भारी गुलेलों से भारी पत्थरों और पेट्रोल बमों का प्रयोग किया था और फिर यह आइडिया दिल्ली में दोहराया गया।
पत्थरबाजी के बचाव में लंबी तकरीरें मीडिया में मिल सकती हैं, लेकिन पत्थरबाजी का सीधा या परोक्ष बचाव करने वाला कोई भी व्यक्ति इसका जवाब नहीं दे पाता है कि ‘समुदाय विशेष’ के पास पत्थरों का भंडार आसानी से उपलब्ध कैसे हो जाता है? आम तौर पर दिया जाने वाला जवाब यह है कि यह तो भवन की निर्माण सामग्री में इस्तेमाल किए गए टूटे हुए पत्थर थे या यह कि पत्थर कंस्ट्रक्शन साइट के थे। गलत बात! टूटे पत्थर अलग होते हैं, और छोटे होते हैं; जबकि फेंके गए पत्थर अपेक्षाकृत बड़े होते हैं।
टूटे पत्थर फेंके गए पत्थरों की तरह घातक भी नहीं होते हैं। फिर इस बात का भी कोई उत्तर नहीं होता है कि ‘मुस्लिम क्षेत्र’ में हर घर उस समय निमार्णाधीन कैसे हो जाता है, जब वहां से हिंदुओं का कोई जुलूस गुजरने वाला होता है? अगर निमार्णाधीन भी होता है, तो छतों पर भारी भरकम गुलेलें किस तरह के कंस्ट्रक्शन में इस्तेमाल होती हैं? भारी भरकम गुलेलें ठीक वैसी ही क्यों होती हैं, जैसी सीरिया में इस्तेमाल हुई थीं? पेट्रोल बमों का प्रयोग किस कंस्ट्रक्शन में होता है?
भारत में हिंदुओं के उत्सवों के जुलूसों पर पत्थरबाजी की घटनाएं इतनी ज्यादा हो चुकी हैं कि अब उनकी पहचान करना बहुत सरल हो चुका है। सामान्य प्रेक्षण के आधार पर कहा जा सकता है कि घटना के दिन से पहले हमले के संभावित स्थान को आसानी से समझा जा सकता है। पत्थरबाजों में सरगर्मी आसानी से देखी और महसूस की जा सकती है। इलाके में शहर से बाहर के लोगों की बढ़ी हुई संख्या महसूस की जा सकती है।
मीडिया कवरेज में कही जाने वाली कहानी तैयार होती देखी जा सकती है। घटना के दिन, लेकिन घटना से पहले, किसी बहाने बड़ी भीड़ जुटती देखी जा सकती है। हालांकि तब तक पूर्ण शांति रहती है। एक वर्ग विशेष की दुकानें असामान्य रूप से बंद होती हैं। फिर जब जुलूस गुजर रहा होता है, तो डीजे, नारे आदि के उकसावे के आधार पर, पूर्ण प्रशिक्षित ढंग से पथराव होता है। अगली बार फिर कोई अन्य स्थान होता है, अन्य जुलूस होता है और पत्थरबाजों का अन्य समूह होता है।
पत्थरबाजी ही क्यों?
पत्थर जुटाना और उन्हें छत पर रखना सरल होता है, गुलेल प्रयोग करना भी सरल होता है। छत पर रखे पत्थरों का पता पुलिस भी ड्रोन के बिना आसानी से नहीं लगा सकती है। अगर पत्थरों का ढेर पकड़ा जाता है, तो भी पत्थर रखना कानूनन अपराध नहीं होता। फिर पत्थरबाजी में छोटे बच्चों का प्रयोग किया जा सकता है, जो भारतीय कानून के तहत ‘जुवेनाइन जस्टिस’ के दायरे में आते हैं, और एक तरह से कानून से आसानी से बच जाते हैं।
फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए नरसंहार में आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन को रंगे हाथ पकड़ा गया था। उसका घर पथराव के साथ-साथ पेट्रोल बम फेंकने के लिए बनाई गई इम्प्रोवाइज्ड गुलेल का अड्डा था। उसने दिल्ली से हिंदुओं को मारने और निकालने की बात कबूल भी की है।
सोशल मीडिया पर एक तस्वीर बहुत प्रचारित हुई है। इसमें एक लड़का मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा लगाता दिखाया गया है। निश्चित तौर पर यह गलत तस्वीर है, पर वास्तविक खबर या वास्तविक धमकी कुछ और है। उस तस्वीर का चित्र परिचय है-‘सब याद रख जाएगा’…। और जवाब में आसमान से पत्थर बरस गए थे!
आधुनिक समय में पत्थरबाजी का आतंकवादी प्रयोग संभवत: सबसे पहले फिलिस्तीन में किया गया। सद्दाम हुसैन ने अपनी एक मिसाइल का नाम ही ‘स्टोन’ रखा था। फिलिस्तीन से यह हथकंडा कश्मीर पहुंचा। सीरिया में इस्लामिस्टों ने छतों पर भारी गुलेलों से भारी पत्थरों और पेट्रोल बमों का प्रयोग किया था और फिर यह आइडिया दिल्ली में दोहराया गया। कोई तो बात है!
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